आग
आग
दो ग्राहकों को लेकर रमा व्यस्त थी। क्या इतना हंस-हंस कर बात करती है? उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में शरारत झलक रही थी। मैंने
स्कूटर का हार्न मारा। रमा ने मेरी ओर देखा। क्या उसका मेरी तरफ देखकर हँसना उचित
नहीं था? आखिर आँखों
के इशारों से इंतजार करने के लिए बोलना उचित नहीं था। पर कुछ नहीं कहा। सामने की
टोकरी में सजा कर रखे हुए ‘बैंगन पलई’ आमों के साथ हाथों से खेलते-खेलते सामने खड़े ग्राहक
के साथ बातचीत में लग गई।
रमा की अम्मा पीछे वाली ‘बाटा’ दुकान के बरामदे में बैठ कर उसके बच्चों को खिलाते
खिलाते कभी मुझे देखती थी तो कभी ग्राहकों की तरफ देखती थी। उसकी माँ यह जान चुकी
थी कि रमा और मेरे बीच कोई संबंध होना चाहिए। नहीं तो उस दिन, रमा दुकान में नहीं थी, उसकी अम्मा ही आम बेच रही थी। मुझे देखकर ग्राहक समझकर वह आम बेच सकती थी।
उसके बदले में बोली, रमा तो नहीं
है। बच्चों को सुलाने घर गई है। आ रही होगी। थोड़े समय बाद आओ।
रमा और मेरे
बीच कोई संबंध बन गया है। क्या है यह संबंध? वह एक आम बेचने वाली है। मैं हूँ एक ग्राहक। इससे बढ़कर और क्या संबंध? लेकिन आज रमा ने मुझे देखकर हंस कर स्वागत नहीं किया
तो मेरा मन क्यों उदास हो उठा है। मैं क्या सच में रमा के प्रेम में पड़ गया
हूँ। रमा के साथ मेरा प्रेम करना अचिन्तनीय है।
रमा
शादी-शुदा है। उसका तेलगू पति मुंबई के मर्चेन्ट नेवी में है। एक बेटा है। मैं भी
शादी-शुदा हूँ। मेरी पत्नी सुंदर, पढ़ी-लिखी है
और हमारा एक स्टेट्स है। रमा के साथ कोई भी संबंध रखना नहीं चाहिए। लेकिन किसी
प्रकार एक संबंध बनता जा रहा है। मैं जानता हूँ बहुत भयानक वह संबंध हो सकता है जो
मुझे बरबाद कर दे। मेरी पत्नी, बेटा, बेटी वाले सुखी संसार को वह जला सकता है। मेरी
सामाजिक प्रतिष्ठा होने के बावजूद उस आग से खेलने की लालच को नहीं छोड़ पा रहा हूँ।
मेरी पत्नी
गर्मियों की छुट्टियों में अपने मायके जाती है। उनके कॉलेज में लंबी छुट्टी होती
है, जैसे की हर
कॉलेज मे होती है। लेकिन वह इतनी लंबी छुट्टी मायके में नहीं बिता पाती थी क्योंकि
बच्चों की छुट्टियाँ खत्म हो जाती थी। उनकी छुट्टियाँ कम दिनों की होती थी, जैसे कि हर स्कूल में होती थी। फिर भी इन सब के बीच
उन्हें एक महीने की छुट्टी मिल जाती थी। इसी महीने में मैं बाबनभूत बन जाता था।
शाम को घर नहीं लौटता था। आधी रात को लौटता था। घर में झाड़ू नहीं लगाता था। बिस्तर
ठीक नहीं करता था। दुकान भर की किताबें पेड़ों से झड़ते हुए पत्तों की तरह, रोज के परित्यक्त अखबार इधर-उधर से आई हुई पर्चियाँ, कैसेट,शर्ट-पैंट,लूँगी,कंघी और बैग सब बिस्तर के ऊपर रखे हुए थे। साथ में
बोनस में धूल। हमारे घर का मालिक कहता था: आप न सर, मिसेस नहीं रहने से पूरी तरह से एक जन्तु बन जाते हैं।
जन्तु ? हर बार मैं कल्पना करता हूँ, इस बार मिसेस मायके जाने से क्या-क्या करूँगा, वह सब प्लान अंदर ही रहता था, कोलकाता जाकर, किसी स्टार होटल में रहकर किसी आभिजात्यपूर्ण कॉलगर्ल को बुलाऊँगा अथवा एक
वी॰सी॰पी॰ भाड़े में लाकर ब्लू फिल्म देखूंगा अथवा आराम से बैठ कर शराब पीऊंगा। हर
बार ऐसा प्लान बनाता था। लेकिन मेरी पत्नी के जाने के बाद कभी भी कुछ नहीं कर पाता
हूँ। कोलकाता जाने का,फिल्म देखने
का अथवा शराब पीने का उत्साह ही खत्म हो जाता है। पत्नी और बच्चे रहने से इतना
व्यस्त हो जाता था कि कोलाहल भरे जीवन के भीतर लगने लगता था कि ये सब कहीं एक-दो
महीने के लिए चले जाते तो मैं एक आजाद पंछी की तरह उड़ता-फिरता शांति से। लेकिन
इनके लंबी छुट्टियों पर कहीं जाने से, घर के अंदर की निर्जनता। दरवाजा खोलने पर ही किक मार कर सेंटर फॉरवर्ड के
इलाके में भेज देती है, जहाँ
गाडियाँ मोटर लोगों की भीड़, पसीना, कीचड़, उजाला और गीत, चित्कार और
स्लोगन, हंसी और
गाली सब मिल-जुल जाते थे। बार-बार सिगरेट की दुकान देखकर हाथ बढ़ा देता था दुकानदार
की तरफ और पॉकेट से पैसे भी खत्म हो जाते थे, जैसे ज्यादा तेल खाने वाले पुराने स्कूटर के तेल की टंकी।
हर बार की
तरह इस बार पत्नी के जाने के बाद उन पुरानी घटनाओं की पुनरावृत्ति होने के साथ
मेरे भीतर मेरा निषिद्ध जीवन के अंधेरे कमरे में हाथों में मोमबत्ती लिए रमा का
प्रवेश होता है। उसकी शरीर पर क्या कपड़े थे, क्या गहने पहने हुई थी,उभरे हुए
वक्ष और नितंब की साइज क्या थी, यह सब कोई
दक्ष गाल्पिक, औपन्यासिक
या कवि ही कह सकता है। मैं उन सब में से कोई भी नहीं हूँ। वस्तुतः मेरी नज़र शायद
बहुत तेज है। इसलिए उस अंधेरे कमरे में मोमबत्ती लिए खड़ी रमा की दोनों आंखेँ देख
रहा था। बड़ी-बड़ी झलकती हुई और रमा के बात न करने पर भी उसकी आँखें कह लेती थी
बहुत-कुछ। शायद इसलिए बक्सी-बाज़ार चौक पर ‘बाटा’ दुकान के
बरामदे में सजाकर रखी हुई आम की दुकान पर मैंने हिम्मत जुटाकर पूछ
लिया था, आम के दाम
और आठ रूपए सुनकर कहा था, “ दस रुपए
क्यों नहीं लेती हो?”
इस बार भी
पहले रमा की आंखेँ कहने लगी, बाद में रमा
बोली कि ये आम क्या दस रुपए में मिलेंगे? इस बार मैं स्थिर निश्चित हो गया था। क्योंकि रमा के होंठ खुलने से पहले
उसकी आंखें यही बातें कह चुकी थी। फिर भी अपने आप को बेवकूफ समझ कर फिर से मुंह
खुलवाकर उसने सत्यापित करवा लिया था। एक किलो आम लेकर दस रुपए दिए और रमा भी पहली
प्रतिश्रुति की तरह नहीं लौटाए दो रुपयए। मैंने स्कूटर की किक मारकर फर्स्ट गियर
के क्लच छोड़ने से पहले मुड़कर देखा था। रमा की आँखें कह रही थी, मैं जानती हूँ तुम कल जरूर आओगे।
मेरी पत्नी
जब नहीं होती थी, हर बार मैं
होटल में खाता था। इस बार भी वैसे ही। पहले एक-दो दिन आम लेकर जाता था होटल में।
होटल बॉय को कहता था काट कर प्लेट में सजाकर रखने के लिए टेबल के ऊपर। एक-दो
दिनों के बाद होटल वाले ने कहा, देख रहा हूँ, आपको आम बहुत पसंद है। हर दिन आम खरीद रहे हैं,और .......। होटल वाले की बातों में शायद कुछ नहीं थी, लेकिन मुझे लगा कि होटल वाले को सब-कुछ मालूम पड़ गया
है। जैसे कि होटल वाले ने कहीं छुपकर देख लिया हो और होटल में सबके सामने वह
कह देगा शायद।
हमारी शादी
के समय मेरी पत्नी को आम अच्छे नहीं लगते थे और मुझे बहुत पसंद थे। शादी के बाद घर
में आम लाना मैंने छोड़ दिया था और आम खाना भी। इतना था कि वह बार-बार आम लाने के
लिए कहती थी और मैं कभी नहीं लाता था, इसलिए कि उसे अच्छे नहीं लगते थे। वह सफाई देते हुए कहने लगी थी, “ पहले मुझे अच्छे नहीं लगते थे, लेकिन अब अच्छे लगते हैं।” और भी बलिष्ठ युक्ति का प्रदर्शन करने लिए कह रही थी, “ शादी से पहले मैं बैंगन, कुंदरु और कद्दू नहीं खा रही थी। अब तो आराम से खा
रही हूँ।”
उसकी सारी सफाइयों और युक्तियों के बावजूद भी मैं आम नहीं
लाता था। लेकिन पता नहीं, क्यों मुझे
लगता था कि मेरी पत्नी को बिलकुल भी आम पसंद नहीं और मुझे पसंद है इसलिए वह आम
लाने के लिए कह रही हैं।
इस बार जब
पत्नी नहीं थी मैं रोज आम खरीद कर खाता था। इतने आम कि सुबह, दोपहर, और शाम को खाने पर भी खत्म नहीं हो रहे थे। पूरा घर पके हुए आम की खुशबू और
मक्खियों से भर जाता था। मेरे घर के मालिक की पत्नी ने एक बार पूछ लिया मुझे, “ इतने सारे आमों का क्या कर
रहे है आप ?आचार
बनाएँगे।”
घर के मालिक
की पत्नियाँ ऐसी होती हैं जो, अनुसंधानी
आंखों से तहस-नहस कर देती है घर के माहौल को। हमारे घर के मालिक की श्रीमती भी घर पर नहीं है और मेरे आम
खरीदने की बात आसानी से उसके मार्फत मेरे पत्नी के आने के बाद उसके पास पहुँच
जाएगी, यह जानकर भी
मैं ‘हू केयर्स’ की शैली में हंस दिया था।
आम बेचने
वाली के साथ प्रतिदिन के मिलने से दोस्ती हो गई थी। आम
बेचने वाली को मैं प्रतिदिन दस रूपए ही देता था और वह मुझे बिना तौल कर आम देती
थी। मुझे यह भी मालूम नहीं था कि आम की दर कम हुई है या नहीं और वह मुझे जो आम दे
रही है उसका वजन कितना है। आम बेचने वाली ने मुझे पूछ लिया कि मैं शादीशुदा हूँ या
नहीं, मेरी पत्नी
देखने में कैसी है, बाल-बच्चे
कितने हैं, मैं क्या
करता हूँ और कहाँ रहता हूँ। मैंने जब कहा कि मेरी पत्नी कॉलेज में पढाती है, सुन कर उसे विश्वास नहीं हुआ था, बार-बार पूछ रही थी,तुम्हारी पत्नी किस स्कूल मे मास्टरनी है? मैंने जब कहा कि मेरी पत्नी शैलबाला में लेक्चरर है और प्रतिदिन इस रास्ते
से रिक्शे पर कॉलेज जाती है तो उसने अजीब अनुरोध किया। एक आम स्लाइस पर बटर लगाकर
मेरी तरफ बढाते हुए कहा कि एक बार मैं अपनी पत्नी को उसे दिखा दूंगा।
मैं समझ
नहीं पाया, रमा मुझे
लेक्चरर जैसी विदुषी नारी के पति के रूप में कल्पना नहीं कर पा रही थी या एक
बुद्धिजीवी महिला के पति की प्रेमिका के रूप मे अपने आप को सोचने से उसे कष्ट हो
रहा था। मैं धीरे- धीरे जान गया था उसके परिचय। उसके पति के नेवी मे काम करने वाली
बात, उसका घर
श्रीकाकुलम जिले में होने की बात, उसका भाई के
एक बैंड पार्टी में काम करने वाली की बात और दासरि नारायण राव की फिल्में उसे
कितनी पसंद है, ये सारी
बातें।
हमारी
दोस्ती की कहानी से उसकी अम्मा अनजान नहीं थी और हम दोनों के आपस में बातें करते
समय उसकी माँ कुछ दूर पर नहीं रहती थी या हमारे बातों के भीतर घुसती भी नहीं थी।
उस समय वह ग्राहकों को लेकर व्यस्त रहती थी और ग्राहक नहीं रहने से रमा के बच्चों को संभालने में व्यस्त रहती
थी। कभी-कभी मेरे पहुँचने पर रमा आस-पास कहीं नहीं होती तो उसकी अम्मा उसे घर जाकर
बुला कर ले आती थी। कभी-कभी वह कहती थी, रमा अभी नहीं है, बाद में
आना। लेकिन रमा जब नहीं होती थी तो, उसकी अम्मा की मुझे आम बेचने की इच्छा नहीं होती थी।
एक बार रमा
ने बालों में मल्ली फूलों की माला पहनकर मुझसे पूछा था, “ मैं कैसे दिखती हूँ?” मैंने कहा था, “ इसके साथ-साथ हरे रंग की पाट
साड़ी होती तो तुम पर ज्यादा जंचती।” इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं रंग, सौंदर्य इत्यादि से बहुत वाकिफ हूँ। किस महिला ने कैसी साड़ी पहनी है, किस रंग का ब्लाउज पहनी हुई है, मेरी नज़र बिलकुल इधर नहीं जाती थी। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि महिला सुंदर है या नहीं। अवश्य, मैं जिसे सुंदर कहता हूँ मेरी पत्नी उसे सुंदर नहीं
मानती है। मेरी आँखों में जो महिला सुंदर होती है, मेरी पत्नी उसे असुंदर मानती थी। मेरी आँखों में सुंदर दिखती महिला का उसकी
नजरों में नाक चपटा होता है आंखेँ बहुत छोटी-छोटी और कान बहुत बड़े-बड़े होते
है, नहीं तो
अंडे के आकार के चेहरे पर ऊँचा कपाल होता है। लेकिन मुझे नहीं लगता है। उसकी तरफ
एक झलक डालने पर मेरी पत्नी कह सकती है कि उस महिला ने क्या पहना हुआ है।यहाँ तक
कि हाथों की चूड़ियों से लेकर माथे की बिंदी तक सब वह देख लेती है। रमा को हरी साड़ी
पहनने के लिए कहते समय मुझे भी नहीं पता था, कि वह कैसी देखेगी उस साड़ी में, लेकिन अगर मेरी पत्नी होती तो बहस करती कि काले शरीर पर हरी साड़ी नहीं
जंचती लेकिन रामा मेरी बातों से सहमत हो गई थी और कह रही थी कि उसके पास एक हरे
रंग की एक जापानी साड़ी है, जो उसके पति
ने उसके लिए मुंबई से खरीदकर लाई थी। मैंने तो तुरंत उसे प्रस्ताव दिया था कि कल
उसी साड़ी को पहन कर आए, मेरे अनुरोध
पर और केवल मेरे लिए।
“ धेत, ऐसी साड़ी व्यापार के समय पहनते हैं क्या?” शरमाकर रमा ने कहा था और मैं
नहीं जानता हूँ कहाँ से मुझसे इतना अधिकार आ गया था रमा के ऊपर और रमा ने भी विरोध
नहीं किया था, उसकी माँ भी
सब सुनकर निर्विकार रहती थी बक्सी बाज़ार चौक के जीपीओ बिल्डिंग के ट्रेफिक पुलिस
की तरह। अंत में मेरे अधिकार की विजय हुई और रमा राजी हो गई थी साड़ी पहन कर आने के
लिए शाम को पाँच बजे।
उसके अगले
दिन शाम पाँच बजे रमा की दुकान के सामने पहुंचते समय, प्रतिश्रुति तोड़कर रमा ने अपनी पुरानी तेलगू साड़ी में
अपनी विस्मयकारी आँखों और हंसी से मेरा स्वागत किया। जैसा कि कुछ नहीं हुआ है और
कल किसी प्रकार की प्रतिश्रुति नहीं ली थी और वह सपनों की बात है। “ अम्मा, तुम सच में कह रहे थे, मैं जानती
नहीं थी?” कहकर वह
हंसने लगी। उसके
काले चेहरों और सफेद दांतों हंसी छिटक कर आ रही थी।
एक नाराजगी
ने मुझे घेर लिया था। रमा ने जैसे मेरे साथ विश्वासघात किया हो जैसे रमा के लिए
मैं कुछ भी नहीं हूँ और वह पूरी तरह से अपने ग्राहकों के लिए सब कुछ हैं,, जिन्होंने आठ रूपए या छह
रूपए या पाँच रुपए देकर आम खरीदे होंगे और ‘बाटा’ की दुकान के
बरामदे से उतर कर जाते-जाते रमा को भूल गए होंगे। मैंने किसी प्रकार की बात नहीं
की स्कूटर से उतरते समय दुकान छोड़ कर रमा मेरे पास आई। एक हाथ एक्सिलेटर के ऊपर था
तथा दूसरा हाथ दाएँ हाथ के ऊपर रख कर मात्रातिरिक्त स्नेह से भरे हाथों से मेरे
हाथों को दबा कर, मेरे पास
चिपक कर, मेरे शरीर
से उसके शरीर को छटाकर प्यार से बोली, “ नाराज मत होना बाबू, कल शाम जरूर
से पहन कर आऊँगी।”
उसके दूसरे
दिन मैंने पहले से मन बना लिया था कि बैंक से निकल कर सीधे रमा के पास जाऊँगा।
मैंने दाढ़ी कटा ली थी, जूता पॉलिश
करवाया था और कभी-कभार पॉकेट में रखने वाले रुमाल पर दो बूंद सेंट की डाल दी थी।
लेकिन शाम को बैंक से निकल नहीं पाया। ठीक पाँच बजे ही मैनेजर ने बुलाकर कहा, “ पिछले साल बैंक की तरफ से
कितना ऋण लिया गया है कितना ऋण चुकता किया गया है, ग्राहकों में से कितनों की किश्तें देना बाकी है?”यह सारी स्टेटिस्टिक्स बनाने वाले लोगों में से मैं
भी एक था। आखिर मुझे उस रात के नौ-दस बजे तक ओवरटाइम करना होगा। यह जरूरी है।
क्योंकि मैं यह ओवरटाइम करने के लिए प्रस्तुत नहीं था। दूसरी तरफ बक्सी बाज़ार चौक
में रमा मेरे लिए, केवल मेरे
लिए हरी साड़ी पहन कर इंतज़ार कर रही होगी और मैं यहाँ ऋण का हिसाब करने के लिए
रुकूँगा। असंभव, लेकिन
मैनेजर छोड़ने वाला नहीं था। अंत में, मैं हमारे ब्रांच के यूनियन सेक्रेटरी के पास गया था। हमारे ब्रांच के
सेक्रेटरी दूसरे नेताओं की तरह कहीं भी बैंक में कोई काम नहीं करते है और दूसरे
लोगों को ज्यादा काम न करने के लिए कहते थे। उन्होंने भी मेरी सहायता करने के लिए असमर्थता प्रकट की,यह काम जरूरी है और आश्चर्य के साथ उसने कहा कि वह भी
हम लोगों के साथ बैठकर रात को काम करेंगे। इसके अलावा, उसने प्रश्न किया : “ भाभी और बच्चे तो नहीं है घर में। इतनी जल्दी जाकर क्या करोगे?”
वह दिन भी
चला गया। उसके दूसरे दिन मैं जब शाम को पहुंचा रमा अपनी पहले वाली गंदी, सस्ती साड़ी पहनी हुई थी। मैंने सोचा, हो सकता हैं मेरे कल न जाने की घटना के कारण रमा
मुझसे नाराज होगी और अपने बचाव में मुझे बहुत कैफियत और प्रमाण देने पड़ेंगे। लेकिन
रमा ने कुछ भी नहीं कहा। अभिमान नहीं, अभियोग नहीं, विरक्ति
नहीं,निस्पृहता, जैसे कि वह भूल गई थी हमारे कल की प्रतिश्रुति की
बात। तो क्या उसने कल साड़ी नहीं पहनी थी? मेरे पूछने पर वह एक रहस्यमयी
हंसी हंसने लगी, जिसका अर्थ
मैं अपने मस्तिष्क की डिक्शनरी में नहीं खोज पाया।
सबसे
आश्चर्य की बात है, मैंने जब
उसे अगले दिन वही साड़ी पहन कर आने के लिए कहा,तो उसने बिना दुविधा के किसी प्रकार का बहाना बनाए बगैर शरमाकर सिर नीचे कर
उसने हाँ कर दिया। लेकिन उसके दूसरे दिन जब मैं दुकान पर पहुँचा तो वह दुकान पर
नहीं थी तो उसकी माँ ने कहा, रमा की सास
ब्रह्मपुर से आई हुई है। आज रात को लौट जाएगी, इसलिए रमा व्यस्त है, नहीं आ
पाएगी।
उसके दूसरे
दिन, अर्थात आज
शाम को मैंने स्कूटर पर बैठकर दो बार हॉर्न बजाया लेकिन पुराने गाढ़े रंग की तेलगू
साड़ी पहनकर वह अपनी छलकती आँखों में दुष्टता भरी हंसी लेकर ग्राहकों के साथ बातचीत
कर रही थी, अपने दोनों
हाथों से आम तौलकर उसने मेरी तरफ एक बार भी नहीं देखा। मुझे बहुत गुस्सा आया। जाकर
रमा के गालों पर दो थप्पड़ मारने की इच्छा हुई। यह कहने का मन हुआ, “ बदजात् औरत, दूसरे आदमियों के साथ बातचीत करने में तुम्हें शर्म
नहीं आ रही है?”
बाद में
सोचा, रमा मेरी
कौन है? सामान्य आम
बेचने वाली है, मेरी पत्नी
के नाखून की भी नहीं होगी। मै क्यों उसकी तरफ इतना आकर्षित हूँ? ग्लानि से भर गया मेरा मन, मैं स्कूटर चलाकर आगे जा रहा था, रमा ने बुलाया ‘बाबू’।
मैं रुक
गया। मैंने लौटकर देखा। वह दुकान छोड़कर मेरे पास आई। पूछने लगी: “ बाबू नाराज हो।”
उसकी बातों
का उत्तर देने से पूर्व उसने कुछ कहा, “ मुझे पता है, तुम गुस्सा
हो गए होंगे। लेकिन मैं क्या करती? कहो तो? इधर मेरे सास-ससुर
आए थे।”
स्कूटर से
उतर गया। स्कूटर को पैर से रोककर पॉकेट से सिगरेट निकाली। चारों तरफ गाड़ियां,स्कूटर, रिक्शे,साइकिल और
पैदल चलते हुए लोगों ‘बाटा’ की दुकान के काँच वाले शो केस के भीतर जूते, स्पोर्ट्स,कमीज,जूता साफ
करने वाली स्याही बोतल की प्रदर्शनी के साथ खिलौनों का समाहार। अम्मा आम की दुकान
के ग्राहकों के साथ बात करने में व्यस्त थी।
रमा मेरे
हाथों को सहलाते-सहलाते कहने लगी, “ अच्छा ठीक
है, मैं आज रात
आठ बजे तुम्हारे घर आऊँगी। तुम्हारे घर मैं तो तुम्हारी पत्नी नहीं है कुछ असुविधा
होगी? नई साड़ी पहन
कर आऊँगी।”
मेरे हृदय
की धड़कन बढ़ गई थी। नाक से गरम हवा निकलने लगी। मेरे कान लाल हो गए थे। अद्भुत
मायावी नारी। कभी झूले में बैठकर ठेल देती है दूर, तो कभी खींच लेती अपने पास। अभी मुझे उसका प्रबल आकर्षण अपनी तरफ खींच रही
था। सारा गुस्सा उस आकर्षण में धुला जा रहा था। मेरे होठ, चेहरा, हाथ-पाँव काँपने लगे थे। जैसे कुछ गलती हो गई हो, सोचकर वह कहने लगी: “ नहीं, मैं कह रही
थी कि यहाँ इस तरह की साड़ी पहन कर नहीं आ सकती। हमारे घर की सेमिनार चौक के पास
तुम जा नहीं सकते। जाने से गली के दादा बुरा-भला कहेंगे। अगर तुम चाहो तो।
हो सकता है
रमा मना कर देगी। मैंने जल्दबाज़ी में पूछा : नौ बजे आओगी?
: कहाँ?
: मछुआरा बाज़ार में। लकड़ी के गोदाम देखी हो? उसके पास।
: घर कैसे पहचानूंगी?
: तुम ठीक नौ बजे आ जाओगी। लकड़ी के गोदाम के पास। उस
समय सब टीवी सिरीयल देखने के लिए घर में होते हैं। मैं वहाँ रास्ते के किनारे मैं
खड़ा रहूँगा। आओगी तो?
: हाँ।
: निश्चित रूप से?
: निश्चित रूप से?
: झूठ तो नहीं बोल रही हो?
: सौगंध रही।
रमा मेरे घर
आएगी, यह बात मेरी
कल्पना के बाहर थी। रमा नहीं, एक जलती हुई
आग घर के भीतर। उस आग के अदम्य आकर्षण को मैं नज़र अंदाज़ नहीं कर पा रहा हूँ। हो
सकता है, वह आग जलाकर
राख कर सकती है हमारे घर को, हमारे संसार
को। मेरी पत्नी को, मेरे बच्चों
को और मुझे भी। मैं दीपावली के कीड़े की तरह अपने आपको सँभाल नहीं पा रहा था।
स्कूटर चला कर मैं घर आया। घर से फिर रास्ते के ऊपर। फिर घर के भीतर। रमा को आते
अगर किसी ने देख लिया तो? अंततः: घर
वालों को पता चलने से मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहूँगा। अगर एक बार सारे
मोहल्ले में प्रचार हो गया तो उसके बाद सिर ऊंचा कर चल नहीं सकूँगा। मैं एक सज्जन
आदमी हूँ। बुद्धिजीवी हूँ। बाबू हूँ। मुझे देखकर पुलिस वाले, इलेक्ट्रिक वाला, डाक वाला और पानी वाला आदर के साथ नमस्कार करते हैं। मुहल्ले में नए लोगों
को हमारा घर खोजने में कोई असुविधा नहीं होती है। दुकानदार की दुकान पर खड़े रहने
से मुझे पहले सामान दे देता है। पान को दुकान में भी पान बनाना छोड़ कर पहले मुझे
सिगरेट देता है।
मैंने घर
आकर घर को सजा दिया। बहुत दिन हो गए घर में झाड़ू नहीं लगाया था। लगा दिया। बिस्तर
के ऊपर से किताबें, अखबार, कैसेट, कंघी, लूँगी, चिट्ठी-पत्र सब को उठाकर अलग रख दिया। रोज
बिस्तर-चादर बिछाना मेरे लिए कष्टकर काम है, फिर भी मैंने चादर बिछाया। धूप जलाया। लेकिन मेरी पत्नी के हाथों के स्पर्श
से जैसे घर ताजा लगने लगता था, वैसा नहीं
लग रहा था। फिर भी रामा के लिए इतनी साफ-सफाई यथेष्ट है, क्योंकि सेमिनार चौक के पास रमा का घर कौन सा
साफ-सुथरा या साज-सज्जा पूर्ण घर होगा इस घर से ज्यादा?
घड़ी में आठ
बजकर दस मिनट हो रहे थे। मैं बाहर आया। घर के मालिक की पत्नी क्यों इतना बाहर भीतर
हो रही थी? अब वह सुपडे
में कुछ लाकर बाहर फेंक रही थी। रास्ते के किनारे वाले घर की लड़की परदा उठा कर ऐसी
ही पढ़ाई करती थी क्या हमेशा? गवर्नमेंट प्रेस में काम करता हुआ
नित्यानंद उसके घर के बरामदे में बैठकर एक बुजुर्ग के साथ क्या इतनी बातचीत कर रहा
था? उनके सामने
अगर रमा घर चली आई तो? सोचने से
मेरे सीने के मैदान में एक भय घुस जाता था। जैसे सीने के मैदान के चारों तरफ गैलरी
दर्शकों से भरी हुई थी। सभी के आँखें गेंद के ऊपर थी। मैदान में गेंद धीरे-धीरे
जा रही थी। कहीं भी कोई नहीं था जो आकर गेंद को किक मार कर मैदान के बाहर निकाल
देता। बहुत खराब लग रही थी गेंद की उपस्थिति और गेंद के ज़मीन पर रेंगने की तरह
मेरा भय।
अस्थिर हो
गया था। घर में बिना ताला बंद किए दरवाजे को ऐसे ही छोड़ कर रास्ते के ऊपर चला आया।
स्ट्रीट लाइट सब ऐसे भी एक साल में दस महीने नहीं जलते थे। आज ही जलना था। रास्ते
के इस सोडियम वेपर लाइट को पत्थर फेंक कर मारने की इच्छा हो रही थी। लकड़ी के गोदाम
पर कई लोग बैठकर बातें कर रहे थे, बेकार में
क्यों बैठकर समय बरबाद कर रहे हो? जाओ,घर जाकर खा पीकर आराम करो। एक रिक्शा चला आया। तेजी
से साइकिल चलाकर पंद्रह सोलह साल का एक लड़का गया। एक आदमी स्कूटर पर गया, पीछे उसकी पत्नी। सामने में एक बच्चा खड़ा हुआ था।
पत्नी के हाथ के एक प्रजेंटेशन का पैकेट। खुशबू बिखरने लगी। लकड़ी के गोदाम में
बहुत ज़ोर से रेडियो चल रहा था। कोई किसी विषय पर चर्चा कर रहा था उसका गला बहुत
घर्घर हो रहा था।
फिर से घर वह वापस आ गया। घर
वाले की पत्नी अब बाहर में खड़ी होकर टार्च जला रही थी। मुझे देख कर कहने लगी, “अभी एक साँप इधर से गया।
इतना बड़ा, लंबा, मटमैले रंग का साँप। इस अनावश्यक घास-झाड़ियों को
काटकर साफ करना पड़ेगा। हमारे टार्च में
भी इस समय बैटरी खत्म हो गई हैं।“
: “दरवाजा बंद कर भीतर से जाइए।
रात में साँप आदि आ सकते हैं।“
घरवाले की
पत्नी ने कहा,“मुझे साँप
से डर नहीं लगता है। केवल चोरों का डर लगता है।”
रमा आ रही
है। साँप निकला है। घर वाले की पत्नी ने शायद फ्रायड नहीं पढ़ी है। मैं भी फ्रायड
मे विश्वास नहीं रखता हूँ। साँप के देखकर कभी कोई यौनोत्तजित हो सकता है, वह विश्वास,भरोसा,धारणा मेरी
नहीं है, फिर भी
सब-कुछ जैसे कौआ बैठना और डाली टूटने की तरह। मैंने टार्च खोजी। मिली नहीं, बरामदे की लाइट को जलाकर देखा आँगन। कुछ नहीं दिखाई
दिया। लाइट बंद कर दी। घर के मालिक की टीवी पर नेशनल प्रोग्राम का म्यूजिक सुनाई
देने लगा। खिड़की के पास बैठी हुई लड़की दोनों हाथ ऊपर उठाकर जम्हाई लेने लगी।
नित्यानंद एक बार उठते उठते फिर से बैठ गया। रमा के आने में और बीस मिनट बाकी है।
घर के भीतर घुसकर पंखा चला दिया बहुत ज़ोर से। याद आया दो दिन से दाढ़ी नहीं काटी है, मेरे शर्ट-पैंट से पसीने की बदबू आ रही है, मोजे बहुत दिनों से साफ नहीं हुए हैं, जूते खोलते ही बदबू से घर का माहौल भर जा रहा था। मैंने
दोनों मोजों को पानी में डाल दिया। शर्ट बदलते समय देखा कि मेरा पेट बहुत बढ़ गया
है। सिर टकलु हो गया है। बहुत असुंदर दिखाई देने लगा था मैं वयस्क दिख रहा था।
मेरा मन अचानक खराब हो गया। अगर रमा ने मुझे नापसंद कर दिया तो?
बाहर आकर
खड़ा हो गया। नित्यानंद उसके बरामदे मे नहीं था। लड़की खिड़की को खुली छोड़कर उठ गई
थी। घरवाले की पत्नी बाहर बर्तन धो रही थी। मुझे देख कर शायद साँप की बात उसे याद
आ गई घर के भीतर जाकर उसने धड़ाक से दरवाजा बंद कर दिया।
नौ बजकर
पन्द्रह मिनट बजते ही रमा का रिक्शा पहुंचा। गोदाम उस समय खाली हो चुका था।
नित्यानंद नहीं था। झिप-झिप बारिश होना शुरू हो चुकी थी। मैं रिक्शे वाले को पाँच
रूपए दे रहा था, रमा ने हाथ
हिलाकर मना कर दिया। मैं जल्दबाज़ी में सीधे मुड कर चला आया। मेरे पीछे-पीछे रमा।
कोई साइकिल पर जा रहा था। शायद वह देख नहीं सका था सोच नहीं पाया होगा कि रमा मेरे
साथ आ रही है। नहीं तो मुड कर देखती। मैं हमारे किराए वाले घर के सामने खड़ा हो
गया। घरवाले का दरवाजा बंद था। टीवी में कॉमेडी शो चल रहा था और सभी देखने में
मग्न थे। इशारे करते हुए मैंने रमा के आने के लिए कहा।
घर में
घुसकर मैंने दरवाजा बंद कर दिया।बच गया। लाइट जलाई। रमा भीग गई थी, मैं भी भीग गया था।
“एक टावेल दो, मैं पूरी तरह से भीग गई हूँ।” इस तरह रमा ने टावेल माँगा, जैसेकि वह इसका जन्मसिद्ध अधिकार हो, मैंने रमा को इतनी नजदीक से पहली बार देखा। फिर भी रामा के हरे रंग की साड़ी
को देखना भूल गया। उसकी चोटी के फूल देखना भूल गया। उसके मोटे-मोटे, ओठ, उसका पृथुल
शरीर और शरीर से निकलती अस्वस्तिकर गंध। रमा बिस्तर के ऊपर बैठी थी। मेरी पत्नी के
बिस्तर पर। इस बिस्तर पर रमा अधिकार जमाने जा रही थी।
“मेरे पास
बिलकुल भी समय नहीं है। बच्चों को अकेला छोड़कर आई हूँ माँ के पास। इसके अलावा,सीरियल समाप्त होने के बाद फिर लोग बाहर निकल जाएंगे
घर से।“ रमा सिर से
पानी पोंछ रही थी,उसकी साड़ी
गिर गई थी। उसकी छाती में ऐसा कुछ खास आकर्षण नहीं था।यहाँ तक कि उसकी उपस्थिति
भी।
“ लाइट बंद कर
आओ। जल्दी” रमा ने कहा
और उसने साड़ी उठा दी कमर तक। दोनों घुटनों को ऊपर उठा कर सो गई थी। उसके घुटनों पर बचपन में गिरने के कारण घाव बनने के निशान
दिखाई दे रहे थे। उसके यौनांग सारे प्युबिक हेयर के साथ बहुत वीभत्स और अश्लील लग
रहा था। ऐसा लग रहा था, रमा के साथ
अगर मेरा परिचय न होता तो अच्छा होता, सोचने लगा कि मेरी पत्नी को जब इस बात की भनक पड़ेगी कि उससे कई रूप और गुण
से निकृष्ट रमा के ऊपर मेरा अधिकार है, वह शायद घृणा से काँप उठेगी।
मैं उस
दृश्य को और नहीं देख सका। मेरे शरीर से पसीने आने लगा। मेरा गला सूख रहा था। लाइट
ऑफ कर घर का दरवाजा बंद कर बाहर आ गया। बाहर में बारिश हो रही थी। दौड़ते-दौड़ते
रास्ते के ऊपर आ गया। उसके बाद गली के बाद दूसरी गली पार करते हुए राज-रास्ते पर
चला गया।वर्षा के कारण कहीं पर भी भीड़ नहीं थी। मेरे पैर अभी भी क्यों काँप रहे थे? मैंने पीछे मुड़ कर देखा, रमा पीछे तो नहीं आ रही हैं। होटल में भीड़ थी, लाइट, रेडियो पर गाना चल रहा था। मुझे निर्भय आश्रय मिलेगा,अगर आज रात को मैं सेकंड शो फिल्म देखने जाऊंगा। रात
को बारह एक बजे घर लौटूँगा। रमा निश्चित रूप से और इंतजार नहीं कर रही होगी मेरे
लिए।
होटल के
लड़के को बुलाकर मैंने कहा, “ए!मुझे नाइट
शो फिल्म जाना है। जल्दी से खाना लगा दो।” होटल के लड़के ने पूछा, “और आम? आज आम नहीं लाए है।?”
मैंने उस लड़के की तरफ इतने
गुस्से से देखा जैसे कच्चा खा जाऊँगा। लड़का अचानक मेरे भयंकर रूप को देख कर डरकर
भीतर चला गया और दूसरे सप्लाइ करने वाले लड़के ने आकर रे टेबल पर खाना रख दिया और
वह चला गया।
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