भूमिका

भूमिका
1898 ई.में उत्कल साहित्यसे प्रकाशित फकीर मोहन सेनापति की रेवतीकहानी को नियमबद्ध प्रथम लघु कथा(कहानी) के रूप में स्वीकृति मिली।रेवतीकहानी में पारंपरिक कहानी-वर्णन-शैली और आधुनिक लघु कहानी की शिल्प-कला दोनों देखने को मिलती है।इस कहानी की शुरूआत पुरानी कथा-कहानी शैली से शुरू होती है मगर समाप्ति आधुनिक शैली में होती है। इस कहानी में केवल शिल्प की परंपरा और आधुनिकता का समन्वय दिखाया गया है,ऐसी बात नहीं है बल्कि उसकी विषयवस्तु में आधुनिक विचारधारा और पारंपरिक विश्वास के बीच संघर्ष देखने को मिलता है।भारतवर्ष की विभिन्न भाषाओं की प्रथम कहानी की तुलना में रेवतीकी स्थान सामाजिक-यथार्थता,करुण-आवेदन और परिपक्व दृष्टिकोण के लिए एक स्वतंत्र महत्त्व रखता है। नारी-शिक्षा,प्रेम और कुसंस्कार खासकर इन तीन विषय-वस्तु पर आधारित रेवतीकी पृष्ठभूमि भले ही है,मगर आर्थिक और स्वास्थ्य सेवा से वंचित ओड़िशा राज्य की दुर्दशा को भी प्रदर्शित करती है। फकीर मोहन के जमाने के ओड़िशा में दुर्भिक्ष का दुर्भाग्य चारों ओर छाया हुआ था। इतिहास में अनेक युगों तक समृद्ध यह जाति अपनी मातृभाषा की सुरक्षा को लेकर आतंकित हो गई थी।ओड़िशा-भाषी अंचल उपेक्षित थे,शासकों के षड्यंत्र के कारण।शिक्षा के प्रसार के लिए कोई सुयोग नहीं था,आर्थिक स्थिति कमजोर हो चुकी थी और जमींदार वर्ग के शोषण की सीमा चरम पर थी। कभी गंगा से गोदावरी तक फैला विस्तृत विशाल भूखंड छिन्न-भिन्न और टुकड़ों-टुकड़ों में बंट चुका था।मुगलों,पठानों और मराठों के शासन के बाद अंत में रह गया ब्रिटिश शासन।बार-बार प्राकृतिक विपदाओं और प्रशासनिक उदासीनता ओड़िशा के भाग्य की एक विडंबना बन गई।फकीर मोहन ने अपने चारों-तरफ की घटनाओं को निरापद दूरदर्शिता से केवल एक दर्शक बनकर साहित्य की रचना नहीं की थी,बल्कि वह स्वयं सामाजिक परिवर्तन के एक भागीरथ थे-समाज सुधारक,संपादक,देश-सेवक-एवं प्रिंटिंग प्रेस के संस्थापक भी थे।
      फकीर मोहन के बाद तीन दशकों तक जो योग्य कहानीकार जगत में आए,वे फकीर मोहन का अतिक्रमण नहीं कर पाए।उनकी कहानियों की मुख्य विषय-वस्तु थे-समाज सुधार और देश-प्रेम,नारी-जागरण,दहेज-प्रथा,श्रमिक और मालिक,जमींदार और जनता के संबंध,धर्म के नाम पर शोषणये सारे चित्र तत्कालीन लघु कहानियों में देखने को मिलते हैं। भारत की आजादी तथा ओड़िया-भाषी अंचल के एकीकरण के प्रसंगों ने स्वाभाविक रूप से उस समय के कहानीकारों को प्रभावित किया था।दाशरथी मिश्र,बांकनिधि पटनायक,चन्द्रशेखर नन्द,दिव्य सिंह पाणिग्राही और लक्ष्मीकांत महापात्र उस समय के स्मरणीय लेखकों में सशक्त लेखक थे।बूढ़ा शंखारीजैसी करुण कहानी लेखक लक्ष्मीकांत के कहानी जगत की अद्वितीय  कहानी है।
इनके परवर्ती समय के कहानीकारों ने न केवल कथावस्तु बल्कि भाषा-शैली में नयापन लाने में समर्थ हुए थे।सन 1920 से 1950 में ओड़िया कहानियों में बहुत ज्यादा नयापन आ चुका था। गोदावरीश मिश्र की भाई भागमें संयुक्त परिवार के टूटने का गोदावरीश महापात्र की मागुणिर शगड़में यान्त्रिकी तकनीकी के सामने कौलीक व्यवसाय की हार,‘नील मास्टरानीकहानी में मनुष्य द्वारा बनाए गए जाति संप्रदाय की व्यवस्था से ऊपर उठकर हृदय की सकल संवेदना, “एबे मध्य बाँचिछिमें उपवास रखने वाले मनुष्य के मन के अंदर राष्ट्रवाद का दृप्त चेहरा हम देख सकते हैं।इस समय के अन्यतम गाल्पिक उपेंद्र किशोर दास ओड़ियाकहानी की भाषा को फिर से एक नयी ऊंचाई तक ले गए।उनकी कहानी डाहाणी आलुअकी प्रथम-पंक्ति जैसे फिर से वर्षा हुई/तेज हवा के झोंके ताड़-पेड़ों के शीर्ष पर बादलों के गुच्छों में शहनाई बजा रहे थे।/***/कुछ समय बाद बारिश थम गई/अंगार-वर्णी बादलों के शरीर में झिलमिलाती बिजली,आँधी-तूफान धान के अंकुरों को झपटकर नष्ट कर दिया/ उपेंद्र किशोर दास की इस भाषा-शैली के शिखर को हम परवर्ती समय में देख सकते हैं गोपीनाथ मोहंती की कहानियों में।कालिंदी चरण पाणिग्राही की कहानियों में सामंतवादी मानसिकता के रुख और दलित चित्र मांसर विलापमें देखा जा सकता है।फिर देख सकते हैं विश्वयुद्ध के समय खाद्य-सामग्री का अभाव(विजय-उत्सव) और गरीबी के करुण चेहरों को।समाज के निम्नवर्ग में मनुष्यों के प्रति संवेदना के साथ-साथ गांधीवाद में आस्था और सर्वोपरि राजनैतिक चेतना उनकी कहानियों की उल्लेखनीय विशिष्टता थी,उस समय के अन्य कहानीकार थे अनंत प्रसाद पंडा,कान्हूचरण मोहंती एवं नित्यानन्द महापात्र।उनके द्वारा रचित कहानियों की कथावस्तु में खासकर पल्ली जीवन की प्रवास-यात्रा,आर्थिक दुर्गति,सामाजिक विपर्यय,पारिवारिक जीवन की अधोगति,राजनैतिक प्रवंचना और नारी के दुर्भाग्य का चित्रण।
      इसी परिप्रेक्ष्य में भगवती चरण पाणिग्राही(1907 से 1943) के उल्लेखनीय अवदान का ओड़िया साहित्य के इतिहास में एक अलग महत्त्व है।पहले चन्द्रशेखर की कहानी गदा डकैत”.एवं लक्ष्मीकांत महापात्र की कहानी अधिकारमें अन्याय के खिलाफ मार्क्सवादी चेतना देखने को मिली थी।वह और ज्यादा स्पष्ट होती गई भगवती की कहानियों में।उनकी हातूडी ओ दाएवं मीमांसाकहानी इसी चेतना का प्रयोग,सचेतन भाव से मार्क्सवाद का जयगान कर रहे हैं।
       देश के आजाद होने के बाद दूसरे राज्यों की तरह ओडिशा में शिक्षा,स्वास्थ्य और शिल्पायन(औद्योगीकरण) का विकास होने लगा।निर्वाचित प्रतिनिधि सरकार बनाने लगे,सामान्य मनुष्य सोचने लगे,इस बार वास्तव में वे लोग अपने भाग्य के नौका के नाविक हैं।मगर वास्तव में ऐसा नहीं हुआ।जो स्वतन्त्रता सेनानियों ने विदेशी ताकतों के खिलाफ लड़कर स्वतन्त्रता सेनानी की मान-मर्यादा प्राप्त की थी अकस्मात अपनी प्रासंगिकता खोने लगे। गांव की बात हो या देश की बात सोचना सरकार का काम है,निर्वाचित प्रतिनिधियों या नागरिकों का दायित्व नहीं रहा।जिन लोगों ने गांधीवाद का सहारा लेकर स्वतन्त्रता संग्राम के समय नायकोचित सम्मान प्राप्त किया था,वे भी क्षमता प्राप्त करने के लिए अपने प्रभाव को खोने लगे,एवं अपांक्तेय  हो गये।शासित और शासक दो भागों में भारतीय समाज बंटकर छिन्न-भिन्न हो गया। व्यवस्था एवं समाज में व्यवधान बढ़ने लगा एवं परिणाम ये हुआ कि इस व्यवधान को पाट पाना महासागर की तरह असंभव हो गया। देश में बड़े-बड़े बांध बने,उद्योग लगे, भवन बने, किन्तु नैतिकता समाप्त हो गई,विश्वास टूटने लगा एवं निर्वाचन ही सर्वस्व हो गया। इस तरह ऐसे समय में स्वप्न और मोहभंग दोनों होने लगा जो ओड़ियालघु कहानी की मुख्य विषय वस्तु बन गई। सुरेन्द्र मोहन्ती की पताका उत्तोलनगोदाबरीश महापात्र की मागुणि र शगड़’(जहां मागुणि कहता है अगर कोई उसका दुःख नहीं सुनेगा तो वह गांधी जी के पास जाएगा) बामा चरण मित्र की निर्वाचनएवं राजकिशोर राय की आचार्य थिले बोलिकहानियों में प्रताड़ना,शठता एवं मोहभंग का चित्रण है।
      स्वातंत्र्योत्तर ओड़िया कहानी वधूमें समाज और जीवन के विविध रूपों के साथ मनुष्य के चेहरे के विविध चित्र देखने की मिलते हैं। नित्यानन्द महापात्र स्त्री पुरुष सम्बन्धों के नये-नये रहस्यों से पर्दा हटाते हैं,अंधविश्वास और कुसंस्कार के विरुद्ध सच्चिदानंद राऊत राय का अंधारूआमर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करता है और पाप पुण्य के विचार के बारे में मनुष्य की सीमा बद्धता प्रकाशित हुई,स्पष्ट शब्दों में मशानी र फूलका जगा कहता है रहने दो, रहने दो, दूसरों की चिंता न करो,मनुष्य क्या मनुष्य को ठीक तरह से समझ सकता है। गोपीनाथ मोहन्ती ने मनुष्यत्व का आदर्श चित्रण किया। संकीर्ण अंचलवाद एवं एक देशदर्शी शासन व्यवस्था में उच्च-स्तरीय करुणा एवं संप्रीति को दृढ़ स्वर प्राप्त हुआ है उनकी दुईनीरएवं पिंपुड़ीजैसी कहानियों में। दुईनीरकहानी में दो ओड़िया एवं तेलुगू दंपति परस्पर अधिक प्रतिष्ठा के लिए अपने राज्यों के संबंध को भूलते हुए,परस्पर विद्रोही इन दोनों पुरुषों को गुंफा स्वामी की पत्नी कहती है,अपने पास रखो अपना इतिहास,तुम्हारे वे मंत्री बने हुए होते, प्रतापरुद्र पुरोषत्तम के मंत्री होकर एक भद्र पुरुष हुए होते। गरीब लोग उस समय भी पेट के लिए काम करते थे,बाबू लोग घूमते रहते थे। महिलाएं इसी चिंता में धुली रहती थीं कि चूल्हे पर हांडी कैसे चढ़ेगी। कुछ उबलेगा तब तो बच्चे खा पाएंगे और जिएंगे। तुम्हारे कृष्ण देव राय प्रताप रथ के युद्ध का पहाड़ इन्हीं गरीबों के सर पर,घर पर और हांडी पर भी पड़ा होगा,सर पर रखा हुआ होगा विजय स्तम्भ।” प्राणबंधु कर और बसंत कुमार शतपथी इन्हीं साधारण दरिद्र मनुष्यों के मुख-पत्र थे।दरिद्रता के सैकड़ों झंझावात झेलने के बावजूद उन्होंने जो हृदय में स्वाभिमान का दीप प्रज्ज्वलित किया,उसे प्रज्ज्वलित बनाए रखने का प्रयास करते रहें।
            इस समय के प्रसिद्ध कहानीकार थे-भुवनेश्वर बेहेरा,सुरेन्द्र मोहंती,राजकिशोर राय,किशोरीचरण दाश,महापात्र नीलमणि साहू,अखिल मोहन पट्टनायक,राजकिशोर पट्टनायक,बसंत कुमार शतपथी,चन्द्रशेखर रथ,रवि पट्टनायक,शांतनु कुमार आचार्य,मनोज दास,अच्युतानन्द पति,वीणापाणि मोहंती,विभूति पट्टनायक,प्रतिभा राय एवं देवराज लेंका प्रमुख थे।ये सारे लेखक पाश्चात्य और प्राच्य दर्शन,स्थितिवाद,गांधीवाद,मार्क्सवाद,फ्रायड,नित्से,सार्त इत्यादि सभी प्रकार के दार्शनिक तत्त्वों एवं मतवादों सुपरिचित थे। ओड़िशा की ग्राम्य संस्कृति का धीरे-धीरे शहरीकरण में मिल जाने की घटनाओं के वे प्रत्यक्षदर्शी थे।स्वाधीन और पराधीन देश की दोनों शासन व्यवस्थाओं में हिताधिकारी थे।सुरेन्द्र मोहंती के कथा-संसार का परिसर विस्तृत, भावभूमि, थीम और भाषा-शैली में स्वतंत्र था।निरोला पल्ली से लेकर महानगरों तक की विस्तृत कथा भूमि उनकी कहानियों में देखने को मिलती है।यथार्थवाद,स्वभाववाद अस्तित्ववाद और अति-यथार्थवाद सभी का समन्वय उनकी कहानियों में देखा जा सकता है।वे बौद्ध धर्म की जीवन-विमुखता को ग्रहण करने में अनिच्छुक एवं आतंकवाद की निस्सारता को ग्रहण करने में परांगमुखी नहीं है।राजनैतिक कुटिलता और आत्म-प्रताड़ना उनकी अधिकांश कहानियों में उभर कर सामने आई है।किशोरी चरण दास मनुष्य मन की अंधेरी गलियों के रहस्य को भेदने वाली अंतर्मुखी चेतना के द्वारा अपना एक स्वतंत्र परिचय देने वाले कहानीकार हैं। जीवन के प्रति एक दार्शनिक सुलभ दृष्टिकोण एवं मध्यवर्गीय उच्च मध्यवर्गीय चरित्र-चित्रण करना उनकी विशिष्टता है।मानव के अवचेतन मन में छिपे रहस्य को खोजकर उजागर करने में समर्थ एवं प्रतिष्ठावान लेखक थे।भंगा खेलना’, ‘ठाकुर घर’, ‘मनिहराजैसी कहानियों में आधुनिक मनुष्य के मन के भिन्न-भिन्न प्रतिबिंब देखने को मिलते हैं। आधुनिक मनुष्य की व्यर्थता,निःसंगता और विडंबित जीवन यात्रा के वे सफल रूपकार हैं। फकीर मोहन सेनापति की कथा परंपरा के दायाद महापात्र नीलमणि साहू की कहानियों के व्यक्तित्व में दो अलग-अलग भाव लक्षित होते हैं,एक उद्दात गंभीर करुणोत्पादक तो दूसरा सरल,चतुर और हास्योत्पादक।उनकी चेतना जिस ऊंचे स्तर पर पहुँच गई थी कि चिरंतजन मानवात्मा के ध्रुपद की तरह पाठकों को समाजोन्मुखी यथार्थता के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया।सांसारिक मनुष्यों की जीवनानुभूतियों में वे आधिभौतिक सत्ता को उतार पाए।एक मानवतावादी कहानीकार के रूप में अच्युतानन्द पति उल्लेखनीय सफलता के अधिकारी है। मानवेत्तर प्राणी-जगत की क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से उन्होंने मनुष्य समाज के प्रति निर्मम व्यंगबाण छोड़े हैं।समाज के अवहेलित वर्ग के प्रति उनके मन में सहानुभूति का अभाव नहीं है।छल-कपट,धोखेबाज़ी और प्रताड़ना के प्रति उन्होंने तीव्र प्रतिक्रिया अभिव्यक्त की है। विचित्र विषयवस्तु,अचानक अकल्पित परिचिति जीवन के अंतहीन रहस्य को,कहानी के रूप में उतारने में अखिलमोहन पट्टनायक का सामर्थ्य उल्लेखनीय है।मानवीय संवेदना के प्रति उनकी सजगता डिमरी फूलसे स्पष्ट हो जाती है कि उनकी अधिकांश कहानियों में वियोग,मूल्य-बोध ज्योति से प्रकाशमान है,चाहे जन और जनताया ऋतुचक्रकहानी क्यों न हो। अन्य पक्ष में समग्र मानवजाति को एक परिवार के रूप में देखने की उदार स्पर्धा शांतनु कुमार आचार्य की कहानियों के चित्रों में मिलती है। मानवता के उद्बोधन और वैकल्पिक उदार समाज की संभावना उनकी कहानियों में आकुलता से भरी हुई है।
            इस समय के सशक्त कहानीकार मनोज दास सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। सरल कहानियों से लेकर जटिल रहस्यवादी कहानियों में एक-एक बिरले चित्र देखने को मिलते है,उनकी कहानियों में पारंपरिक लोक कथाओं के साथ-साथ आधुनिक कहानियों की वर्णन शैली का अद्भुत समन्वय है। मनुष्य की दुर्बलता,दोष,मूढ़ता और असहायता के तटस्थ द्रष्टा है। वह मानवजाति की पूर्णता प्राप्ति और नवन्यास के आस्थावादी स्रष्टा भी है,उनकी कहानी मनुष्य के अहंकार, “आरण्यककहानी में मनुष्य के भीतर छुपी पशुता, “भूतनी: एक विदायकहानी में किशोर सुकुमार के निरीहता का अद्भुत चित्रण है।मनुष्य की चरम असहायता,उसकी असंगत अवस्था,उसकी तीव्र अभिलाषा,राजनैतिक स्वरूप का अतिभौतिक और चमत्कारी उद्भट और नाना प्रकार के विषय वस्तुओं पर विचित्र वर्णन शैली मनोज दास के कहानी जगत की खास विशेषताएँ हैं।
मानवीय चेतना के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करते हुए न-न विषय वस्तुओं को आधार बनाकर लिखने में सिद्ध श्री चंद्रशेखर रथ हैं।आधुनिक मनुष्य की निराशाजनक,व्याकुल जीवन के हाहाकार और तन्मयता में निहित सार्वजनिक मानवीय आत्मा को करुण आर्तनाद को संवेदनशीलता से स्पर्श करते हुए उन्होंने ओड़िया कहानियों के अनुपम सौंदर्य से आभूषित किया है।जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण,अंतहीन जीवन जिज्ञासा और उत्तरित आत्मिक उपलब्धियाँ उनकी कहानियों में स्पष्टतापूर्वक देखी जा सकती है।अनेक”,“वन्यापरे”,“बिक्री पाईं फूलमाला”,“सबु ठारु दीर्घ रातिआदि अनेक कहानियों में उनकी प्रतिभा का यथार्थ दिग्दर्शन मिलता है।साठवें दशक के बाद ओड़िया कहानियों के सफल रचनाकार थे-रवि पट्टनायक। उनकी वंध्या-गंधारी’,‘अंधगली र अंधकारएवं अलग-अलग कथा-वस्तुओं पर तीन उल्लेखनीय कहानियाँ आई हैं।उनकी कहानियों में पारंपरिक और प्राचीन जीवनधारा को जितना ज्यादा सम्मान मिला है, उतना ही कुसंस्कार और रक्षणशीलता का विरोध व्यक्त हुआ है।प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के विरोध में प्रतिवाद एवं नारी के मनोभावों की अभिव्यक्ति में सफलता मिली है।सफल कहानीकार वीणापाणि महंती की कहानियाँ भी अच्छी बन पड़ी है।उनकी कहानियों के अधिकांश पात्र पीड़ा में छटपटाते हुए वास्तविक सपने देखते हैं और नए जीवन जीने की उम्मीद रखते हैं। उनके नारी पात्र पलायनवादी नहीं है, बल्कि अपनी अस्मिता की प्रतिष्ठा के लिए उन्मुख हैं।  
            इस समय के अन्यतम लोकप्रिय कहानीकार है श्री विभूति पट्टनायक। ओड़िया कहानियों के व्यापक फ़लक, विविध मनोरंजक कथा-वस्तुओं और अनोखे दृष्टिकोण देने वाली कहानियों के लिए उन्हें प्रचुर लोकप्रियता मिली।विभूति की विभिन्न कहानियों के चरित्र में रंग-बिरंगी चित्रशाला देखने को मिलती है।इस समय की कहानी लेखिका प्रतिभा राय की कहानियों में मनुष्य जीवन की असहायता, तरुण प्राण का गुप्त रहस्य,सामाजिक आचार संहिता एवं सांप्रतिक पीड़ा देखने को मिलती है। ओड़िया कहानियों को व्यापक प्रसार-विन्यास देने के क्षेत्र में लेखिका प्रतिभा राय नये भाव और कहानियों के साथ विश्वसनीय चरित्र चित्रण में लेंका एवं सामाजिक दुरावस्था के परिवर्तन हेतु तीव्र आह्वान में पद्मज पाल की कहानी उल्लेखनीय हैं।पद्मज पाल की कहानियों में क्रांति की चिंगारियाँ मौजूद हैं।उनकी कहानियों में है- दोनों प्रतिश्रुति एवं प्रत्यय। इसी पृष्ठ भूमि में आते हैं- जगदीश मोहंती। उस समय तक ओड़िया कहानियां वर्तमान भारतीय, अन्तर-राष्ट्रीय चेतना के मिश्रण हेतु किसी निर्दिष्ट भूखंड में आबद्ध नहीं हुई थी।जिस प्रकार की भाषा एक समय अछूत थी, वही भाववस्तु कभी निषिद्ध मानी जाती थी, वे सभी स्थान पाने लगीं।अविवाहित पुरुष और महिलाओं का एक साथ रहना, गर्भाशय किराए पर देना, यौन आकांक्षा को विवाह की प्राथमिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार करना और समलैंगिक विवाह इत्यादि लघु कहानियों की कथावस्तु बनने लगी।इसके साथ आधुनिक जीवन अनंत शून्यता, वसुधैव कुटुम्बकम का उपदेश देने वाले उपनिषदों के दर्शन और मूल्य मानवता के मूल रूप से स्वीकार करने की अनिवार्यता इत्यादि का आज की कहानियों में चित्रण मिलता है।परंपरा,आधुनिकता एवं रक्षणशीलता के साथ-साथ प्रयोजनों का संघर्ष जगदीश की कहानियों में मिलता है।मध्यवर्गीय जीवन के सुख-दुख, प्राप्ति,स्वप्न एवं टूटन के सफल सृजनधर्मी के रूप में जगदीश मोहंती अवतरित हुए।
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      मात्र 63 वर्ष की उम्र में 19 दिसंबर 2013 को एक सड़क दुर्घटना में विदा लेने से पूर्व जगदीश मोहंती ओड़ियासाहित्य में एक महत्त्वपूर्ण लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। उनके लगभग 12 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे जिनके नाम हैं, “एकाकी अश्वारोही”, “दक्षिण द्वारी घर” “ईर्ष्या एक ऋतु,एलबम”,“द्विपहर देखी न थिबा लोकटिए”,“युद्ध क्षेत्र रे एका”,“मेफिस्टोपलिसर पृथ्वी”,“निआं ओ अन्यान्य गल्प”,“सूना इलिशि,सुंदरतम पाप”,“सतुरीर जगदीश”,“बीज वृक्ष छाया।इसके अलावा,कनिष्क”,“निज निज पानीपत”,”उत्तराधिकार”,एवं अदृश्य सकालजैसे अनेक उपन्यास जगदीश मोहंती के प्रकाशित हो चुके थे।
      जगदीश मोहंती 1951 फरवरी 27 तारीख को नरेंद्र नाथ मोहंती एवं शारदा देवी की आठवीं संतान के रूप में गौरुमहिषाणी के टाटा कंपनी की खदान झारखंड के अंतर्गत पश्चिम सिंहभूमि जिले का अड़ंग गांव में जन्म लिए थे। मां-पिता की आठवीं संतान होने के कारण परिवार के लोग इसे प्यार से कान्हु कहकर पुकारते थे।जगदीश मोहंती ने उस गौरुमहिषाणी के पी.एन.बोस प्राथमिक विद्द्यालय,बेलपहाड़ गिरिधारी लाल स्कूल एवं खनामरा हाईस्कूल से मेट्रिकुलेशन पास की थी। वे अत्यंत ही मेधावी छात्र थे और बचपन से ही साहित्य के प्रति उनका अनुराग था। रांची के सेंट ज़ेवियर कालेज से आईएससी पास करने के बाद उन्होने कटक के श्री रामचंद्र भंज मेडिकल कालेज से बी फर्मा(B.Pharma) पास कर 1975 को राजगांगपुर ईएसआई(E.S.I.) अस्पताल और उसके बाद महानदी कोलफील्ड कंपनी के चिकित्सालय में योगदान दिया। 2011 में कंपनी से सेवा निवृत्त होने तक जगदीश ने रामपुर कोलियरी के हास्पिटल में काम किया।जगदीश की अपनी पैतृक जन्मभूमि (वर्तमान में सिंहभूम जिला),जहां अभी भी अनेक ओड़िया परिवार अपनी मातृ-भाषा को बचाए रखने के लिए उद्यम कर रहे हैं, उनका परिवार था उस पिछड़े हुए अंचल की भाषा आंदोलन का एक प्रमुख परिवार।बड़े भाई बहनों का साहित्य,नृत्य एवं संगीत के प्रति यथेष्ट अनुराग था और बचपन से जगदीश का साहित्य के प्रति प्रचुर अनुराग पैदा हो गया था। उनकी पहली कहानी (1968)ई. में राऊरकेला की कल्चर एकेडमी के मुखपत्र नवपत्रमें प्रकाशित हुई थी। इससे पूर्व 5वीं कक्षा में पढ़ते समय उन्होंने प्रजातन्त्रके बाल-स्तम्भ में लिखना शुरू कर दिया था और धीरे-धीरे कविता से कहानी और उपन्यास क्षेत्र में उन्होंने प्रवेश किया।
            जगदीश के उन प्रारम्भिक दिनों के संबंध में उनकी पत्नी तथा ओड़िया साहित्य की अन्यतम लेखिका सरोजिनी साहू ने जुलाई-सितंबर,2014 संख्या के गल्पमें (सम्पादन श्री विभूति पट्टनायक) ने अनेक कथाएँ लिखी है, उन्होंने लिखा कि जगदीश की युवा अवस्था की कहानियों में मार्क्सवादी दृष्टिकोण के स्फुल्लिंग देखने को मिलते है। अव्यक्तकहानी में एक भिखारिन के कुत्ते के जूठे पत्तलों को चाटकर खाने वाले दृश्य का वर्णन किया गया था और उसी समय प्रकाशित उनकी दूसरी कहानी स्वर्ग को निशुनी”(स्वर्ग की सीढ़ी) में मार्क्सवादी चेतना की चिंगारियाँ दिखाई देती है।ये दोनों कहानियाँ आज तक जगदीश मोहंती के संकलन में संकलित नहीं हो पाई। सन 1971 में जगदीश पढ़ाई करने के लिए कटक चले गए।वहाँ जाकर उन्होंने सौरभपत्रिका के सम्पादन का काम किया।उस समय वे वामपंथी पत्रिका आभाऔर बेलाके साथ जुड़े। 1972 के बाद जगदीश की कहानियाँ ओड़िशा की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाएँ आसंताकालि” “नवरविऔर झंकारमें प्रकाशित होना शुरू हुई थी। पूर्व प्रचलित कहानी लिखने की शैली को तोड़कर उन्होंने नयी कहानी शैली का प्रवर्तन किया।जगदीश का प्रथम कहानी संकलन एकाकी अश्वारोहीकहानी की शुरूआत एक नाटक के शुरूआत की तरह थी जैसे पहला दृश्य था एक अश्वारोही शून्य में डूब रहा है,उनकी जांघों के बीच से घोड़ा भाग गया,अपनी पीठ के ऊपर से बोझ उतारकर।उस दृश्य में घोड़े के की अस्तित्व नहीं इसलिए घुड़सवार असहाययह कहानी पढ़ते समय ऐसा लगता है कि किसी उद्भट नाटक (एबसर्ड प्ले) की मंच सज्जा का वर्णन किया जा रहा है।यहीं से पाठक पूरी कहानी पढ़ने के लिए विवश जो जाता है। सरोजिनी साहू के मत से जगदीशकी कहानियों में अगर भाषा शैली ही सब कुछ होती तो शायद पाठक पढ़ने के बाद उन्हें भूल जाते मगर कहानी की बलिष्ठ कथा-वस्तु,जीवन-दर्शन,प्रेम-अप्रेम,प्राप्ति-अप्राप्ति,असहायता के भीतर पाठक अपने आपको खोजने के कारण वे कहानीकार को इतना नजदीक पाते थे। रामपुर कोलियरी में नौकरी करने से पहले एक वर्ष तक जगदीश ने राजगांगपुर में काम किया। राजगांगपुर राऊरकेला के पास में है इसलिए वहाँ उन्हें एक साहित्यिक परिवेश मिला। लेकिन बाद में रामपुर कोलियरी आने के बाद वह साहित्यिक परिवेश और नहीं रहा,1976 में कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण होने से पहले निजी संस्थानों द्वारा खदानों का संचालन किया जा रहा था।शिक्षा और भित्तिभूमि की समस्या के भीतर रह गया था रामपुर कोयला खदान का यह अंचल।क्वार्टर में बिजली नहीं थी।बाहर से पीने के लिए पानी लाना पड़ता था और रसोई बनाना नहीं जानने के कारण अविवाहित नौकरी पेशे वाले युवकों को केवल चुडामुड़ी पर निर्भर रहना पड़ता था। जगदीश जैसा 25 वर्षीय युवक जो कटक जैसे शोरगुल वाले परिवेश को छोड़कर यहाँ आ गया था, वह रामपुर के निर्जन और घटनाविहीन परिवेश से असंतुष्ट हो गया था।इस परिवेश और अपने अनुभव को उन्होंने अपनी कहानी का रूप देने का प्रयास किया था।उनकी कहानी दक्षिणद्वारी घरमें उस परिवेश का चित्रण मिलता है। इस कहानी के संबंध में उत्सुकता जगाने वाली घटना का जिक्र सरोजनी साहू ने गल्पपत्रिका में किया।बोहेमियान स्वभाव वाले जगदीश दक्षिणद्वारी घरकहानी को लिखकर डिस्पेन्सरी के अपने टेबल के ड्रावर में छोड़कर आ गए थे।दूसरे दिन जब उन्होंने ड्रावर देखा तो उस कहानी की पांडुलिपि नहीं मिली। 50-60 पेज की लंबी कहानी जगदीश मोहंती ने जब पास वाली ट्रे में उनकी कहानी की पांडुलिपि फाड़कर चौकोर टुकड़ों के रूप में रखी गई है तो उन्हें बड़ा असहाय लगा।पूछताछ करने के बाद पता चला मींजबाई नामक कर्मचारी ने उस कहानी को रद्दी कागज समझकर औषध वितरण के लिए चौकोर टुकड़ों में फाड़ दी थी।फिर से एक बार जगदीश ने उस कहानी को शुरू से लिखा।
      1976 ई. में जगदीश के पिताजी का अचानक देहांत हो गया,उनके पिताजी सिंहभूम(झारखंड) के अड़ंग गाँव में रहते थे।पिता की मृत्यु का तार पाते ही जगदीश अपने गाँव चले ग।एक मध्यवर्गीय परिवार में जिस तरह सारी घटनाएँ घटती है,वैसी ही घटनाएँ उनके परिवार में घटी। अविवाहित जगदीश का संवेदनशील हृदय व्यथित हो उठा और उसी अनुभूति को लेकर उन्होंने अपनी कालजयी रचना लबलिखी थी।जगदीश के जीवन का अधिकांश समय शिल्पांचल में बीता था।जन्म और बाल्यकाल गोरूमहिषाणीके लौह पत्थर के खदान अंचल और नौकरी का जीवन रामपुर कोयला खदान के अंचल में बिता,इसलिए उनकी अधिकांश कहानियों में शिल्पांचल के जन-जीवन के चित्र देखने को मिलते हैं।वहाँ की श्रमिक राजनीति,उच्च-वेतन भोगी बड़े अधिकारीगण और अल्प-वेतन भोगी साधारण श्रमिकों के भीतर के बीच मनमुटाव,माफिया और अपराधी लोगों के कारोबार-ये सारी चीजें उनकी कहानियों में हम पाते हैं।जगदीश अपनी कहानियों के लिए वाह्य जगत की अपेक्षा अपने अनुभवों के ऊपर ज्यादा निर्भर करते थे। बचपन में उनके पिता के व्यक्तित्व ने उन्हें काफी प्रभावित किया था।एक बार उनकी बड़ी बहन की शादी से पहले दिन दहेज के सारे सामान चोरी हो गए थे।घर में सभी रोना-धोना और चिंतित हो रहे थे, उस समय उनके पिताजी ने बड़े शांत भाव से कहा,सो जाओ सभी, कल देखेंगे क्या करना हैजगदीश की कहानी अलगा अलगा वैतरनीमें इस घटना का जिक्र आता है। पिता की तरह उनकी माता जी से हम जगदीश मोहंती की कहानी मां पाइं घरमें परिचित होते हैं। (जगदीश की कहानियों के पीछे की कहानियाँ सरोजनी साहू गल्प”)                                           
      जगदीश मोहंती (1951 से 2013) की कहानियाँ अच्छी लगने के पीछे सबसे बड़ा कारण है उनको पढ़ते समय पाठक अपने जीवन के आमने-सामने होता है।पाठक अनुभव करता है कि ऐसी घटनाएँ उसके जीवन में भी घटी थीं या घट सकती हैं।कहानी के चरित्र को उसने अपने जीवन में देखा है अथवा यथार्थ में उसे जिया है। 
(3)
      पूर्व में बताया जा चुका है कि ओड़िया कहानी जगत में जगदीश मोहंती के आगमन के समय कहानी का स्वर्णयुग था।प्रवीण गोपीनाथ मोहंती, सुरेन्द्र मोहंती,महापात्र नीलमणि साहू,अखिल मोहन पट्टनायक, चंद्रशेखर रथ, एवं मनोज दास जैसे प्रख्यात लेखक उस समय कहानी लेखन का काम कर रहे थे।डॉ.क्षीरोद कुमार बेहेरा के शब्दों में-ऐसे ही समय में पश्चिमी पवन की तरह ओड़िया साहित्य में जगदीश मोहंती का पदार्पण हुआ।उक्त समय में ओड़िया कहानियों में संस्मरण लिखने की होड़ चल रही थी।फिर भी जीवन के अतरंग दृश्यों को उपस्थापित करने के प्रयास जारी रहे।कहानियों की कथावस्तु का शिल्प-विधान और उसकी रक्षणशीलता संगुंफित थी। केवल जगदीश मोहंती ने अपनी कहानियों के माध्यम से ओडिया को तीनों बंधनो से मुक्त किया- धारा-प्रवाह,कथा-वस्तु,भाषा और मध्यवर्गीय जीवन के दृश्य से।
                  भाव-जगत और शिल्प-कला दोनों दृष्टि से जगदीश मोहंती समसामयिक लेखकों से अलग थे।इसलिए कुछ समीक्षकों का मत है कि उनकी कहानियाँ पाश्चात्य जगत से अधिक प्रभावित हैं।उनके उपर काम्यू,काफका और सार्त के दर्शन का काफी प्रभाव पड़ा;किन्तु यह पूरी तरह सत्य नहीं है।वह शायद पश्चिमी आभा से प्रभावित हो सकते हैं; उनकी सर्जनधर्मिता के बीज पाश्चात्य नहीं हुए थे, अन्य अनेक कहानीकारों की तरह भारतीय संस्कृति,मूल्य-बोध और ओड़िशा के सामाजिक जीवन के प्रति जगदीश का अनुराग एवं प्रतिबद्धता दृढ़ थी।यह कहने में कोई दुविधा नहीं होगी कि अनेक क्षेत्रों में जगदीश संस्कृतियों के प्रति अधिक विश्वस्त थे, इसलिए वह कहानियों में जितना भी अनासक्त होने की बावजूद भी भारतीय मूल्यबोध और संस्कृति के चित्र निबिड भाव से प्रस्फुटित होते नज़र आते हैं।सबसे बड़ी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जगदीश की कहानियों की नींव के ऊपर भारतीय संस्कृति की रंगो की जितनी सुंदर भावना से उत्कीर्ण हुई है,शायद ही किसी दूसरे कहानीकार के कहानियों की रूपरेखा में इतनी सुंदरता देखने को मिले।उनकी कहानियों के स्थापत्य-कला का एक अलग-अलग विश्वस्त चित्र प्रस्तुत होता है।उनकी कहानियों के पात्र से दौड़कर कहीं न कहीं चले जाते हैं,आकाश पाताल एककर देते हैं, एक समय के लिए ऐसा लगता है कि वे वास्तव में बहुत दूर चले गए हैं कि फिर लौट नहीं पाएंगे; मगर वे लौट आते हैं।वे वापस उसी बिन्दु पर लौट आते हैं,भारतीय मूल्यों के पास, भारतीय मूल्य और संस्कारों के पास।जगदीश की कहानी के चरित्र स्वाधीन भारत के उत्तराधिकारी है।देश आजाद होने के बाद जो विश्वास जागा था वह सब उस समय अविश्वास की प्रताड़ना में बदल गया था। स्वतंत्र भारत के नागरिक एक हृदयहीन शासन व्यवस्था से कवलित निरीह नागरिक में बदल गए थे। कल कारखाने बनाने लगे थे और ओड़िया युवक काम की खोज में गाँव छोड़कर शहर या दूर दुर्गम औद्योगिक अंचलों की तरफ चले गये।ओड़िशा का संयुक्त परिवार टूटने लगे थे और संबंध खोखले होते चले गये।प्रयोजनीय संबंध के तराजू में समर्थ संतान तौलने लगा है बूढ़े मां-बाप, बेकार भाई और विवाह योग्य बहन की प्रासंगिकता को। सामाजिक प्रतिष्ठा और भौतिकवाद की प्राचुर्य दोनों सोने के हिरण बनकर नाचने लगे, लोभ-लालच के दंडकारण्य में।भारतीय समाज का यह परिवर्तित चेहरा जगदीश मोहंती के कहानियों की पृष्ठभूमि बनकर उभरी है।जगदीश मोहंती की पात्र पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक,नौकरी नहीं मिलने के कारण,प्रेमिका से दूर हो गए प्रेमी या अचानक सुयोग मिलने पर ऊपर उठे हुए खोर्धा लूँगी पहनने वाले ग्रामीण किशोर जो त्रिशंकु की तरह स्वर्ग के बीच लटक कर रह गए।
      जगदीश की कहानियों की प्रमुख विशेषता है उसमें समसामयिकता।आधुनिक समस्याएँ उनकी कहानियों के प्रमुख स्वर है।इसलिए उनकी कहानियों को उनके समय के समानांतर इतिहास कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी उनके चरित्र सरल,जटिल और दुविधा में फंसे हुए हैं।कोई भी मनुष्य न तो पूरी तरह से तुलसी है और न ही सम्पूर्ण भ्रष्ट।यहाँ कोई न तो रामचन्द्र है न ही कोई रावण,राम के भीतर समय-समय पर रावण अपना सिर उठता है तो रावण के भीतर के गुण दिखने को मिलते हैं।फिर दोनों राम और रावण एक सभ्यता के कारीगरी की कुशलता,भौतिक समृद्धि और सामाजिक व्यवस्था के हितों की रक्षा के प्रतीक हैं।यहाँ पाप-पुण्य,न्याय-अन्याय,नीति-अनीति,सफ़ेद-काले प्रसंग नहीं हैं वरन् एक सुगढ़ जगत की प्रतिक्रिया है।जगदीश मोहंती की भाषा अपने समय के एक उच्च शिक्षित युवक की भाषा है।उनकी भाषा,परिवेश की उत्पत्ति करने में जितनी समर्थ है,उतनी ही पठनीयता सर्जन करने में भी सफल है। तत्सम,तद्भव,यावनिक और विदेशी शब्दों के प्रयोग में उन्हें किसी प्रकार की संकोच नहीं थी। जगदीश की शैली वर्णनात्मक एवं समय-समय पर नाटकीय भी है। समय-समय पर वे नाटक के सूत्रधार के रूप में कहानी की उपस्थापना करते हैं तो अन्य समय में वे खुद अपनी कहानियों के पात्र बन जाते हैं।उनकी सौ से अधिक कहानियों में मुख्य चरित्र वे स्वयं हैं।लबमकी तरह अनेक कहानियां पूरी तरह से अपने आत्म-जीवन पर आधारित जिसका जिक्र करना निष्प्रयोजन है।
      जगदीश मोहंती की कहानी के संदर्भ में अगर एक वाक्य लिखने को कहा जाए तो वह वाक्य क्या होगा? किसी ने कहा था साहित्य होता है बिना उत्तर का प्रश्न। स्वयं जगदीश मोहंती ने कई बार अपनी कहानी डेनामें कहा था कि आधुनिक कहानियाँ केवल प्रश्नवाचक होती है,उत्तर नहीं, जगदीश मोहंती ने अपने लेखन में उन सम्बन्धों की प्रचुर गवेषणा की थी।वे संबंध शास्त्रीय संगीत के हो या डाक्टरखाना के संचालन से संबन्धित हो,कोयला खदान के मजदूर संगठनों की बात हो या मौत के बाद एकदशाह क्रिया-कर्म हो; प्रत्येक कहानियों को एक शल्य-चिकित्सक की तरह यत्न एवं निष्ठा के साथ-साथ भाषा-शैली के कारण ही उनकी रचनाएँ इतनी सफल हो पायी।
                                   
(4)
      जगदीश मोहंती की लिखी हुई 200 कहानियों के अंदर से इस संकलन में 19 कहानियाँ ली गई हैं। इसमें संकलित प्रतिद्वंद्वीकहानी मनोभाव पर आधारित एक कहानी है, जिसमें कहानी का नायक एक दुर्घटना में अपनी वाक्-शक्ति खो बैठा है। इसके बाद उसके लिए शब्दों की दुनिया,चित्रों की दुनिया दृश्य दुनिया में बदल जाती है, वह सब कुछ देखता है मगर बोल नहीं सकता, अपने विचार प्रकट नहीं कर पाता। एक शब्द बोलने की सारी चेष्टाएँ असफल हो जाती हैं। जबकि उस समय घर का पालतू तोता उसके सामर्थ्य को चुनौती देते हुए शब्दों के ऊपर शब्दों का प्रहार करता है,तो कहानी के नायक की सारी असहायता,असमर्थता क्रोध एवं ईर्ष्या बनकर बाहर निकलती है। उसे ऐसा लगता है जैसे यह तोता उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी हो,वह पिंजड़ा खोलकर तोते को बाहर निकालकर अपने सामने निर्ममतापूर्वक गला मरोड़कर हत्या कर देता है।
                  “फॉसिल्स के सुख दुःखकहानी में मार्क्सवाद के प्रति एक तीव्र व्यंग-दृष्टि है, इस कहानी में कहानी के नायक अनिरुद्ध जो जीवन में सब-कुछ पाने की कोशिश करता है,जीवन देने की अपेक्षा,डरपोक बनकर रहना ही श्रेयस्कर है।श्रमिक राजनीति के अंधेरी दिशा को लेकर लिखी हुई इस कहानी में सुविधावादी मनुष्य का वास्तविक चेहरा सामने आता है।
                  जीवन के प्रति अनासक्त भाव या यूं कहें अमिश्रित संबंध जगदीश की कहानियों में देखने योग्य पहलू है। एक समय वह स्वयं प्रत्यक्षदर्शी एवं भुक्तभोगी है।हमारे सामाजिक जीवन की संपृक्तिहीनता और प्रवंचना जगदीश की कहानियों में दयनीय रूप से भरी पड़ी है।जीवन जैसाउनकी ऐसी ही कहानी है। इस कहानी में एक संबंधी की मृत्यु के बाद होने वाले लोकाचार को देखते हुए दूसरे लोग वहाँ पहुँचते हैं।जबकि मन के भीतर न कोई दुःख है न कोई कष्ट,केवल एक तुच्छ  लोकाचार,किस तरह लाश उठेगी और वे लोग अपने-अपने घर को लौटेंगे इसी बात की सभी को चिंता सताते रहती है,स्वर्ग-सिधारे आदमी के परिवार को सहानुभूति जताने वाले प्रियजन उसके घर से लौटते समय रास्ते में इलीशी मछ्ली खरीदने के आग्रह को रोक नहीं पाते। कहानी पढ़ने के बाद ऐसा लगता है जीवन किसी के लिए किसी भी प्रकार से रुकता नहीं है,जिस तरह जाने वाला चला जाता है और उसे सभी लोग सहजता से ग्रहण कर लेते हैं।
                  “दक्षिण द्वारी घरजगदीश की आटोग्राफ़िकल कहानी है।नौकरी खोजने आया ”(जगदीश) किसी दूर-दराज़ शहर में आकर पहुँच जाता है,उस शहर का वर्णन इस तरह है,’सबसे पहले तुमको अमुक रेलवे स्टेशन पर उतरना होगा,प्लेटफार्म से बाहर आने पर एक मध्यम वर्गीय बाजार मिलेगा। बहुत सारे रिक्शे वाले तुम्हारे पास दौड़कर आएंगे। मगर तुम उस शहर को रिक्शे से मत जाना क्योंकि आज तक कोई शायद ही उस शहर को रिक्शा से गया हो। इसके अलावा रिक्शे वाले के चार्ज सुनकर तुम्हारे जाने की इच्छा भी नहीं होगी। तुम्हारे पास यदि लगेज है,तब भार ढोने वाले कुली दो-तीन रुपये में मिल जाएंगे। अगर तुम्हारे हाथ में कम सामान है, उसे लाकर तुम जा सकते तो किसी भी आदमी को पूछकर उस शहर का रास्ता जान सकते हो। वे मुरुम बिछा रोड दिखाकर कहेंगे: ये तो रास्ता है।
                  उस शहर जाने का रास्ता इस तरह है। पहले तुम्हें अमुक रेलवे स्टेशन पर उतरना होगा,प्लेटफॉर्म से बाहर आने पर एक मध्यवर्गीय बाजार मिलेगा। बहुत सारे रिक्शे वाले तुम्हारे पास दौड़कर आएंगें। मगर तुम उस शहर में रिक्शे से मत जाना, क्योंकि शायद ही कोई आज तक उस शहर में रिक्शे से गया होगा। इसके अलावा,अगर तुम रिक्शे वालों के चार्ज सुनोगे तो और जाने की इच्छा नहीं होगी। अगर तुम्हारे पास लगेज होगा तो सामान उठाने वाले कुली तुम्हें मिल सकते हैं दो-तीन रुपये में। अगर तुम्हारे हाथ में कम सामान है,जिन्हें तुम अपने हाथों में उठाकर ले जा सकते हो,तो किसी भी आदमी से पूछ सकते हो उस शहर में जाने वाले रास्ते के बारे में।वे लोग एक कच्चा रास्ता दिखाकर कहेंगे,यही है उस शहर में जाने वाला रास्ता।तुम उस रास्ते में आगे बढ़ते जाना,बस कुछ दूर आगे जाकर पाओगे एक लेवल क्रासिंग,जहां पर तुम आते-जाते लोगों से पूछ सकते हो उस शहर की तरफ जाने वाले रास्ते के बारे में।लोग तुम्हें ट्रेक लाइन के पास से एक दिशा दिखाकर कहेंगे,इस रास्ते से जाइए,जल्दी पहुँच जाएंगे। यही केवल रास्ता है,जहां से तुम्हें जाना है,उस रेल लाइन के किनारे-किनारे पगडंडी पर आगे बढ़ते जाना,शहर को पीछे छोड़ते हुए और अपने साथ खेत,मैदान,नाले और मिट्टी की परत को साथ लिए हुए।प्लेटफॉर्म छोड़ने के ठीक एक घंटे बाद तुम सोच सकते हो कि तुम्हें और कितना रास्ता तय करना होगा।नहीं,बेचैन मत होना,आगे दिखाई देने वाला कोयले के खदान-अंचल का पिट’(हेडगीयर), अर्थात् जमीन के नीचे जाने का रास्ता।ऐसे यहाँ पर अनेक “पिट” बने हुए हैं। सभी पिटों के अलग-अलग नंबर हैं।बेचैन मत हो,आगे दिखाई देने लगेगें पक्के घर,ऐस्बेस्टास छत की कालोनी,वही है शहर।तुम्हें और 15 मिनट चलना पड़ेगा।उसके बाद मिलेगा वह शहर,अर्थात् वह कालोनी जहां पहुँच गया।शहर छोटा है,मगर उसे शहर कहा जाएगा या नहीं,इस बात में संदेह है। सारे घर कतार बद्ध,मगर एक कतार की दूसरी कतार से दूरी नजरों के दायरे में काफी दूर।पान-सिगरेट की दुकानें भी दो-तीन हैं। चावल-दाल की दुकानें बहुत सारी है। एक कॉपरेटिव स्टोर भी है।एक एम.ई. स्कूल है और एक खेल का मैदान भी।हाँ,शहर के उस तरफ है सरकारी डाक्टरखाना अर्थात पब्लिक हेल्थ सेंटर।खपरीले छतों वाले घरों की एक स्वतंत्र कॉलोनी।इस हास्पिटल में आस-पास के गाँव के लोग आते हैं।खदान का भी एक अस्पताल है। कोयला खदान में काम करने वाले मेडिकल-सिक लेने के लिए यहाँ आते हैं,अर्थात् छुट्टी की जरूरत होने पर वे हॉस्पिटल का रुख अपनाते हैं।इस शहर के लोग हँसते नहीं,बल्कि बिना किसी कारण के क्रोधित अवश्य हो जाते हैं।शाम को सात बजे के बाद रास्ते में केवल शराब भट्टी या खदान से आने-जाने वाले लोग देखने को मिलते हैं।इस तरह के शहर में पहुँच गया था एक फर्मासिस्ट ”,अंधेरी रात में।”
      इस कहानी के नायक की केमिस्ट्री में डिस्टिंक्शन के साथ डिप्लोमा पास कर फार्मासिस्ट की खोज में,ऐसे शहर में पहुँच गया। जहां उसकी मुलाकात हो गई अपनी पुरानी प्रेमिका प्रतिमा के साथ। प्रतिमा सेठी वहाँ एक स्टाफ नर्स थी। दोनों नव वयस्क और दोनों के भीतर यौन-क्षुधा।वहाँ रहने लगता है प्रतिमा के साथ। हर रात दैहिक खेल में व्यस्त रहता है,मगर संतुष्ट नहीं हो पाता।यह अजान शहर अपने शहर की तरह नहीं लगता है।वहाँ पहले से दूसरे को प्रेम करने वाली प्रतिमा को अपनाने का मन नहीं होता है।एक दिन वह सोचता है कि वह यह शहर छोड़कर चला जाएगा,मगर जाएगा कहाँ उसका ठिकाना उसे मालूम नहीं। निरुद्देश्य अपने पास के सारे पैसों को देकर एक दूर स्टेशन का टिकट खरीदता है,और ट्रेन में बैठ जाता है।ट्रेन सिटी देती है,बाहर खड़े लोग ट्रेन में बैठ जाते हैं।पीछे वाले कम्पार्टमेंट के गार्ड साहब हरी झंडी हिला देते हैं। थोड़ी-सी आवाज के साथ ट्रेन आगे बढ़ने लगती है, “उठकर दरवाजे के पास जाकर हाथ हिलाता है। उसे सी-आफ करने कोई नहीं आया था,उसने किसके लिए अलविदा के लिए हाथ हिलाया?
                  फिर भी ने हाथ हिलाया था। जब तक वह स्टेशन एक चलचित्र की तरह उसकी आँखों से ओझल न हो गया। हाथ हिलाते हुए अस्पष्ट स्वर में कहा: अलविदा,अलविदा।
अलबम के बारे में पहले ही बताया जा चुका है,यह कहानी निम्न मध्यवर्गीय परिवार के सदस्यों से मिलती संबंध और संबंधहीनता को लेकर लिखी गई एक प्रतिनिधि स्थानीय कहानी है। कहानी जगदीश के आत्म-जीवन पर आधारित कहानी है। पिता की मृत्यु के बाद एक परिवार किस तरह अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करता है, ये इसमें दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त एक हिन्दू परिवार की अन्त्येष्टि क्रिया-कर्म का विस्तृत वर्णन भी इस कहानी के अंतर्गत देखने को मिलता है। इस कहानी होने के मर्मस्पर्शी दुःख का वर्णन इस प्रकार किया गया है,बस में चढ़ने के बाद मैं अन्यमनस्क-सा हो गया। एक तीन साल के बच्चे ने पूछा,“ मेरे दादाजी तुम्हारे क्या लगते है?” इस छोटे-से सवाल के सामने तुम कितने गरीब हो गए। प्रश्न ने मेरा पीछा किया और मैं प्रश्न से पीछा छुड़ाते-छुड़ाते अतीत में खो गया। दौड़ते हुए मेरे एलबम के उस फोटो के पास पहुँच गया। जहाँ एक सोलह साल का लड़का हाफ पैंट और बनियान पहने गाँव के आँगन में खड़ा है, छाती पर दोनों हाथ बांधे। वह फोटो था मनु भाई साहब का। मन्मथ मोहन्ती : नक्षत्र। ठीक उसी के बाद और एक फोटो .... मनु भाई साहब का दूल्हे के वेश में। माँ से कंनकांजली ले रहे थे। भैया के माथे पर मुकुट धारण किए पंजाबी धोती पहने दूल्हे के वेश में अपना आंचल फैलाए खड़े है माँ के पास। मुझे साफ याद है- बरातियों के साथ शादी में जाते समय मनु भैया ने बरामदे के ऊपर छप्पर के नीचे कनकांजली की रस्म अदा की थी माँ से। कनकांजली देते हुए माँ रो पड़ी थी।बेटे की शादी जैसी खुशी वाली घड़ी में माँ की रोते हुए देख कर मैं आश्चर्यचकित हो गया था।बाद में पता चला कि माँ के लिए वही सबसे मर्मांतक समय होता है।बेटे से माँ सारे बंधन तोड़ते हुए उस समय से दूसरे के हाथों में सौंप देती हैं। अब भी उस फोटो को देखने से माँ की आँखों मे आँसू भर आते हैं। उस के नीचे लिख दिया था मैंने::नक्षत्र,जो उल्का बन गया।”   
पिता के दशगात्र पर आए भाई,बहन और भाभियों के भीतर किसी भी प्रकार की आंतरिकता नहीं,दशाह खर्च करने के लिए जितनी कुंठा और विधवा मां के दायित्व उठाने में उतना ही अनाग्रह है।सच में वे लोग शोक मनाने के लिए वहाँ नहीं ग थे,केवल कर्तव्य निभाने के हिसाब से वहाँ पहुंचे थे। यहाँ तक कि दशगात्र श्राद्ध के समय विधि पूर्ण करने में बड़े पुत्र का मन कुंठित: बार-बार नहाने से ठंड लग सकती है।पुत्रों के इस तरह के अंसपृक्त भाव के सम्बन्धों को एक अभिन्न पात्र एक वाक्य में इस प्रकार कहता है ये जो तीन मूर्तियाँ आ रही है न,भैया के तीनों बेटे,ये साले नागेन्द्र नाथ महान्ती के घर शादी की पार्टी में आए हैं।”
 पिता दशा काम पूरा हो गया,बेटी लीना विधवा मां को अपने साथ ले जाती है और अपने छोटे भाई से विदा लेकर कहानी का नायक लौटता है,वह कहता है,“चिट्ठी देना देबू।ध्यानपूर्वक पढ़ाई करना।तुझे मैं ठीक समय पर पैसे भेजते रहूँगा।पिताजी के बाद भी तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई बंद नहीं होगी। तुम पढ़ोगे,स्योर।”  कहानी की अंतिम पंक्ति जगदीश लिखते हैं,देवदत्त की आँखों से आँसू निकल पड़े। मैंने उसके आंसू पोंछते समय अनुभव किया मेरी आँखों से भी आंसू निकल रहे थे। अचानक महसूस हुआ,नहीं,नहीं-स्नेह,प्रेम,विश्वास के मूल्य-बोधों का भूकंप आने के बाद भी सब-कुछ नष्ट नहीं हुआ है। कुछ न कुछ बचा हुआ है,अभी भी हमारे हृदय के भीतर।
      जगदीश की कहानी पलाई जिबार रास्तावास्तव में जाने का रास्ता नहीं खोज पाता है नलीनाक्ष इस कहानी में। नलीनाक्ष पढ़ने के बावजूद भी नौकरी नहीं मिलने के कारण विपिन भाई के घर आकार पहुँच जाता है। विपिन भाई अफीमखोर है। शाम के समय अफीम न मिलने पर बेचैन हो जाता है। उसके घर में कुछ दिन रुकने के बाद नलीनाक्ष समझ जाता है कि यहाँ उसकी भूमिका एक नौकर से ज्यादा नहीं है, विपिन भाई की पत्नी दमयंती को एक सहायक की जरूरत थी और विपिन भाई ने नलीनाक्ष को लाकर यह काम पूरा कर दिया। काम निकालने में दमयंती धुरंधर थी। काम पड़ने पर खेतों में मजदूर का काम करेगा,गायगोरू संभालेगा,दुकान से सामान खरीदेगा। विपिन भाई के एकलौते तीन साल के पुत्र बाबूलि को घुमाएगा और उसके लिए कविराज से दवाई लाना सब नलीनाक्ष का दायित्व है। ऐसी एक परिस्थिति में नलीनाक्ष विद्रोही हो गया। उसकी अंतरात्मा मानो बार-बार पुकार रही हो नलीनाक्ष चले आओ। जबकि वह जा नहीं पाता है वरन परिस्थितियों के साथ समझौते के नये-नये उपाय खोजने लगता है। दमयंती के साथ शारीरिक संबंध स्थापित कर लेता है,शारी के माध्यम से वह उसके मन को खरीद लेता है, नपुंसक स्वामी(पति) से संभोग सुख पाने में वंचित दमयंती के साथ शारीरिक खेल के आवेग में न तो किसी प्रकार की भाव प्रवणता थी,थी तो केवल एक कसरत। धीरे-धीरे नलीनाक्ष एक क्रीतदास में परिचित हो जाता है। घर से बाहर निकलते समय हर बार वह सोचता है आज वह यहाँ से चला जाएगा। निश्चय आज़ाद हो जाएगा जबकि वह आज़ाद नहीं हो पाता।
            “द्विपहर देखी नथिबा लोकटिएकहानी जगदीश की और एक प्रतिनिधि स्थानीय कहानी है। जीवन की जल प्रतिबिंब प्रस्तुत करने वाली एक कहानी है। यहाँ संतुष्टि पाने के लिए सबसे पहले अपने स्वाभिमान की बली देनी होती है।संकलन की एक और कहानी निआंजिसने एक समय में खूब हलचल मचायी थी। अपनी पत्नी घर पर नहीं होने पर कहानी का नायक आम बेचने वाली रमा को अपने घर बुला लेता है। मगर उसी समय ग्लानि और अपराध बोध उसे अथर्व कर देते हैं। अपने प्रति,अपने आप से नफरत होने लगती है,अपने आप वहाँ से दूर जाने के लिए बेचैन हो जाता है।
      युद्ध क्षेत्र में अकेले फूल का पौधा बनकर हंस रहा है अजितेशजगदीश की और एक आत्म जीवनात्मक कहानी है।एक भौतिकवादी मनुष्यों की कॉलोनी में कहानी नायक आवेग में आकर फूलों का बगीचा तैयार कर बैठता है,और वही केवल उसका अपराध बन जाता है। संकीर्ण विचारों वाले बड़े अधिकारी और उनके नीचे काम करने वाले सभी खुशामद करने वाले कर्मचारी फूल-बगीचे का विरोध करने लगते हैं।वे ऐसे मिलजुल कर अजितेश के फूलों का बगीचा नष्ट कर देते हैं। अजितेश की पत्नी मनोरमा बेचैन हो जाती है,अजितेश भी। मगर उसी ध्वस्त बगीचे के एक कोने में गुलाब के पौधे की डाली पर एक कली किसी तरह बची रह जाती है,पता नहीं किस तरह अभी भी सुबह की नरम धूप में फूल बनकर हंसने लगती है। उस एकाकी गुलाब फूल की लालिमा जीवन और सौन्दर्य-बोध की वैजयंती उजाड़ जाती है। पारिवारिक संबंध और उनमें होने वाले परिवर्तनों को लेकर जगदीश ने अनेक कहानियाँ लिखी,जिनमें माँ पाईं घरएक अन्यतम कहानी है। जो मां कभी अपने घर की सर्वमयी कर्ता भाव से परिवार को नियंत्रण करती थी,वह एक दिन अवांछित हो जाती है। बच्चों से दूर होती विधवा मां की आँखों में असहायता के स्थिर चित्र नजर आने लगते हैं।यहाँ तक की आधुनिक पत्नी की पालतू बिल्ली मां की तुलना में ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है। खुला पिंजरे का पक्षीऔर दिग्वलयदोनों निम्न मध्यम वित्त परिवार की समस्याओं को लेकर लिखी गई कहानियाँ हैं।
      यात्राकहानी अलग धारा की कहानी है।इनमें भारत के अमला तंत्र शासन और लाल फीताशाही की हृदयहीनता का चित्रण किया गया है।स्वतंत्र भारत के नागरिक के लिए प्रत्येक कार्य पर किस तरह प्रतिबंध लगाया जाए,इस कहानी में यह दर्शाया गया है।जगदीश ने अत्यंत ही कलात्मक ढंग से इस कहानी का वर्णन किया है।
      जगदीश की कहानियों में हमें तीन प्रकार की भूख दिखने को मिलती है,जिनमें हैं(1) यश या प्रतिष्ठा की भूख (2) दूसरी है सेक्स की भूख और इन दोनों से बढ़कर तीसरी भूख है पेट की भूख। पेट की भूख के लिए पिता किस तरह अपने बच्चे को बेच देता है,इस कथावस्तु को लेकर उन्होंने कहनी बाघलिखी। इस कहानी में हमें मार्क्सवादी जगदीश से भेंट होती है। एक तरफ अपने परिवार के लिए एक मुट्ठी अन्न जुगाड़ न कर पाने वाले आदिवासी पिता की पीड़ा और दूसरी तरफ भारत दर्शन के लिए भ्रमण करने वाले विख्यात लेखकों की वैभवपूर्ण विमान यात्रा। एक गरीब आदिवासी पिता अपने पुत्र का कम आदर नहीं करता निरीह पुत्र का प्रश्न मैंने खाने के लिए मांगा था इसलिए मुझे बेच देते हो? सुनकर उसका हृदय कांप उठता है,एक निष्पाप,मासूम चेहरे के सामने 500/- रुपये उसे अर्थहीन लगने लगते हैं। केवल पुत्र की दरौटी भाषा से पेट को भरा नहीं जा सकती जो 500/- कर सकती है। बाध्य होकर वह आदमी साइकिल के पीछे कैरियर पर अपने बेटे को बैठाकर चला जाता है। जाते समय उसके हाथ की मुट्ठियों में बेटे का हाथ,मगर लौटते समय उन हाथों में थी 500/- पाने की खुशी की अनुभूति। वह आदमी अन्यमनस्क होकर बार-बार अपने शरीर की तरफ देखता है, उसे लगता है उसके शरीर का रंग पीला होते जा रहा है। सपने में देखे हुए बाघ की तरह वह वास्तव में उस बाघ की तरह बदल जाता है।इस कहानी का आवेदन इतना करुणाजनक है कि पाठक अपनी आँखों से आंसुओं को रोक नहीं पाते। अंधेरे में डरने वाले और सोते समय मां से गले लगाकर सोने वाले एक बेटे को बेचकर लौटते समय बाप के मन के कष्ट को जिस मर्मस्पर्शी तरीके से जगदीश ने लिखा है वह अतुलनीय है।
      जगदीश की कहानी मुखामें यश या प्रतिष्ठा की भूख भोगने वाले इंसान की कहानी है। जो यथार्थता का सामना करने से डरता है, उसे इस बात का डर है,कल कहीं उसके चेहरे का मुखौटा गिर न जाए। दूसरी तरफ खूब असह्य लगने पर भी वह उसे ज्यादा खुला नहीं रख पाता।
      इस संकलन में एक और विस्मरणीय कहानी है उत्तराधिकार।भुवनेश्वर में घर बनाने के आग्रह और उस आग्रह को चरितार्थ करने की पीड़ा का इस कहानी में वर्णन है।जगदीश के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित इस कहानी में पाठक कहीं न कहीं अपने को पाते है।केवल घर बनाने में नहीं गृहप्रवेश के समय कहानी के नायक का दम घुटने लगता है,जबकि उसकी मेहनत से बने हुए घर को उसके बच्चे उस आग्रह और उत्तेजना के साथ ग्रहण नहीं कर पाते।उस समय कहानी के नायक को याद आता है एक दिन उसके गाँव में उसके पिता द्वारा बनाए गए घर को छोड़कर दूर को चले आए शायद भविष्य में भी उसके पुत्र उसके द्वारा तैयार किए हुए घर को छोड़कर और किसी जगह चले जा सकते हैं। सम्बन्धों के इस समीकरण में पिता जितना अपने पूत्रों का आदर करते हैं शायद पुत्र उतना आदर नहीं दे पाते।जगदीश की लबम”,”दिग्वलय”,”माँ पाईं घर”,और खोला पिंजरा र पक्षीकी तरह पारिवारिक सम्बन्धों पर आधारित कहानियों में जिन-जिन अनुभूतियों को पाते हैं, “उत्तराधिकारमें वैसी ही अनुभूतियों का अनुभव होता है।
      जैसा कि पहले ही कहा गया है,जगदीश की कहानियों के चरित्र आधुनिक भारत के मनुष्य हैं। स्थित अवस्था को ग्रहण नहीं कर पाने वाले बल्कि अन्यत्र नहीं जाने वाले अस्थिर पात्रों से उनकी कहानियों में अधिकांश मुलाक़ात होती है। जिनका चरित्र करने में कौणसि दुआर खोला नाहिंकहानी में जगदीश ने लिखा है मुझे ऐसा लगता है यह जीवन जीने के लिए जैसे मेरा जन्म नहीं हुआ था मुझे जैसे अन्य कहीं होना चाहिए था। अन्य कहीं पर,अन्य भाव से मगर वह जीवन कैसा होता? क्या वही होता? कैसे मिलती वह जगह जहां मैं अपना वास्तविक जीवन जी पाता? मुझे मालूम नहीं,सत्य कह रहा हूँ विश्वास करो नहीं जानता। मगर इतना जानता हूँ यह जीवन मेरे लिए असह्य हो गया है। इस जीवन से मेरा दम घुटने लगा है।
      कहानी को कहानी के रूप में कुशलता पूर्वक कहने की कला जगदीश ने अपनायी नहीं थी,वे कहानियों के चरित्र और उनकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं को कैमरे में बंद करने का प्रयास किया था। उनकी धारणा थी,कहानी पढ़ने और समझने के लिए एक अलग आँख होनी चाहिए। इन सभी कारणों से जगदीश मोहंती को पाठकों के लेखक के साथ-साथ लेखकों के लेखक भी कहा जा सकता है। उनकी अधिकांश कहानियाँ श्रेष्ठ कहानियों की परिभाषा में उत्तीर्ण होती हैं। श्रेष्ठ कहानियों के संबंध में उनका कहना था श्रेष्ठ कहानी क्या है उसे कहानी पहचानने वाला ग्राहक ही कह सकता है? सब्जी बाजार गए हैं? भिंडी खरीदते समय दुकानदार पहले ही कह देता है,भिंडियां छांटना है तो छाँटो मगर अग्रभाग को तोड़ना मत। भिंडी की कोमलता आपको उँगलियों के स्पर्श से पता चल सकती है और भिंडी के आगे के हिस्से को न तोड़कर भी आप कोमल भिंडी को बूढ़ी भिंडी से अलग कर सकते हो। (श्रेष्ठ कहानी की भूमि और भूमिका: संपादक गौरहरी दास,भारत-भारती कटक)
                        अंत में यह कहा जा सकता है कि जगदीश मोहंती की श्रेष्ठ कहानियों का यह संकलन उनके प्रिय पाठकों के आग्रह की पूर्ति करने के लिए नहीं बल्कि बढ़ाने में सहयोगी होगा। इन कहानियों को पढ़ने के बाद पाठक यदि जगदीश के कहानी संग्रह के साथ-साथ जगदीश की रचना-संग्रह को पढ़ने के लिए उत्साहित होते हैं तो संपादक का यह श्रम सार्थक होगा।
गौरहरी दास
 
 

 

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