उत्तराधिकार
उत्तराधिकार
निरंजन को जब 37 साल 9 महीने 10 दिन हुए थे, उस दिन उसकी आंखों पर चश्मे का नम्बर+ 1.5 आया था। चश्मे की दुकान पर उसके चश्मे की फ्रेम को पसंद किया था शाश्वती ने। दुकानदार द्वारा बिल बनता देख निरंजन
चौंक गया था, रुपए 245/-। शाश्वती कभी भी दुकान पर भाव-तौल नहीं करती थी, शायद उससे उसके आभिजात्य में कुछ कमी आती
हो। अगर पांच-दस रुपये ज्यादा ले भी लेगा तो उसके लिए भाव-तौल करना क्या अच्छा लगता है?
चश्मा लग जाने से पहले दूर की चीजें अच्छी तरह से
नहीं देख पा रहा था निरंजन। ऐसे लिखाई – पढाई में कोई खास दिक्कत
नहीं आ रही थी, मगर सर-दर्द अवश्य होता था और धूप में आंखों से पानी निकलने लगता था। चेक–अप करते समय डॉक्टर ने कहा था, “आपने आंखों को बर्बाद कर
दिया है। अगर माइनस नम्बर होता तो ज्यादा चिंता की बात नहीं थी, मगर अब आपको रोज चश्मा पहनना पड़ेगा।”
चश्मा पहनने से क्या बुढ़ापा दस्तक देने लगता है? शाश्वती ने यह बात अवश्य कही थी, निरंजन के चेहरे पर चश्मा और
ज्यादा सुंदर लग रहा था। जवान दिखने के साथ-साथ गांभीर्य में भी वृद्धि कर रहा है। मगर निरंजन दर्पण में अपना चेहरा देखकर ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं कर पा रहा था, बल्कि उसे अपना चेहरा भी अपरिचित लगने लगा था।
चश्मा पहनते ही अपने आप को वृद्ध समझना शुरू कर दिया
था निरंजन ने। अपने अड़तीस साल की उम्र में ही। अभी तो चालीस साल भी पूरे
नहीं हुए थे। उसका दूसरा कारण था हाउसिंग बोर्ड का उसका घर। इतनी कम उम्र में हाउसिंग बोर्ड
का घर, वह भी भुवनेश्वर में। फिर निरंजन की मामूली नौकरी।
इस कारण वह बहुत सारे लोगों की ईर्ष्या का शिकार था। इस वजह से निरंजन को लगता था कि यह घर ही उसके बुढ़ापे का प्रतीक है।
चश्मा खरीदा था निरंजन ने, भुवनेश्वर के बापूजी नगर से। साथ में शाश्वती और उसके छह साल का बेटा चंकी। खल्वाट होते सिर को उसने अपने हेलमेट से ढक दिया था और चंद्रशेखरपुर जाने
के लिए स्कूटर स्टार्ट कर दिया। नए- नए अधिकार में लिए एमआईजी फ्लैट को धोना जरूरी
था। दूसरे दिन गृह प्रवेश जो था। घर आते समय उसे दीदी की दी गई सूची के अनुसार सामान खरीदना था, साथ ही साथ स्टोव भी ठीक करवाना था।
नए घर में स्टोव पर खीर बनाई जाएगी। दीदी ने सबकुछ ठीक-ठाक कर
दिया था अर्थात मेनू, प्रोग्राम में कौन-कौन आएंगे, पुरोहित कौन आएगा, खाना कहां से आएगा से लेकर कपड़े, केले, नारियल, अक्षत, हल्दी पाउडर, पंचामृत की सारी चीजें। खिचड़ी, दाल, सब्जी आएगी अनंत वसुदेव मंदिर से। रसोई का रिवाज क्या है, इसलिए खीर बनाई जाएगी नए घर में। दीदी ने ओमफेड दूध का ऑर्डर भी दे दिया था।
नया-नया चश्मा निरंजन को असहज लग रहा था। सबकुछ जैसे झपसा-झपसा और
अस्पष्ट। स्कूटर चलाने में बहुत तकलीफ हो रही थी। चंद्रशेखरपुर अभी बहुत दूर
था। शहीद नगर, वाणी-विहार, सैनिक स्कूल, और फिर उसके बाद चंद्रशेखरपुर, बीडीए, उसके बाद हाउसिंग बोर्ड, भुवनेश्वर 33।
इतना विशाल भुवनेश्वर? पुराना भुवनेश्वर,
नयापल्ली, शहीद नगर और सब? बहुत सारे पोस्ट ऑफिस? कहाँ वे सब? बड़े ही अचरज का शहर है भुवनेश्वर !
भुवनेश्वर अभी इतना कंप्यूटर अध्यूषित प्रदूषण युक्त मैला
शहर नहीं था। निरंजन और शाश्वती के शादी के समय बड़ा होटल कहने से राजमहल, ओबराय, प्राची या कलिंगा अशोक था, मगर स्थानीय देशी लोग बहुत कम जाया करते थे इन होटलों में। न्यू केनिल वर्थ, कोणार्क, स्वस्ति और ओबराँय में जाना तो दूर की बात, ‘राजमहल बार’ ही था भुवनेश्वर के बुद्धिजीवियों का संगम-स्थल। उस समय भुवनेश्वर में कमल पट्टनायक ने व्यवस्था की थी, फ्राइड राइस, चिकन और आइसक्रीम दस-बारह रुपए में। उनकी शादी के रिसेप्शन के मेनू के हिसाब से। यह सन् 1981 की बात होगी।
कमल रहता था शहीद नगर के मार्केट बिल्डिंग में। नीचे में थी प्रेस, ऊपर भाड़ा घर। तेज बारिश होने लगी थी। नीचे एक पत्रिका की डिजाइन
में व्यस्त था कमल। कब से वह प्रेस टूटकर टी.वी रूम में बदल गई थी, निरंजन को मालूम नहीं। कमल चला गया था अपने गांव
खोर्द्धा के पास रामेश्वर में।
नीचे घर से बाल्टी मांगकर शाश्वती ने घर की सफाई करने के बाद बॉलकोनी में
निरंजन और बच्चों के साथ देखने लगी चंद्रशेखर कॉलोनी और सरस्वती पूजा के
साजो-सामान। इसी दौरान नया-हाईस्कूल, डिस्पेंसरी और कई छोटे-बड़े
बाजार पनप गए थे। और सब से ज्यादा आश्चर्य की बात, निरंजन को लगने लगा था कि वह बूढ़ा हो गया है|
सच में बूढ़ा? अगर अड़तीस साल में उसे
बुढ़ापा आ गया तो उसकी जवानी कब थी?
शायद निरंजन के यौवन की कहानी तीन-चार साल की रही होगी।शाश्वती से शुरू
होकर शाश्वती के पास ही खत्म। इन तीन-चार साल के दौरान कब
सुबह हुई, कब शाम हुई, कब धूप निकली, कब ओलों की बरसात हुई, उसे पता ही नहीं। मंत्रमुग्ध होकर मानो उसने बिता दिए, केवल एक हंसते-रोते, पुराने फिल्मी गाने सुनते, चंद्रमा की चांदनी में
समुद्र देखते, रमाकांत रथ की कविता पढ़ते, दुख झेलते और बारिश की
घटाटोप से अचानक उल्लसित होकर उसने चारों तरफ प्रकट होते अद्भुत मोहक सुवास फैलती शाश्वती के चेहरे के भीतर। शाश्वती आकाशी रंग की साड़ी और काले ब्लाउज में बहुत खूबसूरत दिखाई देती
थी। शाश्वती की हंसी एक परिपूर्ण हंसी, होठों से बाहर निकलकर चेहरे
पर खिल जाती और आंखें बंद हो जाती। शाश्वती की उनके दुमंजिले
मकान की खिड़की में लगे परदे के पीछे से दिखाई देती कोमल अंगुलियों तथा चंचल आंखों की चमक क्षणिक किसी कैनवास से कम नहीं होती थी। शाश्वती निरंजन के सामने हिलती -डुलती पतली लकड़ी का अस्तित्व थी।
सौभाग्य मिश्रा की 'अंधी मधुमक्खी’ का उपहार देकर शायद यवनिका पतन की शुरूआत की थी कमल ने राजमहल की छत पर
आयोजित एक पार्टी में|
आमंत्रित अतिथियों के लिए दस रुपए में फ्राइड राइस, चिकन और आइसक्रीम वाली प्लेट का आयोजन किया था उसने| निरंजन को तब तक पता नहीं चल रहा था कि बुढ़ापा उस पर इतनी नजदीकी से दस्तक दे रहा था।
छत पर जाकर शाश्वती ने देखा और निरंजन को आवाज लगाई
या देखने के लिए कि किस तरह किसी ने एक ओवरहेड पानी की टंकी का पाइप खोलकर एंटीना
बांधी है बीच की मंजिल पानी गिरने से गीली हो गई है। निरंजन का मन
बेहद भारी हो गया, यह दृश्य देखकर| एक लाख सत्ताईस हजार रुपए ब्याज समेत दस साल चुकाने के बाद मिलेगा छत से
पानी छूने वाला एक घर, वह भी बीच वाली मंजिल के किरायेदारों की बदमाशी से। मगर अब इस समय वह कुछ नहीं कर पाएगा।
घर के कमरे भी छोटे-छोटे लग रहे थे निरंजन को। शाश्वती ने विरोध किया था, नहीं| कुछ भी सामान नहीं होने के कारण वह घर ऐसा दिख रहा था, अन्यथा आजकल दस फुट गुणा
ग्यारह फुट कमरों वाले घर को छोटा कहा जा सकता है? शाश्वती ने कहा था कि तुम
हमेशा असंतुष्ट रहते हो|
उदाहरण के तौर पर बापूजी नगर की दुकान पर निरंजन को
चश्मे की फ्रेम ज्यादा बड़ी लग रही थी, जबकि पुराने जमाने की बड़ी फ्रेम वाला चश्मा ही आधुनिक फैशन है| ये सब शाश्वती की नीरव स्वीकृति थी उसके बुढ़ापे की|
चन्द्रशेखरपुर हाउसिंग बोर्ड वाले घर में पैर रखने के बाद यानि चश्मा खरीदने के कुछ घंटों
के भीतर ही निरंजन को पता चला कि उसके चश्मे के कवर से कांच साफ करने वाला रुमाल कहीं खो गया है| इस बारे में शाश्वती ने पूछा भी था| उसके तीन-चार घंटे बाद दीदी के बीजेबी कैंपस वाले क्वार्टर से गृह -
प्रतिष्ठा के लिए लाया गया सोना भी कहीं गुम हो गया था| इस बारे में उन्होंने दीदी से कुछ भी नहीं बोलने के लिए कहा, क्योंकि कहीं ननद-भाभी का स्नेहमय संबंध बिगड़ न जाए|
घटना कुछ ऐसी ही थी। घर के गहनों में से एक छोटा-सा
टुकड़ा काटकर कागज पर लाई थी शाश्वती, गृह- प्रतिष्ठा के समय सोने की जरूरत होगी सोचकर, मगर भुवनेश्वर पहुंचते समय कागज में रखा हुआ सोना कहीं गिर गया था। निरंजन ने सोच लिया था कि सोना खरीदने का अर्थ और सौ-दो सौ नहीं तो पचास-साठ रुपयों की जरूरत अवश्य पड़ेगी। मगर सुनार की दुकान में जब गृह-प्रतिष्ठा के लिए सोना मांगा तो उसने लाल कागज
आगे बढ़ा दिया,अविश्वसनीय दाम था उसका, दस रुपए। अनिल ने
पकड़ाए पांच रुपए, उस पर भी सुनार राजी हो गया था।
पांच रुपए में इतना सारा सोना! दीदी के घर में शाश्वती बुदबुदाते हुए कह
रही थी। उसकी आंखें, नाक और चेहरे की भाव- भंगिमा देखकर यह पता चलता है कि वह पूरी तरह से
असंतुष्ट हैं और गुस्से में भी। इतनी कंजूसी!
अपना घर, उसकी गृह-प्रतिष्ठा और उस घर के एक कोने में सोना का अंश होगा- तुम पांच
रुपए का सोना लाए हो? पांच रुपए में कहीं सोना मिलता है?
अनिल, जिसे अपना परिचय एक उद्योगपति के रूप में देना अच्छा लगता है, ने टी.वी का एक कारखाना खोला
है, उसने पांच-छह मैकेनिक रखे हैं, किसी प्रसिद्ध कारखाने से
पार्ट्स खरीदकर उस कंपनी के नाम पर बने कैबिनेट में फिट कर फिर उस कंपनी को सप्लाई
करता है और मैकेनिकों को तनख्वाह देने के बाद सात–आठ हजार रुपयों का लाभ होता
है, शाश्वती के क्रोध को बर्दाश्त कर हंसते-हंसते निरंजन को बचा लिया शाश्वती के
क्रोधाग्नि से, मिट्टी की हांडी खोजने के नाम पर।
पुराना टाउन ठीक वैसा ही था, बिलकुल भी बदलाव नहीं हुआ था, केवल रवि टॉकीज से बीजेबी कल्पना चौक छोड़कर| इतने सालों से भुवनेश्वर में रहने के बाद भी निरंजन को मालूम नहीं थी, महासुआर लोगों की (जगन्नाथ मंदिर के खाना बनाने वाले सेवक) अवस्थिति, उनके अते-पते और हांडियों का हिसाब-किताब| एक गली की तरह छोटी-छोटी दुकानें, जहांँ बाहर में नई हांडियाँ रखी हुई थी, वहां मैली-कुचैली गंजी और
लुंगी पहने दो-तीन आदमी सब्जी काटने में व्यस्त थे| खिचड़ी की हांडी देखकर किसी ने पूछा, लिंगराज से या आनंद वासुदेव से? अनिल ने निरंजन की तरह उड़ते हुए कहा, " लिंगराज से
प्रसाद आने में तीन- चार बज जाएंगे| अनंत वासुदेव से ऑर्डर दे देते हैं क्या कह रहे हो? पहला प्रसाद दस बजे तैयार हो जाएगा।"
इस सारे विषयों की निरंजन को कुछ भी जानकारी नहीं थी।
सबकुछ दीदी के ऊपर निर्भर करता है और दीदी ने अनिल को इस बारे में बता रखा था| केवल हांडी के बारे में ही नहीं, बल्कि दूसरे सारे विषयों
जैसे कितने अतिथि आएंगे, कैसे सभी चंद्रशेखरपुर जाएंगे, कब लौटेंगे, सब तय किया हुआ था| दीदी हमेशा से निरंजन को दायित्वहीन समझती थी और शाश्वती को तो इंसान की
श्रेणी में भी नहीं गिनती थी। यहां तक कि किसी भी चीज के बारे में शाश्वती की परामर्श लेने तक की
आवश्यकता नहीं समझती थी दीदी। यह निरंजन के प्रति विशेष प्यार के कारण था।
एक हांडी की कीमत डेढ सौ रुपए थी। अनिल दबी आवाज में कहने लगा, “ क्या बेकार में दाम बढ़ा रहे हैं। चलिए, अनंतवासुदेव वहाँ एक महासुआर से मेरा परिचय है, वहाँ देखते हैं।”
अनंतवासुदेव से लिंगराज मंदिर के सामने वाली गली, वहाँ से फिर बडदांड रास्ते पर बने वीडियो कॉर्नर वाली गली, वहाँ से केदार गौरी, फिर मुक्तेश्वर, फिर बिंदु सरोवर। कहीं पर भी दाम एक सौ तीस रुपए से कम नहीं थे। कहीं पर, 'भईया, खोर्द्धा गए हैं, आने पर बताएंगे' तो कहीं पर 'हमारे सारे आर्डर बुक हो गए हैं’, यह सब सुनकर मन ही मन अनिल
ने एक सौ तीस रुपए में हांडी खरीदने का तय कर लिया था कि तभी किसी देवदूत की तरह या किंवदंती
के अनुसार जगन्नाथजी को तैयार करने वाले विश्वकर्मा की तरह दंतहीन, मैली आंखें, मैले कुचैले बूढ़े ने कहा, " अस्सी रुपए में खिचड़ी वाली हांडी दूंगा, मगर उसमें काजू किसमिस नहीं
होगी।" एक भी छोटी हांडी नहीं थी उसकी दुकान पर, बड़े-बड़े कददुओं की बात तो
दूर, छोटी-बड़ी सब्जी तक देखने को नहीं मिल रही थी। घर के अंदर रस्सी की खाट पर कोई मुमुर्ष अवस्था में पड़ा हुआ था और एक
स्त्री दीवार से चिपक कर बैठी हुई थी, अपने एक डेढ़ साल के बच्चे को
दूध पिलाते हुए। अपने खुले चेहरे, सफलित यौवन, निक्षेपित मातृत्व के प्रति उदासीन उस स्त्री ने अन्यमनस्क भाव से उस तरफ
देखा और उसकी नजर अनिल और निरंजन को पार करते हुए बिंदु सागर को स्पर्श कर आकाश
में कहीं खो गई। उसी वातावरण के भीतर से बाहर निकला वह पौराणिक विश्वकर्मा जिसने खिचड़ी की बाई हांडी अस्सी रुपए में देने का आश्वासन दिया था। बिना कुछ बोले अनिल ने अपनी
जेब से पचास रुपए निकालकर आगे बढ़ा दिए, निरंजन समझ गया था कि यह
रुपए दीदी ने ही दिए हैं। जब शाश्वती को यह बात पता चलेगी तो वह अपने आपको लज्जित अनुभव करेगा। क्या हम इतने गए गुजरे हैं कि खिचड़ी वाली बाईहांडी भी खरीदने में सक्षम
नहीं है।
निरंजन के पास भुवनेश्वर में बाईहांडी नहीं थी, हाउसिंग बोर्ड का घर भी नहीं था, ना ही कोई टैक्सी टेंपो। ज्यादा से ज्यादा उसके पास था कमल का दिया मोटर-साइकिल, जिसे लेकर वह प्रेस बंद करने के बाद अनिल के साथ निकल जाते थे, सुनावेड़ा से भुवनेश्वर। शहीद नगर की किसी होटल में मिलकर वे कभी छनापोड खरीदते तो कभी मछली बाजार
से मछली। कब तक कमल "आशार आकाश” ओड़िया फिल्म का संगीत निदेशक नहीं बना था और लिटरेचर में एम.ए करने के बाद
सरकारी नौकरी छोड़कर बैंक से लोन लेकर प्रेस खोल ली थी। सोचने से भी आश्चर्य होने लगता है कि अब वह कमल कहां गायब हो गया| निरंजन के पास से, मानो भुवनेश्वर और निरंजन कोई भी उसके नहीं थे', मानो भुवनेश्वर में कभी कमल रहा ही नहीं हो| वर्षा, निरंजन और शाश्वती भी एक बार आई थी निरंजन के साथ में। मानो वह बहुत गंभीर
अपराध कर रहा हो, और पहुंचने पर उसने देखा कि प्रेस खुली हुई थी, मगर कमल नहीं था वहां। मगर घर की चाबी नहीं थी
प्रेस में। घर का भी ताला बंद था। तब तक कमल की शादी भी नहीं हुई थी और शाश्वती ने
लौटकर लिखा था, "भगवान ने मुझे बचा लिया, नहीं तो...." ऐसे भी कभी अप्रोच नहीं किया था निरंजन ने।
मगर दीदी को हमेशा यही संदेह बना रहता है कि शाश्वती की निश्चित रूप से
पहले कहीं ना कहीं शादी अवश्य हुई होगी। अंततः इस भुवनेश्वर में..... नहीं तो सुनावेड़ा से बार-बार दौड़कर क्यों आ रहा है निरंजन? किस प्रलोभन से? किसके आकर्षण से? दीदी के इस असहाय सन्देह ने शाश्वती के मन को विरोधी बना दिया था। यह बात
केवल निरंजन ही जानता है कि सुहाग रात के समय कितनी यंत्रणा सहन कर अपनी अक्षत
कौमार्य का परिचय दिया था उसने। उस समय भुवनेश्वर में
आश्रय-स्थल भी नहीं थे। सत्तर दशक के मध्य भाग में एकाध निरापद होटल हुआ करते था। निरंजन ने तो कभी भी उसे परखने वाली दृष्टि
से नहीं देखा।
बहुत कुछ बातें पता नहीं की थी निरंजन ने, जैसे टैक्सी की बात। स्टेशन के सामने खड़ी टैक्सी वाला जब बीजेबी कैम्पस से चंद्रशेखरपुर ले
जाने के लिए अस्सी रुपए से कम में राजी नहीं हुआ तो अनिल ने कहा, "फिर एक बार टैक्सी भाड़ा करनी होगी? सुबह की टैक्सी में सब
चढेंगे बीजेबी कैम्पस से और शाम को टाइम बस से लौट आएंगे? क्या कह रहे हो?"
निरंजन के मुख से निकला आया था, दीदी को एक बार पूछना अच्छा
रहेगा।
शाश्वती पास में होती तो मुंह फूला देती और कहने लगती, "मुझे मालूम नहीं था कि आपका परिवार कितना ज्यादा दीदी केंद्रित है। ज्यादा से ज्यादा आपकी दीदी एक प्रोफ़ेसर है। एक बार लंदन या अमेरिका गई थी,छह महीने के लिए। बस वह बन गई तुम्हारे परिवार की हेड ऑफ डिपार्टमेंट। ऐसा दीदी केंद्रित परिवार मैंने कभी भी नहीं देखा।"
शाश्वती का ऐसा कहना वास्तव में उचित नहीं था। शादी के आठ-नौ साल हो गए, निरंजन के दीदी को चिट्ठी-पत्र लिखे हुए। उसके साथ बहुत बार ऐसा हुआ कि उसे
भुवनेश्वर आकर भी दीदी को मिले बिना लौटना पड़ा।
निरंजन की शादी के बाद शाश्वती की दीदी ने थोड़ी-सी खिंचाई कर दी थी, पता नहीं क्यों, शाश्वती पर दीदी की अच्छी धारणा नहीं थी। वह सोच रही थी कि शाश्वती के
साथ शादी करके निरंजन ठगा गया है, कारण अवश्य दहेज ही रहा
होगा। दीदी बहुत गुस्सैल प्रोफेसर थी और बच्चे भी उससे डरते थे। कॉलोनी में भी उसे लड़कियों की फैशन पसंद नहीं आती थी। शाश्वती
निरंजन की दूसरी भाभियों से अलग थी। अष्ट मंगला से पहले ही नाइटी
पहन कर उसने सभी को अचंभित कर दिया था। वह निरंजन की भाभियों की तरह
पान नहीं खाती थी, दाएं हाथ में नाखून बढ़ा कर रखती थी, भ्रू-लता बनाती थी, होठों पर लिपस्टिक लगाती थी, तरह-तरह की डिजाइन वाले बाल रखती थी। उसके संदूक में बहुत सारे
ऐसे कॉस्मेटिक्स थे, जिनके नाम तक निरंजन की बहिन और भाभी ने नहीं सुने थे।
शाश्वती के प्रति दीदी को सबसे ज्यादा गुस्सा सुहागरात के हवन से शुरू हुआ, उस समय उसने चार-चार बार बाल धोकर नहाने के लिए शाश्वती को मजबूर किया था
और उसको अनेक बार खरी-खोटी भी सुनाई थी।
दीदी बचपन से ही जिद्दी थी। हमेशा एक इंफिरियरिटी
कांपलेक्स उसके भीतर छाया रहा रहता था कि वह काली-कलूटी और असुंदर है, इसलिए कोई भी उसे प्यार नहीं करता है। दीदी एक रजिस्टर में लिखती
थी किसने, कितनी बार किस लिए उसे गाली दी थी। दीदी किसी भी विषय को भूल नहीं पाती थी और नहीं वह कभी भी अपने भाइयों को प्यार कर पाई
या उनका विश्वास जीत सकी।
उसी दीदी ने निरंजन को कहा था, उसके होते हुए क्या दिक्कत
है गृह प्रतिष्ठा में ? शादी के बाद दीदी भले ही बहुत बदल गई थी, मगर ऐसे कार्यक्रमों से
प्रेम कम नहीं हुआ था। मगर निरंजन मतलब चार भाई, और चार भाइयों के जीन्स में
ऐसा किसी उदासीन संन्यासी का प्रभाव पड़ा था कि वे एक दूसरे की तरफ हाथ बढ़ाने के
आग्रह को महसूस नहीं कर पाते थे, सालों-साल से। नहीं तो, वह शादी के कितने दिनों के बाद भी बीजेबी कैम्पस के चक्कर नहीं लगाता।
यह बात सही है कि शाश्वती के आने के बाद दीदी के प्रति सोचने का ढंग बदल
गया था निरंजन का - उसके दृष्टिकोण में ममता के स्थान को ऑब्जेक्टिव ने ले लिया
था। मगर एक और विषय जो निरंजन को दुख देता था और जिसके लिए वह बीजेबी कॉलेज के
बहुत चक्कर लगाता था। अपनी शादी के पहले भी कमल के साथ भुवनेश्वर भ्रमण के दौरान
शहीद नगर में रात बिताता था निरंजन, भूल से भी कल्पना चौक पार
नहीं करता था। उसका कारण था दीदी की शादीशुदा जिंदगी का दुखमय होना।
बहनोई को तो एकदम बेकार कहने पर भी चलेगा और वह अत्यंत गंभीर चुपचाप रहने
वाले थे। दीदी की शादी के समय उनके स्कूटर की दूकान थी और बाद में पता नहीं कैसे, वह दूकान टूट गई। दीदी बहनोई के बारे में बहुत आक्षेप लगा रही थी, जैसे वह खूब शराब पीते हैं, जुआ खेलते हैं और तत्कालीन
माली साही की किसी तेलुगु महिला के साथ उनके अनैतिक संबंध हैं, इत्यादि-इत्यादि। दीदी हमारे घर में भी जीजाजी को खुले-आम गालियां देती थी और
निर्लज्जतापूर्वक इन सारी चीजों के आरोप लगाती थी।
निरंजन के बजाय शाश्वती ने ज्यादा ध्यान-पूर्वक देखा कि जीजाजी कितने
चुपचाप और निराश है, मानों कुछ भी नहीं हुआ हो, दीदी के गालियों की बौछार
सहकर भी। आखिरकर निरंजन के लिए इस तरह उदासीन बने रहना संभव नहीं था। शाश्वती के शब्दों में जीजाजी का व्यक्तित्व निखर उठता था और दीदी का धूमिल हो जाता
था, इस घटना के बाद। फिर भी निरंजन ने अनिल को कहा था रेलवे-स्टेशन पर, टैक्सी टेंपो के बीच में से रास्ता ढूंढ-ढूंढ़कर आगे बढ़कर कानों में
फुसफुसाते हुए, अच्छा होता कि एक बार दीदी से पूछ लिया जाता। अनिल अभी तक बच्चा है, उम्र ज्यादा से ज्यादा होगी बाइस साल और दीदी के साथ कैसे संपर्क में आया, पता नहीं, अब वह इंडस्ट्रियलिस्ट है, "सब कुछ गट्स और कनेक्शन पर आधारित है।" कल उसने होटल
अनारकली में लेबर ऑफिसर को लंच करवाया था। आज उसका एपांइटमेंट है होटल 'स्वस्ति' में, सचिवालय के किसी डिप्टी सेक्रेटरी के साथ में। कोई एक फाइल कहीं दब गई थी, अगर वह खुल जाती है तो तीन-चार
लाख रूपयों का लाभ। इसलिए तीन-चार हजार खर्च करने में उसके घर का क्या जाता है।
अनिल के बोलने में, खड़े होने में, आंखों पर चश्मे पहनने में, उसके पहने हुए शर्ट-पेंट सभी
में स्मार्टनेस झलकती थी। भुवनेश्वर ही बदल गया था या यहां के लोग भी? या यहां का वातावरण भी? प्रेस बंदकर रामेश्वर चले गए
कमल पटनायक के असंख्यों सपनों से बाहर निकलकर तेज आवाज में निरंजन के कंधों पर हाथ रहकर वह यह तक
नहीं कह पाया, " सब कुछ गट्स और कनेक्शन, निरंजन।" उनका वह समय किसी बचपन से कम नहीं था। जबकि अनिल उससे ज्यादा स्मार्ट, होशियार एवं परिपक्व था।
इतना ज्यादा व्यस्त रहने वाला, पैसों वाला अनिल दीदी के
कहने पर स्कूटर पर कैसे चला आया। इतना अनुगात्य तो निरंजन ने भी कभी नहीं दिखाया
था अपनी दीदी के प्रति। आखिर इतनी पढ़ी- लिखी दीदी, जो एक बार छह महीने के लिए लंदन गई थी, तब एकदम भोली-भाली, जिद्दी और सामान्य स्त्री से भी कुछ ज्यादा नहीं लगती थी।
अनिल ने कहा, " चलिए, पंडित का पता कर लेते हैं।"
सब कुछ आ गया है सत्यनारायण पूजा के लिए सिवाय चार मिट्टी के बर्तनों को
छोड़कर| ब्राह्मण ने श्लोक आधे बोलकर छोड़ दिए, चार मयूर पंख लाने से भी हो
जाता।
बचपन में निरंजन के गांव वाले घर में हर एक-दो महीने में सत्यनारायण की
पूजा होती थी। उसके पापा वैष्णव थे। हर शुक्लपक्ष एकादशी को
उपवास रखते थे, मांसाहार से दूर रहते थे, यहां तक कि अंडे और चिकन को
भी हाथ नहीं लगाते थे। भाभी भी केवल अंडे तक पहुंच गई थी। गो-मांस नहीं खाती थी। निरंजन सोचता था कि उसकी बहू बीफ खाने लगेगी और इस तरह एक धारावाहिक
सांस्कृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया जारी रहेगी।
निरंजन की दुनिया में केवल एक बार सत्यनारायण जी की पूजा हुई थी, सुनाबेड़ा में पूजा करने के लिए तेलगू ब्राह्मण आए थे, उनकी पूजा-पाठ की विधि पूरी तरह से अलग थी निरंजन के लिए। घर के आगे तेलगू रंगोली खुद बनाई थी उस ब्राह्मण ने और कच्चे दूध और आटा के
शिरिण के बदले सूखा शिरिण बनाया था उसने। वह भी अंतिम बार। अवश्य और दो बार उसने अपने बेटा-बेटी के जन्म के बाद उनके नामकरण के समय
सत्यनारायण पाला का आयोजन किया था, मगर वह सब अपने ससुराल में
किया था। उसमें निरंजन की कुछ भी भूमिका नहीं थी।
कुश लगी हुई उंगलियों की अवस्था में उसने ब्राह्मण को अपनी पूजा प्रारंभ करने
का आथराइजेशन देते हुए गृह-प्रवेश के दौरान पहनी हुई नई धोती को बदल कर पैंट पहना
था। सामने वाले घर में बच्चे टेप रिकॉर्डर लगाकर 'ओए-ओए' धुन पर नाच रहे थे। वह जूते पहनने हेतु बैठने के लिए कोई ऊंची जगह ढूंढने लगा। घर में एक भी कुर्सी नहीं थी। शाश्वती ने अपने बॉयकट बालों को ढक दिया था और मांग में सिंदूर भी प्रोमिनिएंट कर
दिया था। दीदी की हमेशा यह इच्छा रहती थी कि वह उसके सामने कम से कम से हल्का घूंघट डाले, मगर शाश्वती इस बात का कहां ध्यान रखती थी। क्या दीदी मेरी जेठ लगती है? कौन ननद के सामने ओढणी डालता है? मगर आज शाश्वती ने अपने मन
से ओढ़नी ओढ़ी है और वह किसी दुल्हन से कम नहीं नजर आ रही है।
तीसरी मंजिल से नीचे उतरा निरंजन। तीसरी मंजिल ही उसके दुख का
कारण है। सुनाबेड़ा में सबसे ऊंचाई पर फ्लैट उसे मिला है। ऊपर वाले फ्लैट में हम क्या सारी जिंदगी गुजारेंगे? भुवनेश्वर में कितने लोग क्या कुछ नहीं कर लेते और हाउसिंग बोर्ड जैसी जगह में पैसों से क्या कुछ नहीं हो जाता। बहुत सारे लोग
ऊपर वाले घर के बदले में नीचे का फ्लैट खरीद लेते हैं, मगर निरंजन कुछ नहीं कर पाया। शाश्वती के लिए इससे बढ़कर अशांति और दुख
क्या हो सकता है।
देखते-देखते बहुत बड़ी टाउनशिप बन गई थी खुली जगह पर, हाई स्कूल, बैंक, इलेक्ट्रिक ऑफिस ,पीएचडी ऑफिस, एल आई जी व एम आई जी क्वार्टर, बीडीए, नाबार्ड, नई-नई बस्तियां। बॉलकोनी से महिलाएं साड़ी, शर्ट-पैंट टांगने के बहाने
किसी खुशहाल गृह्स्थली का जायजा ले रही थी।
गोरु-महिषाणी शहर को मरते देखा था निरंजन ने अपनी आंखों से | वहां उसे कैंप कहा जाता था। लोहा खदान के चारों तरफ लोगों की बस्ति, हंटिंग, स्टाफ क्वार्टर, डायरेक्टर बंगला, वर्कशॉप, हॉस्पिटल, सी.पी कंपनी का ऑफिस क्या कुछ नहीं था। निरंजन का शैशव काल और
किशोरावस्था उस जगह पर बीती। हर मंगलवार उनके लिए छुट्टी
का दिन होता था। उस दिन हाट लगता था, मैदान में मुफ्त सिनेमा दिखाया जाता था। पापा तो बिलकुल भी सिनेमा नहीं
देखते थे, मगर मां देखती थी। पापा मछली नहीं खाते थे, मगर मां के लिए फ्राई करके
रखते थे। सिनेमा गाड़ी राइरंगपुर से आती थी। सिनेमा शुरु होने से पहले ही
निरंजन भाई-बहन के साथ जाकर सतरंगी दरी बिछाकर अपनी जगह पर कब्जा कर लेते थे।
उस शहर को छोड़कर सब चले गए। एक दिन निरंजन बस में पापा, माँ, भाई, बहिन के साथ चला गया। दीदी की सहेली कुमूबुआ भी आई थी बस- स्टैण्ड पर
छोड़ने के लिए। दोनों गले मिलकर खूब रोई थी। बस रवाना होने के समय
सूर्योदय हो चुका था। दीदी ने कहा था, नीर देख, देख, गोरु महिषाणी का अंतिम सूर्योदय।” यह कहते हुए उसकी आंखें छलक
पड़ी थी।
बहुत दिनों के बाद राइरंगपुर किसी काम से जाते समय वह गोरुमहिषाणी गया था
ट्रेन से। उस समय भी स्टेशन ठीक वैसा ही था, मार्केट भी, मगर कैंप का एरिया टूट चुका था। पुराने घर के सामने न तो बगीचा था, न जनबस्ती और न ही घर में खिड़की और दरवाजे। बहुत ही छोटा और
ग्लैमर-विहीन लग रहा था निरंजन को गोरु महिषाणी का वह कैंप एरिया उसकी उम्रदराज
नजरों से।
यहां तो वह सब कुछ भी नहीं मिलेगा, बाबू! उस तरह बीडीए, एमआईजी के पास इंग्लिश मीडियम स्कूल है, उसके पीछे चौंतीस, पैंतीस, छत्तीस किसी क्वार्टर में कंजूस आदमी ने एक बड़ी दुकान खोली है। वहीं सब
कुछ मिलता है टी.वी, रेडियो का ऑर्डर देने से भी ले आएगा वह सज्जन आदमी। उधर देखिए तो।
निरंजन के भुवनेश्वर में चंद्रशेखरपुर नहीं था, वरमुंडा या नयापल्ली भी नहीं। बरगड था मगर कभी भी नहीं गया था निरंजन उस
तरफ। रसूलगढ़ के हाउसिंग बोर्ड के घर की बात भी समझ में नहीं आ रही थी। भुवनेश्वर
में रहने के लिए कभी भी नहीं सोचा था निरंजन ने, फिर भी इस शहर में तब बहुत
अपनापन लग रहा था। मगर जब रहने के लिए एक छत की आवश्यकता का अनुभव किया उसने, तब यह शहर उसका होकर नहीं रहा। घोर आश्चर्य !
आप इतनी दूर बेकार में आए। आपके हाउसिंग बोर्ड में ही
एल.आई.जी घर के पास मिट्टी वाले खपरीलै घर में हमारे दीनबन्धु भैया ने दुकान खोली
है। वहां पक्का मिल जाएगा सामान।
जब कमल के पास मोटरसाइकिल नहीं थी तब कितनी बार निरंजन शहीद
नगर से पैदल चलकर बी.जे.बी कैम्पस तक आया था। उस समय रिक्शा के लिए पैसे खर्च
करना उसकी कल्पना से परे था। मगर अब चंद्रशेखरपुर हाउसिंग बोर्ड से बीडीए तक जाने
निरंजन की सांस फूल जाती थी। आंखों पर बड़े-बड़े चश्मे
देखकर दया आने लगती थी। उसने अपने पांव की तरफ देखा। बहुत कष्ट हो रहा था चलने में, खासकर स्लीपर पहन कर।
" ये सारे सामान यहां मिलेंगे, सर?"
" छह नंबर मार्केट बिल्डिंग के हाट में मिलेंगे।"
खपरैल घर से बाहर निकलकर निराशाजनक अंतिम वाक्य सुना दिया किसी आदमी ने। अंत में, हाउसिंग बोर्ड के एल.आई.जी क्वार्टर में
निर्विकार भाव से खड़ी एक महिला ने निरंजन की ओर देखते हुए धम से दरवाजा बंद कर
दिया तो उसने तय कर लिया कि अब वह सीधे घर लौट जाएगा। घर लौटने पर उसने देखा कि ड्राइंग रूम में दीदी किसी अनजान लोगों के साथ
बातचीत कर रही थी, “हमारे वंश की यही परंपरा है कि पिताजी के द्वारा बनाए गए घर में कभी भी
बेटा नहीं रहता है।” सारे अतिथियों को दीदी ने अपनी तरफ से आमंत्रित किया था, इसलिए निरंजन ने कमर झुकाकर विनम्र भाव से उन्हें प्रणाम किया। दीदी ने किसी का भी परिचय कराना उचित नहीं समझा। वह धाराप्रवाह बोलती रही। मेरे पिताजी के दादाजी रेमुणा से उठकर चले गए थे, समझे? उनके पापा यानी हमारे दादाजी के दादाजी भी पुरी के किसी मठ से बाबाओं के
साथ वृंदावन से आकर रेमुणा में रहने लगे थे। दादाजी के पिताजी के कोई
पुत्र पैदा नहीं हुआ, तब भगवान सत्यनारायण ने स्वपनादेश दिया कि तू जब इस माटी को छोड़कर देशांतर
करेगा तो तेरा बच्चा होगा, इसलिए हमारे दादाजी के पिताजी रेमुणा छोड़कर हमारे वर्तमान गांव
में जमीन खरीद कर रहने लगे। दादाजी के पिताजी ने जिस जगह
घर बनाया था, हमारे दादाजी ने वह जगह छोड़ी और दूसरी जगह घर बनाया। ऐसा उन्होंने क्यों किया, पता नहीं, मगर अभी भी हमारे गांव में पिताजी के दादाजी की परित्यक्त जगह घने जंगल में गोसाईडीह के नाम से विख्यात है। हमारे दादाजी के चार बेटों ने, पिताजी, चाचाजी, सभी ने इधर-उधर नौकरी की, मगर गांव की तरफ आंख उठाकर
नहीं देखा। दादाजी का घर टूट गया। पिताजी और चाचा लोग जब नौकरी से रिटायर होकर अपने
गांव लौटे तो सभी ने मिलकर अपनी-अपनी संपत्ति बांट ली। सभी अपना नया घर बनाकर रहने
लगे। अब रही पिताजी की बात, उनके चारों बेटों ने बाहर नौकरी की। बड़े भैया पहले राउरकेला में
नौकरी करते थे, उन्होंने उदित नगर के पास अपना घर बनाया है। अभी भाड़े पर है, रिटायरमेंट के बाद शायद ही राउरकेला छोड़ेंगे। एक भाई बडबिल के पास नौकरी
करता है, उसने वहां अपना घर बनाया है। दूसरे भाई ने ढेंकानाल और
नालको में दो जगहों पर अपनी जमीनें खरीदी है। इस छोटे भाई ने हाउसिंग
बोर्ड में मकान लिया है। उधर गांव में पिताजी का घर मिट्टी में मिल गया है। शायद ही उनके घर में
बेटा- बेटी रह पाएंगे। वे सब कहां मुंबई, दिल्ली या इंग्लैंड में रहेंगें, कहा नहीं जा सकता है। आप
देखेंगें कि उन सारे घरों पर दूसरे लोग अपना कब्जा जमा लेंगें। यह एक परंपरा है। इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करता है? आप देखेंगे, मेरी बात सच होगी।
शयनकक्ष में जाते समय पूजा खत्म हो गई। डाइनिंग हॉल में शाश्वती
दीवार के पास सट कर बैठी हुई थी। उसकी आंखों में क्षोभ झलक
रहा था। आज के इस शुभ दिन के अवसर पर कितनी अशुभ बाते उगल रही थी है तुम्हारी बहन।
छि! तुम कहां चले गए थे अभी तक?
पूजा समाप्त होकर हवन में पूर्णाहुति देने का कार्यक्रम चल रहा था। चलिए, चलिए आहुति देनी है। पूजा स्थल पर पहुंचकर निरंजन ने देखा कि बिना कुश के
बिना सत्यनारायण पूजा भुवनेश्वरीय पंडित ने पूरी कर ब्राह्मण आहुति देने के लिए
हाथ घड़ी देखने लगा।
गोरु महिषणी में एक दिन
दोपहर में भोजन करने के बाद निरंजन ने देखा कि अचानक दो ट्रकें उनके घर के सामने
आकर खड़ी हो गई थी। उस समय निरंजन की उम्र बारह या तेरह साल रही होगी। देखते- देखते उनका सारा घर खाली हो गया, पलंग, अलमारी, चेयर, टेबल, बॉक्स, बिस्तर, डिब्बे लोहे के सामान लादकर चले गए वे ट्रक। घर खाली होने के बाद किस तरह
अपरिचित-अपरिचित लगने लगा था
उसके दूसरे दिन वे सब बस में चढ़ गए। स्वर्ण रेखा नदी के तट पर
बने ब्रिज के पास बस से उतरकर बैलगाड़ी में बैठकर दस मील रास्ता तय किया था। उस
समय दीदी कटक में पढ़ती थी। मन ही मन दुख अनुभव कर रही
थी कि वहां से उसे कटक आने-जाने में दिक्कत होगी।
गांव पहुंच कर चाचाजी के घर रुक गए थे वे। उन्हें एक छोटा-सा कमरा दिया
गया था, जिसमें नीचे तारकोल बिछाकर वे लोग जमीन पर सोते थे। सुबह कोयल की कूक सुनकर उनकी नींद टूट गई। दीदी ने उसे ले जाकर दिखाया था उनका आधा तैयार किया हुआ घर। मैं दुखी हो गई थी, घर में ऐसा क्यों हुआ, वैसा-वैसा क्यों नहीं हुआ। घर में रोशनी आनी चाहिए, वेंटीलेशन होना चाहिए। महिलाओं ने आपत्ति जताई थी
कि उनके लिए स्नान-रूम और बरपाली पैखाना होना चाहिए।
गांव के सारे घरों की ऊंचाई कम और उनमें अंधेरा दिखाई
दे रहा था। दिन में भी घर के भीतर जाने पर कुछ भी नहीं दिखाई देता था। घर के भीतर रखे हुए थे धान के कोठे,बॉक्स और घर के जरूरतमंद
सामान। लोग घर के बाहर होते थे। घर के सामने गुहाल बना हुआ
था। बड़े भैया ने नाक सिकोड़ ली थी यह कहते हुए, मोस्ट अनहाइजेनिक।”
शाश्वती ने रुखे मन से कहा, पूजावेदी के पास प्रसाद बांटते समय, “हाउसिंग बोर्ड वालों ने हमें
किस तरह धोखा दिया है?
सोना का स्वस्तिक गाड़ते समय दरवाजे के कोने से सीमेंट
तोड़ते समय देखा कि किस तरह सीमेंट का अस्तर नीचे गिर गया था। मानो एकदम बालू से बनाया हो। स्विच बोर्ड
भी कैसे हिल रहा था। बारिश के दिनों में पानी छू रहा था, उसके निशान दिख रहे थे। हाउसिंग बोर्ड
वालों से शिकायत करने पर क्या वह सुनेंगे?”
दीदी ने कहा, “पता नहीं कब, चंद्रशेखरपुर भुवनेश्वर में मिलेगा। फिलहाल तो
आने- जाने में काफी परेशानी हो रही है। यहां रहने पर तो बिलकुल भी
ऐसा नहीं लग रहा है, जैसे भुवनेश्वर में रह रहे हो।”
निरंजन अपने घर की पलस्तर गिरी दीवार को सहलाने लगा। खिड़की से चंद्रशेखरपुर कॉलोनी तक देखकर उसका मन उदास हो गया। ब्याज समेत 1,27,000 रुपए हो जाएंगे घर के और पैसे चुकाने में कम से कम दस साल लग जाएंगे। इन दस सालों के भीतर शायद बहुत कठिन साधना करनी पड़ेगी निरंजन को। शायद चारों तरफ से खर्च में कटौती होगा। इनके बदले में
मिला एक जीर्ण-शीर्ण और ददरा घर। निरंजन के
सीने से एक दीर्घ-श्वास निकल आई। पूजा समाप्त होने के बाद
ब्राह्मण विदा लेने की प्रतीक्षा करने लगा। अनिल अभी तक नहीं लौटा था
खिचड़ी का प्रसाद लेकर। दीदी और शाश्वती की इच्छा टालकर ब्राह्मण नहीं जा पा रहा था कि कम से कम वह
अनंत वासुदेव की प्रसाद खाकर जाएं। बच्चे
नाचते-नाचते थक कर बाहर चले गए और बहनोई छत पर खड़े होकर उनका नजारा देख रहे थे। दीदी बार-बार बालकनी से अनिल की राह देख रही थी। रिश्तेदार भी वहां पहुंचकर इकट्ठे हो गए थे। नहीं, नहीं करके भी आमंत्रित पच्चीस-तीस अतिथि और आठ-दस बच्चे आ चुके थे और लंबी तालिका देखकर निरंजन को आश्चर्य होने लगा कि
भुवनेश्वर में अभी भी उनके अपने पच्चीस लोग हैं, जबकि सुनाबेडा में बारह-तेरह साल रहने के बाद भी पच्चीस दोस्तों को खोजना मुश्किल होगा।
अनिल अभी तक नहीं आया था कि अचानक दीदी ने कहा, " पंडितजी, आप जाइए, भोग तो नहीं आया अभी तक, आपका दूसरी जगह अपॉइंटमेंट होगा" यह कहते हुए आपने मनी पर्स से सौ रुपए बाहर निकालकर दे दिए। निरंजन को आशंका थी कि शाश्वती जरूर अपमानित अनुभव कर रही होगी। अपमान के घूंट पीकर निरंजन पर गुस्से में चिल्लाएगी, “बहुत कंजूस आदमी हो, पॉकेट से पैसा नहीं निकलता है बाहर।"
निरंजन बात को दबाने के लिए बाहर आ गया। दीदी हर समय दानवीर कर्ण बन
रही थी। सभी को कुछ ना कुछ दे रही थी। किसी को शर्ट, पेंट तो किसी को चश्मा, किसी को घड़ी, किसी को रेडियो। कहने का अर्थ दीदी ने निरंजन को इंसान बनाया है। पापा ने
गांव जाने के बाद जो सबसे बड़ा जो काम किया था, वह था बड़े भाई की शादी। उसके दो परिणाम निकले, पहला तो पिताजी की सारी
पूंजी ख़त्म हो गई। दूसरा, शादी के बाद बड़े भाई ने भाई-बहनों की पढ़ाई के लिए और खर्च देने से इंकार
कर दिया। निरंजन को पढ़ने-लिखने का दायित्व लेने के लिए दीदी आगे आई थी इसलिए उसकी
शादी बहुत विलंब से हुई थी। उस समय पापा नहीं थे, जब दीदी की शादी हुई थी। तब उसकी शादी का खर्च बड़े
भाई ने स्वयं उठाया था या मां ने उन्हें जोर-जबरदस्ती राजी किया था। तब निरंजन ने दीदी को दूसरी निगाहों से देखा था, दानवीर कर्ण की जगह वह गोग्रासी नदी में बदलकर सब कुछ मांग रही थी, "दो, दो और भी दो। मुझे बहुत दिनों से बहुत कुछ मिलना था, आपने नहीं दिया है, सारे दावे झूठे निकले”। हाथ में सोने की चूड़ी को
मोड़ दिया था, ननद पेड़ी में लक्मे कंपनी के कॉस्मेटिक्स क्यों नहीं दिए।” कहकर झगड़ने लगी थी और उसे दी गई साड़ियों की गुणवत्ता के बारे में भी उसने
सवाल खड़ा किया था, इस तरह शादी के बाद विदा लेते समय के बड़े-बड़े संदूकों पर ताला लगा न
देखकर इतनी जोर से चिल्लाई कि दो-तीन लोग दौड़ कर चार-पांच ताले अधिक खरीदकर ले आए
थे।
निरंजन बाहर आकर कृष्णचूडा के पेड़ के पास खड़ा हो गया। अनिल स्कूटर पर वहां पहुंचा, अपने एक दोस्त के साथ, जिसे निरंजन नहीं जानता था, उसने निरंजन का अभिवादन
किया। वह कुडुआ पकड़कर बैठा हुआ था। अनिल कहने लगा, प्रसाद बनाते-बनाते 12:00 बज गए थे। पहली खेप में यह प्रसाद नहीं निकल सका, नहीं तो 10:30 बजे तक हम प्रसाद ले आए होते।
सीढ़ी चढ़ते समय ब्राह्मण नीचे उतर रहा था, अनिल या निरंजन किसी ने भी
उसे नहीं बुलाया। वह कुडुआ की तरह देख कर नीचे उतर गया। छत से नीचे
उतरते बच्चों को साइड करते हुए अनिल और उसके दोस्त ऊपर चले गए। दीदी की बड़ी बेटी-
रिंकी- बच्चों का सरदार बनी हुई थी। वह समझा रही थी, हम घर क्यों बनाते हैं। बोलो? चंकी, तुम बोलो, तुम तो दूसरी कक्षा में पढ़ती हो। यह पाठ तो पहली कक्षा में
पढ़ाया जाता है। बोलो, बोलो।
निरंजन को देखकर रिंकी अभियोग लगाने लगी, “मामाजी, चंकी को अपना पाठ याद नहीं
है।”
"नहीं, पापा मुझे याद है। रिंकी बुआ बोल रही है, यह अच्छा घर नहीं है।”
"चंकी ने कहा” "नहीं, पापा, यह घर अच्छा है"
"यह हमारा घर?"
"हॉं "
"सुनाबेड़ा वाला क्वार्टर हमारा?"
" हॉं"
"मामाजी का घर हमारा?"
" हॉं"
"रिंकी बुआ का घर हमारा?"
" हॉं",सारे घर हमारे हैं। राउरकेला में बड़े पापा का घर भी हमारा है। सभी घर हमारे हैं।"
" पापा, इतने सारे हमारे घर, क्यों बनाए इतने घर?"
चंकी की प्रश्नोत्तरी का दायित्व रिंकी को हरा ने पर निरंजन के ऊपर चला
गया। किसे खोज रहा है निरंजन? किसे? ड्राइंग रूम में इतने सारे लोग, मगर कोई भी उसका अपना नहीं
था। कुछ लोगों को दीदी ने आमंत्रित किया था तो कुछ लोगों को शाश्वती ने। वह चुपचाप बहनोई के पास जाकर बैठ गया। उसके पास बातचीत करने के लिए
बचा भी कुछ नहीं, बहनोई निर्विकार। गरमी कितनी पड़ रही है, बाजार दर कैसी चल रही है, या मंत्रिमंडल चलेगा या नहीं, आजकल जनसंख्या कितनी बढ़ गई
है, निकुछा हाउसिंग बोर्ड में कितना भ्रष्टाचार हुआ है, बातचीत करने के लिए किसी भी
वक्तव्य का सहारा नहीं ले पाया वह। शोरगुल के भीतर वे दोनों
केवल चेयर पर आमने-सामने बैठे हुए थे। रास्ते के किनारे कैबिन वाली दुकान पर लोगों
की भीड़ लगी हुई थी। बहनोई जाकर वहां बैठ गए, लकड़ी के बेंच के ऊपर, एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठी हुई थी दीदी। यहां से भुवनेश्वर जाना
कितना कष्ट दायक होगा। बस में बहुत ही ज्यादा भीड़ होती है। शाश्वती दीदी के पास आकर बैठ
गई। निरंजन ने देखा कि दीदी और शाश्वती के बीच कितना भी विकर्षण होने पर भी विदाई
के समय वह कम होकर पारस्परिक सहानुभूति में बदल जाता था।
"तुम कल आ रहे हो हमारे घर तो?" शाश्वती से बात करते-करते
दीदी ने अचानक निरंजन की तरफ मुड़ कर पूछा। निरंजन हक्का-बक्का रह गया।
उसे यह कहते हुए बड़ा कष्ट हुआ कि कल उनका पुरी जाने का प्रोग्राम है और छुट्टी नहीं बची है। एक बार बीजेबी कैंपस जाने से दोपहर हो जाती है, उसके बाद पुरी जाने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। वह कहने लगा, “कल हम सुनाबेडा जाएंगे और मुलाकात करने का समय नहीं मिलेगा।”
केवल “आं” कहकर मरी हुई मछली की आंखों की तरह वह रास्ते की तरफ देखने लगी। मगर निरंजन जानता है कि यह दीदी का अभिनय है। दीदी अभी भी सोच रही होगी कि शायद शाश्वती ने निरंजन को नहीं जाने के लिए
कहा होगा। नहीं, वास्तव में शाश्वती ने नहीं कहा था। निरंजन ही चाहता था दीदी से
दूर रहने के लिए, वह सहज नहीं हो पाता था उसके पास।
जब वह गांव से कटक पढ़ने आता था तो बहुत दूर तक पिताजी उसे छोड़ने के लिए
आते थे। गांव के नए तालाब से भी आगे, विदा करते समय कहते थे, “चिट्ठी देना, निर। तेरी चिट्ठी नहीं आती है तो तेरी मां छटपटाने लगती है यहां।”
निरंजन आगे चलता जाता था पिताजी को छोड़कर, बहुत दूर आगे जाकर पीछे
देखता था, पिताजी अभी भी वैसे ही उसे देखते हुए नजर आते थे। वही निरंजन ओएमपी चौक में उतर कर रिक्शा पकडते ही भूल जाता था, अपना गांव, घर, पिता, मां की सारी बातें। ठीक समय पर चिट्ठी भी नहीं लिख पाता था।
निरंजन ने सोच लिया था अपने आपको एक उदासीन संन्यासी। मन में था क्या उसी तरह? शादी से पहले बहुत बार यह
प्रश्न किया था निरंजन ने अपने आप से, क्या उसके लिए शादीशुदा
जिंदगी के बंधनों में बंधकर जीना संभव होगा? अपने आपको बोहेमियान समझने
में खुशी पाने वाले निरंजन को आश्चर्य हुआ कि पिता, पति और गृहस्थ जीवन में अपनी
सिंसयरिटी देखकर। शाश्वती चिढ़ाते हुए कहती थी मेटामर्फ़ोसिस ऑफ संन्यासी, मगर निरंजन तुम्हारे खून में शायद कुछ निर्विकार गुण हैं। अपने खून के रिश्तों के साथ भी तुम्हारा कोई आकर्षण नहीं। तुम अपने भाइयों को सालों-साल देखे बिना भी रह सकते हो, तुम्हारे भाई भी ठीक तुम्हारी तरह। यह क्या है निरंजन? तुम्हारी अशिक्षा? या फिर तुम्हारे जींस का दोष?
एक बस आई, बिना रुक कर चली गई। यहां की बसों में काफी भीड़
रहती थी। नंदन कानन पटिया की सारी सवारियां इसमें चढ़ जाती थी। दीदी ने इस बार बस का प्रसंग बदलते हुए पूछा, " हां, निर, तुझे अपने गांव और घर की याद आती है?"
निरंजन के बोर होने का समय शुरू हो गया था। शाश्वती भी पहले-पहले बोर करती
थी, गांव-घर की बात उठाकर। इतनी बड़ी जगह, इतनी सारी जमीन-जायदाद तुम सब छोड़ कर कैसे रहते हो? निरंजन को याद था, पिताजी के गुजरने के बाद, जब सभी भाइयों ने मिलकर मां
को अपने साथ रखने के लिए दबाव डाला था, मगर मॉं राजी नहीं हुई थी, यह कहते हुए कि इन दीवारों में तुम्हारे पिताजी की यादें बची हुई है, उन्हें छोड़ कर मैं कहाँ जाऊंगी?
भाइयों ने माँ को समझाया था कि इतना सेंटीमेंटल होने का
कोई अर्थ नहीं है और ऐसे भी प्रेक्टिकल होना पड़ता है। इतिहास गवाह है कि जो प्राणी या स्पीसिज की जातियां देश, समाज के परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको बदल नहीं पाई, वह पूरी तरह से काल-कवलित हो गई।
माँ यह बात नहीं समझ पाई थी। मगर खुद को हमेशा से बेवकूफ
समझने वाली मां ने बेटों की बात को मान लिया, जिस तरह पिताजी की सारी
बातों को मान लिया था| माँ के घर छोड़कर आने के बाद भी घर के दरवाजे, खिड़कियां, लकड़ी की बीम, बगीचे के पपीते, मिर्ची, आम और कटहल को नहीं भूल पा रही थी। नहीं भूल पा रही थी तालाब
में छोड़ी हुई मछलियां, जैसे रोही, माकट, जाआंल, कुएं की नंद पर लिखा हुआ पिताजी का नाम, उनकी स्मृति, नोश्लजिया। उसके रोने की तरफ भी कभी ध्यान नहीं दिया था निरंजन ने। ये सारी बातें भीषण उबाऊ होने के साथ-साथ निरंजन के जीवन की चारदीवारी से बाहर थी। निरंजन के जीवन की चारदीवारी में तब था क्या? सुनाबेडा का निर्वासन? एकाकीपन? उसका एकाकी भ्रमण? तभी सोच लिया था निरंजन ने, निस्संगता उसके खून, शरीर, हड्डियों में इस कदर घुस गई है कि उसके बिना किसी के साथ एडजस्ट करना असंभव है। इसलिए उसकी दुनिया में मां, भाई- बहन, घर-बार कुछ भी नहीं था।
बल्कि सब कुछ भूल गया था। जब से शाश्वती ने अपना बायां
पांव दहलीज पर रखे धान के कटोरे पर रखा था, तब से बदल गए उसके सारे
मूल्य-बोध, उसके आदर्श, उसके दर्शन। बदल गया था निरंजन पूरी तरह से। बाहर में सब्जी का झोला
टांगकर वह ब्रायलर की दुकान खोजने लगा। बारंबार शाश्वती के समझाने
पर भी वह सहज नहीं हो पाया था गांव के टूटे-उजडे खंडहर के सामने, भाइयों के ड्राइंग रूम के सामने। उसका दम घुटने लगा था।
इतना दूर जाकर रहने में हमने कितनी बड़ी गलती की है, पता है? बच्चें अपने आत्मीयजनों को नहीं पहचान पा रहे हैं। उनकी दृष्टि में मौसा-मौसी
को छोड़कर कोई परिजन नहीं है। इतना बड़ा तुम्हारा परिवार
है, सब के साथ रिश्ते-नाते रखने चाहिए न? बच्चे सब बड़े हो गए हैं, तुम्हारी तरह वे भी अकेले ही रहेंगे? शाश्वती के बार-बार
जोर-जबरदस्ती याद दिलाने के बाद भी निरंजन धारावाहिक रूप से संबंध स्थापित नहीं कर
पाया अपने आत्मीय जनों के साथ। मगर निरंजन ने शायद प्रयास
किया था, मगर दूसरी तरफ से आग्रहपूर्वक ऊष्ण हाथ नहीं बढ़ाने के कारण या कहीं
कम्यूनिकेशन गैप के कारण शाश्वती का सारा प्रयास व्यर्थ हो गया।
2-3 बसें यात्रियों से थोड़ी दूर जाकर खड़ी हो गई, वहां बहुत भीड़ होने पर भी
दीदी, बहनोई और रिंकी इस बार भीड़ की धक्का-मुक्की में भी बस के भीतर घुस गए। निरंजन ने सुख की सांस ली। उसे काफी आराम लगा। दीदी के बस में न चढ़ने तक वह मानो रास्ते के किनारे पर बस
स्टॉपेज के पास बंधकर रह गई थी।
चंद्रशेखरपुर में संध्या हो गई थी। घरों में लाइट लग चुकी थी। खिड़कियों के भीतर से लोगों के इधर-उधर होने के दृश्य दिखाई देने लगे थे।
निरंजन ने पहले ही सोच लिया था, दीदी के जाने के बाद बहुत
थ्रीलिंग होगी, वह शाश्वती और चंकी, चंद्रशेखरपुर और उनका अपना घर। वे चंद्रशेखरपुर के रास्तों
पर हाथ पकड़ कर घूमेंगे। घूमते-घूमते थक-हार कर घर लौटेंगे। बॉलकोनी में बैठ कर चाय
पीते-पीते देखेंगें संध्याकालीन चंद्रशेखरपुर को। मगर मन में ऐसा कुछ भी नहीं
हुआ अब तक। बिलकुल भी उत्तेजना नहीं थी। थक-हार कर वे लौट आए थे घर को।
चिंकी ने प्रश्न किया "पापा हम घर कब जाएंगे?"
“ये तो बेटा हमारा घर है, आगे दिखाई पड़ रहा है।”
“ यह नहीं है।”
“ हम घर को कब जाएंगे।”
“ यह तो हमारा घर है बेटा। हमारा अपना घर। तुम जब बड़े होगे तो इस घर में रहोगे।”
"नहीं,यह हमारा घर नहीं है। मैं यहां नहीं रहूंगा।" चंकी ने हाथ-पैर हिलाते-हिलाते रोना शुरू कर दिया। अपने घर चलो, अपने घर चलो। बॉलकानी से कुछ कौतूहल भरी आंखें नीचे देख रही थी। उत्सुक पथिक
लोग खड़े हो गए थे। चंकी बस स्टॉपेज की तरफ चला
गया और निरंजन, शाश्वती उसके पीछे-पीछे। निरंजन ने चंकी को गोद में
ले लिया। छि:! अच्छे बच्चे अब तो बस चली गई। कल हम पुरी जाएंगे। वहाँ से सुनाबेडा लौट जाएंगे।
“नहीं, मैं घर नहीं जाऊँगा। नहीं जाऊँगा”। हाथ-पैर हिला कर निरंजन से मारपीट करते चंकी रास्ते में जोर से रोने लगा। और वे दोनों निरंजन और शाश्वती रास्ते के बीच में लाज-संकोच से, अपमान से, लोगों के विस्मयभरी आंखें को देखकर पिघल जा रहे थे। आखिर में निरंजन को गुस्सा आ गया और उसने चंकी के गाल पर दो थप्पड़ रसद
दिए। तो वह ड़रकर शाश्वती की गोद में कूद पड़ा और कंधे पर अपना मुँह छुपा दिया।
“ क्या ड्रामा करते हो यहां पर?” शाश्वती ने मृदु भर्त्सना की। “लोग क्या कहेंगे? क्रोध में क्या सज्जनता भूल गए हो?”
उससे निरंजन कांपने लगा और शाश्वती उसे पीछे छोड़कर घर की तरफ चली गई। जैसे, बहुत बड़ा काम हो गया हो। निरंजन उदास मन से धीरे-धीरे
घर लौटा। आज के इस शुभ दिवस पर बच्चे को पीटना उचित नहीं था। उसका सारा गुस्सा चंकी के प्रति ममत्व-बोध में बदलता जा रहा था। उसका मन कर रहा था उस बच्चे को गोद में लेकर जिस गाल पर थप्पड़ मारा था उसे
वह सहलाए। मगर वह जानता था, चंकी उसकी गोद में और नहीं आएगा।
"तुमने बेकार में चंकी को मारा। एकदम छोटा बच्चा 3 वर्ष की उम्र में नर्सरी में भर्ती करा दिया था इसलिए आज क्लास 2 में पढ़ रहा है। नहीं तो, उसके उम्र के बच्चे आज भी एल के जी या क्लास वन में पढ़ते हैं।”
सीढ़ी चढ़ने में कष्ट हो रहा था शाश्वती को, खासकर चिंकी को गोद में
लेकर। घर पहुँच कर निरंजन ने चंकी को लेने के लिए हाथ बढ़ाया। मगर चिंकी ने मां के कंधे पर अपना मुंह छुपा लिया था, शाश्वती कहने लगी, “रहने दो, अब”
ताला खोलते ही सारा घर फांका नजर आ रहा था। परित्यक्त पूजा-सामग्री, टूटा हुआ कुडुआ और इधर-उधर बिखरी जूठन को छोड़कर सारे घर में कुछ भी नहीं
था। शाश्वती चिंकी को लेकर सोफे पर बैठ गई। बेडरूम में केवल एक बल्ब था। उसे खोलकर ड्राइंगरूम में निरंजन ने लगा दिया और बॉलकोनी में जाकर चुपचाप
खड़ा हो गया।
बाहर से चन्द्रशेखरपुर के सारे फ्लैट क्वार्टरों में, रास्ते की बिजली-खंभों पर घर की रोशनी में सब धुंधला-धुंधला दिखाई दे रहा था
निरंजन को। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कोहरे के भीतर जैसे टाउन हो। निरंजन समझ गया, उसने चश्मा नहीं पहना है। कहाँ रख दिया उसने? और किस जगह पर रख दिया होगा उसने?
निरंजन खड़ा होकर रह गया उस कोहरे के सामने। उसकी आंखें के सामने केवल एक
ही दृश्य उतर आता था। गांव का, जब वह पढ़ने के लिए कटक जा रहा था, उसके पिता छोड़ने के लिए
बाहर तालाब के किनारे खड़े होकर उसे रास्ते की तरफ चलते हुए देख रहे हैं। बहुत दूर आने के बाद निरंजन ने पीछे मुड़कर देखा, पत्थर की मूर्ति की तरह उसके पिताजी खड़े थे। क्यों कटक पहुंचकर एक भी चिट्ठी नहीं लिखता था निरंजन। क्यों? क्यों?
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