अलबम (भाग-1)




अलबम
चेहरे पर आयु का बोझ।कमर थोड़ी झुकी हुई।आँखों पर चश्मा,ललाट पर रेखाएँ साफ दिख रही है।गंजा माथा। चेयर पर बैठे हुए।पीछे की ओर दीवार। दीवार पर टंगी हुई कैलेंडर के  कुछ हिस्से फोटो में आ गए है।फोटो पिताजी की है।उसके नीचे लिखा है- श्रीयुत नगेंद्रनाथ महांती,मैंने उस नाम के पहले लिख दिया स्वर्गीय
      घर के अंदर अब भी बिछौना बिछा हुआ है खाट पर। लाल चादर बिछा दी गई थी। पैर के पास रजाई थी, मगर ओढ़ी हुई नहीं थी, तकिए में गड्ढा हो गया था- उनके माथे के निशान अभी भी है, पान का बटुआ और बेंत की लाठी भी है। जैसे उन्हें बिछौने से उठा ले गए थे,चले गए चुपचाप बिना किसी प्रतिवाद के।
      कुछ दिनों से बुखार था।डाक्टर बुलाया गया। परीक्षण के बाद पता चला टाइफ़ाइड। कुछ कैप्सूल दे गये। बुखार छूट गया। उस दिन नहा-धोकर भात भी खाए थे। दिन के तीन बजे गाँव की तरफ घूमने निकले थे।इस साल आम अच्छा हुआ है,इसलिए फसल भी अच्छी होगी, गाँव के हलवाई मधुसाहू को कहा था और चार बजे वापस आकर माँ से कहा कि दिन-भर पेशाब नहीं हुआ है और यह कहकर  पेशाब करने चले गए,पर पेशाब नहीं हुआ। आहिस्ता-आहिस्ता परेशानी बढ़ने लगी,फिर से डाक्टर को बुलाया गया। डाक्टर ने आकर कैथिटर से पेशाब करवाया। तब शाम के पाँच बज रहे थे,हालत गंभीर थी। इसलिए जाते समय डाक्टर कहकर गए कि बारिपदा के बड़े अस्पताल में ले जाओ,अगर वे लोग इलाज नहीं कर पाएंगे तो कटक के बड़े अस्पताल में भेजना होगा।शायद किडनी खराब हो गई है।   
      माँ नर्वस हो गई थी।नर्वस होने पर भी उनमें कहाँ से एक ताकत आ जाती है,कभी टूटती नहीं।चचेरे भाई दौड़ कर गए खूंटा बस-स्टैंड। टैक्सी नहीं मिली तो बारिपदा जाकर टैक्सी लानी पड़ी।गाँव में टैक्सी पहुंचते समय रात के नौ बज रहे थे।पिताजी को होश नहीं था।प्रलाप होना शुरू हो गया था।बिछौने पर से उन्हें ढोते हुए ले जाया गया।साथ में,माँ और दो चचेरे भाई बारिपदा गए।अस्पताल में भर्ती कराया गया।कमर के पास सुई लगाकर पानी निकाला गया। जांच के लिए कैथिटर देकर पेशाब कराया गया।उसके बाद थोड़ा आराम हुआ तो सो गए। रात के चार बजे नींद खुली। चचेरे भाई ने पूछा,“ बड़े पापा, दूध पिएंगे?”
       पिताजी के गले के शब्द जैसे कहीं बड़ी दूर से आ रहे थे। आँखें बंद।
       बोले,“लाया है ? दे।
      चचेरे भाई ने दूध पिला दिया। आधा पीकर सोने जा रहे थे।
      वह बोला, “बड़े पापा, थोड़ा-सा दूध और रह गया है।
      पिताजी बोले, “रह गया? तब दे,पिला दे।
      पीकर चुपचाप सो रहे थे।अचानक हमारे नौकर,उनकी बात मानने वाले,तपन को बुलाने लगे। चचेरे भाई ने कहा,“तपन कहाँ से आएगा? आप अस्पताल में है।
      उन्होंने कहा, “मेरी चप्पल थोड़ा लाना।
      उसने पूछा, “चप्पल क्या करेंगे,बड़े पापा?”
      पिताजी एकाएक उठ बैठे।
      चचेरे भाई ने उन्हें ज़ोर से जकड़ रखा तो उन्होंने कहा,”अरे! मुझे जाना होगा।
      उन्हें सुलाते हुए भाई ने कहा,”नहीं, आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं। आप सोते रहें।
      लगा पिताजी जैसे हार से गये हैं। कहने लगे,“अच्छा। तब मैं जाता हूँ, लाइट ऑफ कर दे।
          बोलते ही नाक से हो कर सारा दूध निकल आया। आँखें तो बंद थी,होंठ दो बार हिले- उसके बाद सब कुछ खत्म-चल बसे,चचेरा भाई एक बार चिल्ला उठा,“बड़े पापा!
       माँ बेहोश हो गई थी।
           तब मैं उनके पास नहीं था। राउरकेला शहर में बेधड़क घूम रहा था,मेरे पास टेलीग्राम आया।पर उसके मिलने के समय मैं सिनेमा-हाल के अंदर था। मेरे एक पड़ोसी ने टेलीग्राम रिसीव किया।साधारण टेलीग्राम किया गया था- फादर सीरियस, कम सून।
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         दूसरे दिन दोपहर ग्यारह बजे मैं बारिपदा बस स्टैंड में पहुँच गया था। बस से उतरते ही नुनु भाई यानि मेरा चचेरा भाई मिल गया। देखते ही पूछा,“पिताजी कैसे है,नुनु भाई?”
         नुनु भाई तुरंत कुछ जवाब नहीं दे पाया,मैं साफ देख रहा था उसके दोनों पैर बुरी तरह काँप रहे थे। बड़े असमंजस में बोले,“बड़े पापा नहीं रहे। परसों रात को ही....
       बारिपदा से उदला होते हुए बालेश्वर जानेवाली प्राइवेट बस की टीन दीवार पर मैंने अपने को टिका दिया।अनुभूति में किसी एक खदान का अंधेरा,आज तक मृत्यु के साथ परिचय सिर्फ समाचार पत्र के जरिए ही था।जीवन में पहली बार किसी अपने आदमी की मृत्यु की खबर सुन रहा हूँ, जिस पिताजी ने मुझे जन्म दिया था,इतने-से-इतना बड़ा किया था,उन्हें और देख नहीं पाऊँगा कभी। उनकी फोटो के नीचे लिखा जाएगा स्वर्गीय
       मैंने पूछा, “मुखाग्नि किसने दी?”
      उत्तर मिला कि चाचा के बेटे अभिन्ना ने दी है।
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         हम पाँच भाई और तीन बहनें हैं,परंतु पिताजी के अंतिम समय में कोई पास में नहीं था। छोटा भाई देवदत्त बारिपदा में पढ़ता है,परंतु ठीक उसी समय एस्कर्सन में चला गया था, पिताजी की मुत्यु के बाद बेटों के पास टेलीग्राम भेज दिया गया था- फादर सीरियस, कम सून।बेटियों के पास नहीं भेजा गया था।
         पहला टेलीग्राम मेरे अलावा जिन दो लोगों के पास पहुँचा था,वे हैं बड़े भाई और मेरे ऊपर वाले सोमू भाई, सोमदत्त महान्ति,जो जाजपुर रोड में इंजीनियर है तीन महीने पहले उनकी शादी हुई थी और शादी के बाद से वह भाभी जी को लेकर पहली बार घर आए थे,बड़े भाई साहब साथ में भाभीजी,एक बेटा और बेटी को साथ ले आए थे। कुछ सालों पहले की फोटो है।तब भी बड़े भाई साहब इतने ज्यादा गंजे न थे,बड़ी भाभी भी इतनी आकर्षणहीन नहीं थी,सोमू भाई हाफ पैंट शर्ट पहनकर छाती पर हाथ बांधे खड़े थे।यह उनके स्कूली जीवन की बात है और शायद आठवीं कक्षा में पढ़ रही मीना दीदी स्कर्ट ब्लाउज में।फोटो के नीचे लिखा है:पानी की धारा।
      पानी की धारा नहीं तो और क्या ? समय बीत  जाता है,नहीं तो मिट्टी में मिलकर खो जाता है। एक हाफ़ कैबिनेट साइज़ के फोटो-फ्रेम में बंधे कुछ लोग कैसे बधे रहते! सोमू भाई और मीना दीदी भुवनेश्वर में रह कर बड़े भाई साहब के पास पढ़ रहे थे। जिस तरह सोमू भाई सब दिन हाफ पेंट नहीं पहन पाए,उसी तरह मीना दीदी ने भी स्कर्ट ब्लाऊज छोड़कर साड़ी पहनी। दोनों उस हाफ कैबिनेट फोटो से बाहर निकल गए। शेष जो रह गए,उन दोनों ने चार प्राणियों का सुखी संसार बनाया। सुख की दीवार से घिरे चार प्राणियों के मालिक बने बड़े भाई साहब आए हैं टेप रिकॉर्डर साथ लेते हुए।उद्देश्य था पापा की बातों को टेप कर लेने का।
           उन्हें पता नहीं था कि पापा टेप रिकॉर्डर में अपनी बातों को कैद करवाने से पहले ही चले जाएँगे।टेप रिकॉर्डर खरीदा गया था कुछ दिनों पहले।परंतु बड़े भाई साहब के पास समय ही नहीं था।घर में आकर पापा की आवाज को टेप कर लें।इस बार आते समय ने हरी झंडी दिखा दी थी।
          बड़े भाई साहब का टेप रिकॉर्डर मैंने नहीं देखा,ट्रंक के अंदर बंद था।किसी ने उसके बारे में चर्चा नहीं की थी,सिर्फ भाभीजी के रोने से ही मुझे उसके लाने के बारे मे पता चला था।
          घर पहुँच कर समझ पाया था कि पूरे घर में शोक और विषाद की छाया है।मुझे देखकर घर के सामने ही बड़े भाई साहब ने कह दिया,“सिद्धि,पापा और नहीं है।उनकी आवाज काँप रही थी।मुझे देखकर माँ ने अपना धीरज खो दिया और मुझे पकड़ कर रोने लगी। मैं तेरे पापा को वापस नहीं ला सकी रे,मैं हार गईकहते हुए वह रोने लगी और बेहोश हो गई।बड़ी भाभी माँ को बेहोश देख नीचे लुढ़क गई। सोमू भाई माँ के मुंह पर पानी छिड़कते हुए-हवा करने लगे।बड़े भाई साहब बड़ी भाभी को पकड़कर धीरज बंधा रहे थे।
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         मैंने पहली बार अनुभव किया कि पापा हमारे बीच नहीं है।अनुभव किया हर एक बार की तरह घर आकर उन्हें चरण-स्पर्श करने की और आवश्यकता नहीं है।इसके अलावा,मेरे गाँव छोड़कर परदेश जाते समय पीछे-पीछे आने वाला कोई न रहा।अचानक दिल के अंदर बहुत खाली-खाली लगने लगा,आज मेरे सामने एक निर्भय और वास्तविक घटना घटित हो गई है।इस वास्तविकता के समक्ष सभी को आश्रय लेना पड़ता है।मेरी आँखों में आँसू भर आए।
         एक हाफ कैबिनेट साइज के फोटो में बंद फ्रॉक पहनी हुई,दो वेणी वाली मीनू दीदी अब पक्की गृहिणी है।उनके पति करंजिआ में लिफ्ट इरिगेशन डिपार्टमेंट में इंजीनियर है।एक बेटे के साथ उनका सुखमय संसार है।अभी मीनू दीदी फिर से प्रेगनेंट है और डिलिवरी टाइम भी हो गया है,किसी भी समय खुश-खबरी आ भी सकती है,लेकिन ऐसी एक दुर्घटना के बाद उन्हें कैसे खबर दी जा सकती है। उनकी एडवांस स्थिति में। वे कैसे आएगी शुद्धि-क्रिया में?गाड़ी से लांग जर्नी में कुछ दिक्कतें तो नहीं होंगी।लीना दीदी भी अकेली है बालेश्वर में। वहाँ वह वुमेन्स कॉलेज में अध्यापिका है।अगर असली बात बताते हुए उन्हें चिट्ठी या टेलीग्राम भेजा जाए तो वह टूट नहीं पड़ेंगी? वहाँ वह अकेली है।उन्हें धीरज बंधाएगा कौन? काफी सलाह-मशविरे के बाद सभी ने तय किया कि मैं और नुनु भाई मीना दीदी और लीना दीदी के पास जाएंगे।जाकर स्थिति का जायजा लेते हुए बात करेंगे सोच-समझकर।नुनु भाई की जिम्मेदारी रही कि समझा बुझाकर लीना दीदी को गाँव में लाने की। मेरा काम रहा मीना दीदी को खबर देना और जीजाजी से सलाह करना। अगर वैसी कोई असुविधा रही तो,उन्हें समझा-बुझा कर अकेला लौट आऊँगा। 
         दोनों दस बजे निकले,नंगे पैर। गंदी पोशाक पहने हुए।नुनु भाई ने रास्ते में कहा,“एक तिनका उठा ले,सिद्धि। बस में सीट पर तिनका लेकर बैठने से चलेगा।आजकल इतना नियम मानने से चलेगा?”
         मेरा मन नहीं मान रहा था।मैंने कहा,“रहने दो,नुनु भाई यहाँ से करंजिआ कितना रास्ता है,चार पाँच-छह घंटे की तो बात है। मैं खड़े होकर चला लूँगा।”    
         खूंटा बस स्टैंड में पहुँच कर देखा मनु भाई बस से उतर कर नीचे बैठे है। साथ में भाभी जी भी है। भाभीजी गाँव छोड़ने के बाद पहली बार आ रही है। वह हमारे गाँव से अपने दादाजी की तबीयत खराब रहने के बहाने से बारिपदा के मंदिर के सामने से अपने पीहर गई थीं- वह आज से दस साल पहले की बात है।तब मैं हाईस्कूल का छात्र था।खूंटा हाईस्कूल में पढ़ रहा था,उन्हें बस में बैठाने के लिए आया था।वह तो बारिपदा की बेटी थी,अकेले जा सकती थी। जिस दिन वह चली गई थी,हमारे घर तब से नहीं लौटी थीं।
         उन्हें खूंटा बस-स्टैंड पर बस में चढ़ा देने वाला मैं पंद्रह वर्ष का लड़का था,हाफ पैंट,शर्ट पहनता था,इसी दौरान समय कितना जल्दी गुजर गया था और भाभीजी फिर वापस आई गई उसी गाँव में,जहाँ न लौटने की शपथ लेकर वह अपने पीहर चली गई थीं।
         जाते समय वह अकेली गई थीं।आते समय उनके साथ भाई मन्मथ भाई,दो बेटे और एक बेटी थी। उस दिन मैं खूंटा बस स्टैंड आया था और आज भी आया हूँ। उस दिन हाफ पैंट पहने हुए हाथ में किताब लेकर आया था,आज बेल-बाटम पहनकर आया हूँ।
         खूंटा हमारे गाँव का बस-स्टैंड है।यहाँ के सभी लोग हमें पहचानते हैं।शायद इसलिए भाभीजी ने माथे पर ओढ़नी डाल दी हैं।दस साल पहले उन्हें बस में छोड़ते वक्त,मुझे ठीक याद हैं,माथे पर ओढ़नी डाले बस स्टैंड आई बहू ने, बस में चढ़कर सीट पर  बैठने के बाद इधर-उधर देखते हुए अपनी ओढ़नी खसकाकर लड़की बनते हुए कहा था,“ मैं चली जाऊँगी,सिद्धि। तुम अब जाओ।
         भाई साहब ने हमें देखकर परेशानी से पूछा, “पिताजी की तबीयत कैसी हैं?”
         क्या कहेंगे?क्या जवाब देंगे।कितनी निर्भयता से सच बोलना पड़ेगा।मेरी आवाज नहीं निकली।नुनु भैया की भी आवाज काँप रही थी।कांपते-कांपते कहा,“जिस दिन तुम्हारे पास टेलीग्राम भेजा,उसी दिन भोर में चल बसे।
         भाभीजी एकाएक बैठ गई। मनु भाई के पैर काँपने शुरू हुए थे।स्पष्ट रूप से उनके चेहरे की तरफ देख नहीं पाया। आँखों में आँसू आने लगे।हथेली से मेरे आँसू पोंछते वक्त इधर-उधर दौड़-धूप करते नटखट बेटे-बेटियाँ को डाँटते हुए,तीन साल के बेटे को गोद में खींचते हुए,भाभी जी अस्पष्ट भाव से बोल पड़ीं,“तुम्हारे दादाजी नहीं रहे,तुम लोग बदमाशी मत करो।
        छोटा बेटा माँ की आँखों में आँसू देखकर आश्चर्य-चकित हो गया।नासमझी भरी आँखों से देखते हुए पूछने लगा,“माँ,हमारे दादाजी तुम्हारे क्या लगते हैं?तुम रो क्यों रही हो?”
           तीन साल का एक छोटा बच्चा पूछ रहा हैं,“हमारे दादाजी तुम्हारे क्या लगते हैं?” इस प्रश्न का क्या जवाब देंगी भाभीजी और मन्मथ भाई?एक निष्पाप और नासमझ बच्चे का सवाल दिल को दहला देने वाली छुरी की तरह लग सकता हैं।जैसे वह पूछ रहा हैं,“कहो, नरेंद्र नाथ मोहंती तुम्हारे कौन हैं? पैदाकर,खिला-पिलाकर,लिखा-पढ़ाकरइतने से इतना बड़ा कर घर संसार बसा दिया तुम्हारा,तुम लोगों ने उसके लिए क्या किया?कहो-किस कर्तव्य का पालन किया हैं तुम लोगों ने?
         मैंने धीरे से कहा,“पैर से चप्पल उतार दीजिए,भैया।भाई साहब और भाभीजी ने चप्पलें  उतार दी।
         मैं और नुनु भाई बस में चढ़े। हम दोनों एक साथ बारिपदा तक जाएंगें,वहाँ से वे बालेश्वर जाएंगे और मैं कंरजिआ जाऊँगा,अवश्य नुनु भाई उदला होते हुए बालेश्वर जा सकते  थे,फिर भी पता नहीं क्यों उन्होंने बारिपदा होते हुए जाना चाहा। शायद खूंटा बस-स्टैंड में मनु भैया के पास खडे होने में उन्हें असमंजस लग रहा था या फिर बारिपदा में उनका कुछ काम होगा।
         बस में चढ़ने के बाद मैं अन्यमनस्क-सा हो गया। एक तीन साल के बच्चे ने पूछा,“ मेरे दादाजी तुम्हारे क्या लगते है?” इस छोटे-से सवाल के सामने तुम कितने गरीब हो गए। प्रश्न ने मेरा पीछा किया और मैं प्रश्न से पीछा छुड़ाते-छुड़ाते अतीत में खो गया। दौड़ते हुए मेरे एलबम के उस फोटो के पास पहुँच गया। जहाँ एक सोलह साल का लड़का हाफ पैंट और बनियान पहने गाँव के आँगन में खड़ा है, छाती पर दोनों हाथ बांधे। वह फोटो था मनु भाई साहब का। मन्मथ मोहन्ती : नक्षत्र। ठीक उसी के बाद और एक फोटो .... मनु भाई साहब का दूल्हे के वेश में। माँ से कंनकांजली ले रहे थे। भैया के माथे पर मुकुट धारण किए पंजाबी धोती पहने दूल्हे के वेश में अपना आंचल फैलाए खड़े है माँ के पास। मुझे साफ याद है- बरातियों के साथ शादी में जाते समय मनु भैया ने बरामदे के ऊपर छप्पर के नीचे कनकांजली की रस्म अदा की थी माँ से। कनकांजली देते हुए माँ रो पड़ी थी।बेटे की शादी जैसी खुशी वाली घड़ी में माँ की रोते हुए देख कर मैं आश्चर्यचकित हो गया था।बाद में पता चला कि माँ के लिए वही सबसे मर्मांतक समय होता है।बेटे से माँ सारे बंधन तोड़ते हुए उस समय से दूसरे के हाथों में सौंप देती हैं। अब भी उस फोटो को देखने से माँ की आँखों मे आँसू भर आते हैं। उस के नीचे लिख दिया था मैंने: : नक्षत्र,जो उल्का बन गया।
         उल्का नहीं तो और क्या?जो लड़का खरा सोना था,जो माँ-बाप के मुंह पर जवाब नहीं देता था,कभी अबाध्य नहीं हुआ था,जो पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहता आ रहा था,जिसके  इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ते समय पिता ने अनगिनत सपने देखे थे,जो युवक अपने भाई-बहनों को जान से भी अधिक प्यार करता था,शादी के बाद पत्नी आते ही सब-कुछ भूल गया ..... माँ-बाप,भाई-बहन और सारे कर्तव्य-बोध।क्यों ऐसा हुआ?
        गलती किसकी है?शायद भारतीय समाज की है।यहाँ मूल्य-बोधों का इतना छलावा है, यहाँ चरित्र,कर्तव्य-बोध आदि शब्द इतने बासी हो गए है,फिर भी हम उन सब पर आस्था जमाए बैठे हुए हैं।अंदर ही अंदर स्वार्थ दबोच रहा है हमें।स्वार्थ हमें एक-दूसरे से दूर ले जा रहा है, खून के रिश्तों में खिंचाव महसूस नहीं होता और उस बात को हम जुबान में नहीं ला पा रहे हैं।ये सब छिपाते हुए एक छद्म आवरण पहने भाई मेरा’,‘बाप मेरा,’ बोलते हुए झूठे ममत्व-बोध की दुहाई देते हैं,परंतु इसे कितने दिनों तक रोका जा सकता है? स्वार्थ और झूठ के सुंदर और शून्य मूल्य-बोध के बीच की खींचातानी में स्वार्थ की ही विजय होती है और उस दिन जरूर एक विस्फोट होता है।उस विस्फोट में छद्म मुखौटा टूट जाता है।खरा सोना मन्मथ भैया पराया हो जाते हैं,जान-बूझकर घर से दूर चले जाते हैं अपना एक सुखी संसार बसाने के लिए। 
      मन्मथ भैया।क्या आप सुखी हो पाए? याद है आप बचपन में कविता किया करते थे। बेतनटी से बस में आते-जाते बारिपदा में पढ़ने वाली बंगाली लड़की से आपको प्यार हो गया था। आपकी कविता की पांडुलिपि पढ़कर मुझे पता चला था। इस बात को घर में कोई नहीं जानता था,नहीं आपने बताया था।ऐसी ही कई घटनाएँ जीवन में घटित होती हैं,उन्हें कौन पकड़े रखता है?
      परंतु आप अपने क्लांत क्षणों में अतीत का झरोखा खोलते हुए असहाय महसूस करते थे। खूंटा हाई स्कूल का जीवन, बारिपदा का कॉलेज जीवन, आपकी पुरानी कविता की कुछ लाइनें, बेतनटी से बस से बारीपदा आती-जाती बंगाली लड़की,हमारा घर-ये सभी आपको परेशान नहीं करते हैं? क्या आपको कभी नहीं लगता कि आप जिस जीवन को छोड़कर चले गए,कितना सुंदर था वह! उस जिंदगी में वापस लौटने के लिए कभी आपका मन चंचल नहीं हो उठता?
      फिर भी आप सुख में हैं? भाभीजी का व्हाइट डिस्चार्ज बढ़ता जा रहा था,इलाज कराते- कराते आप थक गए थे,डाक्टर बता रहे थे कि यह बीमारी कैंसर में तब्दील हो सकती है। भाभीजी टूटती जा रही थी।फिर भी आप सुखी हैं? भैया,वह सुख क्या है जिसके लिए आप अपने अतीत,अपने खून के रिश्तों को नज़र-अंदाज कर अलग हो गए?आप मुक्ति चाहते थे?मिली आपको मुक्ति?भैया!उस मुक्ति में सुख हैं?
      सोचते-सोचते कब सीट में बैठ गया था,पता नहीं चला था मुझे।ध्यान टूटते समय अपने आप को सीट पर अकेले बैठे देख जल्द उठ खड़ा हुआ। झरोखे से झुक कर देखा,बारिपदा अभी दूर है।
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      करंजिआ में बस से उतरकर पहले समझ नहीं पाया कि कैसे यह खबर मीना दीदी को दी जाए? कुछ समय तक इधर-उधर घूमने लगा। सिगरेट पीने के बाद चाय की एक दुकान में खड़े हो कर चाय पीने लगा।उसके बाद मैंने सोचा,सीधे दिव्येंदु भैया के ऑफिस में चला जाऊंगा और उन्हें पहले खबर दे दूँगा।तभी दोनों तय कर पाएंगे कि क्या किया जाए। 
      यह सोचकर लिफ्ट इरिगेशन ऑफिस तक पैदल गया।ऑफिस के बाहर बैठे दरबान से पता चला कि दिव्येंदु भैया ऑफिस में हैं।पर्दा हटाकर अंदर जाते ही वे आश्चर्यचकित हो गये और पूछने लगे,“क्यों कविजी! अचानक यहाँ कैसे?”
      मैंने थोड़ा हँसने की कोशिश की,पर हँस नहीं सका।टेबल के पास चला गया।उन्होंने बैठने के लिए कहा,पर मैं नहीं बैठा।मैंने कहा,“नहीं।मैं बैठ नहीं पाऊँगा।
      वे विस्मित हो गए।पूछने लगे,“क्यों? क्या बात है? क्या हुआ है तुम्हें?”
      अब मैंने सीधे कह दिया,“पिताजी एक्सपायर हो गए।मेरा जवाब सुनकर वे कुछ देर तक फ्रीज हो गए। मुंह से आवाज नहीं निकली। कुछ देर बाद उठकर खड़े हो गए। मेरे पास आकर मेरे कंधे पर हाथ रखा- सांत्वना का हाथ और पूछा,“यह सब कब हुआ?कैसे हुआ? तुमने मीना को बताया?”
      उनके सांत्वना के हाथ के नीचे जैसे मेरा कंधा पिघल रहा था शोक मेँ। मैंने टेबल को जकड़ लिया।पैर काँप रहे थे। मैंने उत्तर दिया,“नहीं,अब तक नहीं गया हूँ घर की तरफ। उनकी तो एडवान्स स्थिति है। खबर देना उचित होगा कि नहीं,समझ में नहीं आ रहा है।
      वे कुछ समय तक चुप्पी साधे सोचने लगे। मेरी पीठ थपथपाते हुए बोले,“चलो,घर चलते है।यह कहकर मुझे खींचकर बाहर ले गए। रास्ते में कहने लगे,“तुम मीना को कुछ मत कहना, सिद्धि।इस हालत में यह खबर सुनकर उसे सदमा लग सकता है।इसके अलावा,यह खबर सुनने से शायद वह गाँव जाने की जिद्द कर सकती है।अब उसके लिए बस में जर्नी करना खतरे से खाली नहीं है। पिछली डिलीवरी सीजेरियन हुई थी-स्टिच अभी तक कमजोर है।
      मुँह लटकाए मैं चलने लगा।कुछ सोचने की स्थिति में नहीं था।क्वार्टर के पास पहुँच कर मैं थोड़ा पीछे हो गया। जीजाजी जब कालिंग-बेल दबा रहे थे,मैं दरवाज़े की आड़ में दीवार का सहारा लेकर खड़ा था।दरवाजा खोलकर मीना दीदी ने पूछा,“इतनी जल्दी कैसे आ गए?” जीजाजी ने हँसते हुए कहा,“सिद्धि आया है।
      अब मुझे सामने आना पड़ा।आगे बढ़ते हुए मीना दीदी के चरण-स्पर्श किए।याद आया कि मैंने अभी तक जीजाजी के चरण-स्पर्श नहीं किए थे,परंतु इतनी सारी बातचीत करने के बाद चरण-स्पर्श करना ठीक नहीं होगा,सोचकर और चरण-स्पर्श नहीं किए।  
      मीना कहने लगी,“ये क्या हालत बनाकर रखी है,सिद्धि! तेरे शर्ट-पैंट की हालत देखी हैं? इन कपड़ों में घूमने में शरम नहीं आती?”
       मैं चुप रहा और थोड़ा-सा शरमाने का अभिनय किया।मीना दीदी की नज़र मेरे पैरों पर पड़ी तो उसने पूछा,“बात क्या है? तेरे पैरों की चप्पलें कहाँ गई?”
       क्या बोलता मैं!मुझे इस असुविधा से उबार लिया था जीजाजी ने।कहने लगे,“पागल लड़का है!रास्ते में चप्पल खो दी।
         मीना दीदी हँसने लगी,“ तेरे पैर से चप्पल खो जाती हैं? तू अब भी छोटा बच्चा है? कब बड़ा होगा?कविताएं करते-करते तेरा दिमाग खराब हो गया।
         हँसते हुए मीना दीदी अंदर चली गई।उन्हें अब भी पिताजी की मृत्यु के बारे में पता नहीं।मैं ड्राइंग रूम में रुक गया।सिर्फ रुक नहीं गया,पीछे की ओर चला गया।पीछे-पीछे अतीत की ओर चला गया,अलबम के शुरूआती पृष्ठों के कैबिनेट साइज फोटो के पास।चौदह साल की दो वेणी वाली लड़की टेबल के पास खड़ी है। टेबल पर कई कप ओर शील्ड पड़े हुए हैं। नीचे लिखा है:फीके चेहरे वाली लड़की।
         वही चौदह साल की लड़की जैसे कहीं खो गई है,जो गाना गा रही थी,कंपटीशन में भाग लेकर कप जीतकर ले आती थी,जो पिताजी की बहुत प्यारी थी और संगीत विद्यालय से लौटते हुए पिताजी से एक आना रोज माँगा करती थी।
          वही लड़की खो गई है और उसी के पास अलबम में दूसरा चेहरा उभरा।तीस साल की लड़की-एक बहू एक बच्चे को गोद में पकड़े उसे चूमते हुए कैमरे की ओर देख रही है,यह फोटो भी मीना दीदी की है।दोनों फोटो के बीच अलबम में मात्र एक इंच का फासला।लेकिन एक इंच की दूरी को पार करने के लिए मीना दीदी को तेरह-चौदह साल इंतजार करना पड़ा,इन तेरह-चौदह सालों के अंदर कितनी कहानियाँ,कितनी स्मृतियाँ,कितनी घटनाएँ और कितनी अनुभूतियों को सजाकर रखी होगी अपने मन के अंदर।
         मीना दीदी बारिपदा के एमपीसी कॉलेज में पढ़ते समय से दिव्येंदु भैया से प्यार कर बैठी थी।उसके बाद दिव्येंदु भैया बुर्ला चले गए इंजीनियरिंग पढ़ने,परंतु दोनों एक दूसरे से दूर नहीं गए।दिव्येंदु भैया इंजीनियरिंग पास करते समय मीना दीदी कॉलेज छोड़कर गाँव में बैठी हुई थी। अकस्मात एक दिन मीना दीदी ने जिद्द पकड़ी कि वे दिव्येंदु भैया से ही शादी करेंगी।दूल्हे के हिसाब से दिव्येंदु भैया योग्य-पात्र हैं,इंजीनियर हैं।परंतु घर की ओर से आपत्ति जताई गई। लीना दीदी के रहते छोटी बहन की शादी कैसे हो सकती है।लीना दीदी तब लेक्चरर बन गई थी।उम्र बढ़ती जा रही थी परंतु,वह ज्यादा अंतर्मुखी,जिद्दी,साँवली,फैशन से विमुख और सीरियस थी। वह अपने-आप अपना भविष्य ढूंढ लेने की स्थिति वृमें नहीं थी।इधर पापा सेवा-निवृत्त,भोले-भले,दीर्घ-सूत्री और निर्विकार थे।भाई लोग अपने-अपने घर-संसार को लेकर मस्त थे,व्यस्त थे। लीना दीदी के लिए दूल्हा ढूंढेगा कौन?
         मीना दीदी ने लीना दीदी की शरण ली।पापा और भैया के गहरे असंतोष के बावजूद उन्हें राजी कराकर मीना दीदी की शादी करवादी उन्होंने।बारिपदा में कॉलेज में पढ़ने वाली वही मीना दीदी,दिन के दोपहर में दिव्येंदु के पत्र की प्रतीक्षा में अशान्त होकर घर से बाहर के बरामदे तक दौड़ने वाली मीना दीदी,रात को किताबों के अंदर दिव्येंदु का पत्र रखकर पढ़ने वाली मीना दीदी, शीशे के सामने माथे पर ओढ़ना डालकर,खड़ी होकर फिर से शरमाने वाली मीना दीदी और आज एक बच्चे की माँ बनने के बाद प्रेगनेंट हुई मीना दीदी के अंदर जैसे काफी फासला है।अतीत और वर्तमान के बीच इतना बड़ा फासलाक्या इसी फासले का नाम ज़िंदगी है?
       मैं ड्राइंग-रूम में ही रुक गया था।मीना दीदी चिल्लाई,“ए सिद्धि!इधर आओ। कहाँ से आया? गाँव गया था? पापा मम्मी कैसे है?”
         मेरे मुँह से शब्द ही नहीं निकले। दिव्येंदु भैया ने बात बदलते हुए पूछा,“क्या  कविजी, कविता लिखने का क्या हुआ?”  
         दिव्येंदु भैया का यही एक गुण है।मुझसे मिलते ही कविता-लिखने की बात छेड़ बैठते हैं। इसलिए नहीं कि वह आधुनिक कविता के सुधी पाठक है,फिर भी वह सोचते हैं कि मेरे साथ बात करने के लिए कविता ही एकमात्र विषय-वस्तु है।मीना दीदी ने पूछा,“तू तीन-चार दिन रहेगा तो यहाँ?”
       मैंने कहा,“मैं एक घंटे के अंदर यहाँ से चला जाऊंगा।मीना दीदी गुस्सा गई।
कहने लगी,“तब आने की क्या जरूरत थी।हर बार आएगा और चेहरा दिखाकर चला जाएगा। तुम लोग मेरे पास आते क्यों नहीं? देवदत्त तो बारिपदा में है,कंरजिआ उसके लिए कितनी दूर है?”
        मैंने कहा,“कसम खाकर कहता हूँ मीना दीदी,मैं बाद में जरूर आऊँगा और तीन-चार दिन बिताकर जाऊंगा।तब तुम्हारे गाना सुनूंगा,मर्जी के अनुसार।
          मीना दीदी थोड़ी देर के लिए चुप हो गई और कहीं खो गई।उसके बाद बोली,“बहुत दिनों से गीत नहीं गाई हूँ,पता नहीं,शायद गीतों को भूल गई हूँ।
लंबी साँस छोड़ने के बाद कुछ देर तक चुप रहते हुए कहने लगी,“चलो नहा-धो लो। मैं खाना बना रही हूँ।
         खाना खाकर जाते समय मीना दीदी रोक रही थी;परंतु दिव्येंदु भैया ने कहा,“शायद किसी जरूरी काम से जा रहा होगा।देखो, कैसी हालत में आया है।दाढ़ी बढ़ी हुई है,गंदे पैंट-शर्ट।हाथ खाली।उसे बारिपदा घूमकर आने दो।
         मीना दीदी ने और ज़ोर नहीं डाला।मेरे चरण-स्पर्श करते समय वह कहने लगी,“तबीयत का ख्याल रखना।धूप में काफी घूम रहे होनहीं?चेहरा एकदम काला हो गया है।दाढ़ी क्यों नहीं बना रहा है? टीपटाप रहना है।देख,जैसे चप्पलें और खो न जाएँ।”     
        मुझे छोड़ने दिव्येंदु भैया बस-स्टैंड तक आए।भयकंर धूप में पक्की रोड काफी तप गई थी।नंगे पैर चलना तकलीफ़देह था,इसलिए रास्ते के किनारे मिट्टी पर चल रहा था मैं।दोनों चुप थे।चुप्पी के बीच दोनों तैर रहे थे।भाषा ढूंढे नहीं मिल रही थी,पर दोनों एक ही बात सोच रहे थे।पापा की मृत्यु की बात।मृत्यु का समाचार किसी भी मनुष्य को कुछ समय के लिए वाक्शून्य कर देता है। 
      बस-स्टैंड में मैंने दिव्येंदु भैया से पूछा,“मीना दीदी से कैसे बोलेंगे?”वे कुछ देर के लिए चुप हो गए। बाद में कहने लगे,“देखते है,क्या होता है।” 
      उसके बाद दोनों चुप हो गए।रास्ते में एक आदमी ने दिव्येंदु भैया को नमस्ते किया।हम दोनों चुपचाप। एक रिक्शे वाले ने घंटी बजाते हुए रास्ता काटा।हम दोनों चुप थे।एक मारवाड़ी ने हँसते हुए टूटी-फूटी ओड़िया में दिव्येंदु भैया से कुशलता जानने की जिज्ञासा की तो उन्होंने सिर हिला दिया,मगर हमने चुप्पी नहीं तोड़ी।
      बहुत देर के बाद दिव्येंदु भैया ने कहा,“घर में यहाँ की स्थिति के बारे में बता देना। मैं टूठ में नहाने के समय जा सकता हूँ।लेकिन मेरे लिए काफी दिक्कतें है।मीना एडवान्स स्टेज में है।पहले सीजेरियन हुआ था।
      मैं चुप,वह भी चुप।नीरवता के भीतर लोगों की भीड़,झगड़े,बस,रिक्शे,पेड़-पत्ते,बालू के मृत शब्द कोई मायने नहीं रखते।अचानक दिव्येंदु जीजा ने कहा,“लो तुम्हारी बस आ गई।
      मैंने झुककर उन्हें चरण-स्पर्श किया।पहुँचने के बाद चरण-स्पर्श करने का मौका नहीं मिला था।कंधे पर हाथ रखते हुए उन्होंने कहा,“बस,बस हो गया।
      सिर्फ मीना दीदी को छोड़कर सभी घर आ गए थे।पहले-पहले हर कोई बस-स्टैंड से उतर कर घर में पहुँचते ही रोना-धोना शुरू कर देता था।वह रोना हृदय-विदारक होता था और हृदय  को पिघला कर ले जाता था एक शोक-राज्य में।इस प्रकार की परिस्थिति में मैं प्रत्येक बार गाँव की ओर निकल जाता था। मुझे पता था कि रोते-रोते माँ बेहोश हो जाएँगी।उनके चेहरे पर पानी छिड़का जाएगा और उसके बाद पापाजी की मृत्यु की डिटेल्स बताई जाएगी।
      इन चीजों का सामना करने का मेरा साहस नहीं था।मृत्यु ऐसी एक दुर्घटना हैं,जिसके सामने मानव के सारे मूल्य-बोध,व्यक्तित्व और जीवन जीने का रहस्यमय अभ्यास भी तुच्छ लगता है।मैं एक आम आदमी कहानी लिखता हूँ,प्यार करता हूँ,सुखी-संसार के सपने देखता हूँ, अपना अस्तित्व खोजता हूँ और अस्तित्वहीनता की स्थिति में टूट जाता हूँ।अंदर ही अंदर मैं इतना कमजोर हो गया हूँ कि सख्त होकर खड़े होने की ताकत मुझमें नहीं है।कैसे सह पाता मैं इतने शोकग्रस्त सत्य को?    
      अभिन्न नें मुझे उस दिन बुलाकर कहा,“सिद्धि! ताऊजी को क्या हुआ था? रुपए-पैसे की खूब कमी थी क्या? टैक्सी में ले जाते समय वे प्रलाप कर रहे थे:बारह रुपए,बीस रूपए,चौदह रुपये सिर्फ छियालीस रुपए,अभिन्न!मेरे पास और रुपये नहीं है।मैं गरीब हो गया हूँ।ऐसा प्रलाप क्यों कर रहे थे?”
      मैं चुप हो गया।पापा ने कुछ दिनों पहले रुपयों के लिए मुझे खत लिखा था।मैंने चिट्ठी में लिखा था कि देवदत्त को रुपए भेजने के कारण मेरे लिए और रुपए भेजना संभव नहीं है,पापा ने दूसरे बेटों को चिट्ठी भेजी थी रुपयों के लिए।सोमू भैया ने सिर्फ पचास रुपए भेजे थे।अपने जवाब में लिखा था कि मैं नया घर बसाने जा रहा हूँ।एस्टाबिल्समेंट खर्च बढ़ गया है-और आगे रुपए नहीं भेज पाऊँगा।मनु भैया ने चिट्ठी का जवाब ही नहीं दिया था।बड़े भाई साहब ने लिखा था कि इस दौरान उनकी साली आई थी,उन्हें साड़ी वगैरह देने में काफी खर्च हो गया हैं और आजकल महँगाई भी तो हैं।अतः रुपए भेजना संभव नहीं होगा।
      जानता हूँ,बारह रुपए में माँ की दवाई,फाइन के साथ रेडियो के लाइसेंस बाबत बीस रुपए और रेडियो की मरम्मत के बाद सिर्फ चार रुपए बचते हैं और बचे-खुचे रुपए उनके टाइफ़ाइड के कैप्सूल खरीदने में व्यय हो गए थे,गर्मी में घर की छप्पर ठीक करनी पड़ेगी।खेती का समय आ रहा है,उसके लिए भी खर्च लगेगा।भयंकर खर्च।सोमू भाई की शादी में एक साल का धान खर्च हो गया था।अपने-अपने शहर में रहते हुए इन सारी समस्याओं को नज़र-अंदाज करते हुए किस तरह स्वार्थपरता के साथ एक-एक पोस्टकार्ड में अपनी-अपनी असहमति जताते हुए निश्चिंत हो कर रह गए थे हम लोग!
      क्या मैं कोशिश करके पचास-सौ रुपये भेज नहीं पाता!महीने में तो सिगरेट के धुएँ में पचास-साठ रुपए फूँक देता हूँ। होटल में अनेक अनावश्यक खर्च करता हूँ।सोमू भाई क्या तकलीफ में गुजारा कर हर माह पचास रुपए भेज नहीं सकते थे,तब नास्तिवाणी सुनाने का क्या अर्थ?बड़े भाई भी अपने टेपरिकार्डर की कैसेट खरीदना कुछ दिनों के लिए बंद कर देते तो घर में रुपए भेज जा सकते थे।अपनी साली के पीछे खर्च करने वाले रुपए कुछ बचा सकते थे, मनु भाई भी .....
      लेकिन इन सारी चीजों के लिए किसी की दोष नहीं दिया जा सकता।किसे दिया जा सकता है? हम एक-दूसरे से इतना अलग हो गए हैं और अपनी-अपनी सीमा में बंध कर रह  गए है कि किसी दूसरों के दुख समझने की स्थिति में नहीं है।सभी अपना-अपना सुख खोजते हुए,अपनी-अपनी प्रेस्टीज़ बचाते हुए,एक दूसरे से अलग हो गए हैं।हममें से किसी को याद नहीं था कि पाप ने हमें इंसान बनाने के लिए,पढ़ाने के लिए,अपनी सारी सुख-सुविधाओं की उपेक्षा करते हुए,ब्याज पर रुपए लाकर अपने खाने के खर्च में कटौती कर,एक सपना देखा था कि हम सब प्रतिष्ठित आदमी बन जाए तो उनका सारा दुख दूर हो जाएगा।उनके सपने को कितना सार्थक किया हम लोगों ने?
      पापा गोरू महिषाणी में टिस्को कंपनी के एक क्लर्क थे उस समय तीन-चार बहनों को बाहर हॉस्टल में रखकर पढ़ा रहे थे।अपने वेतन का पूरा हिस्सा अधिकांश समय बेटे-बेटियों के पास भेजे देते थे।फिर भी घर का गुजारा हो जाता था-जैसे-तैसे।     
      जब बड़े भैया की नौकरी लगी,गोरू महिषाणी की खदान बंद हो गई।पापा अपने गाँव चले आए। प्रोविडेंट फ़ंड के पैसों से अपना मकान बनाया। दो कमरों वाला आटू-घर।जिसके चारों तरफ बरामदा और ऊपर पुआल का छप्पर।
      हम सब शहर से आए थे। गाँव के कम ऊँचाई के छप्पर वाले घर के अंधेरे कमरों में हम लोगों का दम घुट रहा था।हमारे नए घर की पुआल की छत बहुत ऊपर थी।घर में बहुत बड़े-बड़े झरोखे लगाये गए थे।पापा का सारा रुपया उस घर को बनाने में खर्च हो गया था। फिर भी घर की प्रतिष्ठा के दिन गृह-प्रवेश के बाद पापा ने कहा था,बहुत दिनों बाद सपना सार्थक हुआ मेरा।अपने घर में रहने जैसा सुख और कहीं नहीं।
      ऐसा कहते समय पापा की आँखों में एक चमक आ गई थी।आज उसी घर को अपने हाथ से बनाए निर्भय आश्रय छोड़कर पापा चले गए।पीछे रह गई उनकी सुख-स्मृतियाँ और मेरे मानस-पटल में आनंद से चमक रही उनकी दोनों आँखों की छबि।
      पापा के पास रुपयों का एक बक्सा था।एक बार गाँव में रुपयों के बक्से को लेकर बैठे हुए देखा था। उस समय बड़े बेटे के रुपयों पर निर्भर कर रहे थे वह।मनु भैया नौकरी कर रहे थे और सोमू भाई और लीना दीदी की पढ़ाई का खर्च उठा रहे थे।एक बार शाम को रुपयों का  बक्सा खोलकर कुछ खुचरे पैसे गिनते हुए देखा था।कितने होंगे?ज्यादा से ज्यादा दो-तीन रुपए  होंगे।फिर भी वे बार-बार खुचरे पैसे गिन रहे थे।
      यह दृश्य देखकर मैं असहाय हो रहा था।मैं जानता था कि भाई के पैसे एक हाथ से आते हैं और दूसरे हाथ से खर्च हो जाते हैं।अब इतने ही खुचरे पैसे बचाकर महीने का खर्च चलाना पड़ेगा। उस समय गाँव में माताजी-पिताजी के अलावा मैं और देवदत्त रहा करते थे।खूंटा हाईस्कूल की नवीं या दसवीं कक्षा का छात्र था मैं। देवदत्त गाँव की मिडिल स्कूल का छात्र था।
      आज भी वह दृश्य जब मेरी आँखों के सामने तैर आता है तो मैं असहाय हो जाता हूँ। पिताजी पैसा का बक्सा खोलकर बैठे थे। दो-तीन रुपयों के खुचरे पैसे गिन रहे थे। पिताजी के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ उभरी हुई थी। यह दृश्य याद आते ही मैं दुख से टूट जाता हूँ। ऐसा लगता है कि मैं पूरी तरह अयोग्य और अक्षम हूँ। पिताजी को मेरे और हमारे ऊपर किए गए भरोसे का पुल टूट रहा था जबकि हम सब कुछ नहीं कर पा रहे थे। क्या इसलिए पिताजी अपने सीने में नाराजगी लिए चले गए?
      गुस्सा सभी के ऊपर। बेटों के ऊपर,माँ के ऊपर,ऐसे कि लीना दीदी के ऊपर भी। पिताजी को पता था,माँ के बक्से में एक सौ रुपया था। माँ ऐसे ही बचाकर रखती थी समय-असमय में काम आएगा सोचकर। पिताजी हमेशा माँ के ऊपर ज़ोर करते थे वह रुपए लेने के लिए। यह एक मजेदार पारिवारिक खेल है। माँ ने छोटे काँच के जार या अमूल के पुराने डिब्बे में चीनी से लेकर तेल तक थोड़ा-थोड़ा संचय कर रखती थी और पिताजी एक दिन माँ की अनुपस्थिति में सब देखकर बाहर निकाल कर ले आते थे अंधेरे कमरे से- माँ इस बात पर गुस्सा करती थी और कहती थी समय-असमय पर कभी काम आएगा सोचकर वह जमा कर रखी थी और पिताजी उसी को भी रहने नहीं देते। पिताजी उसे मनाते हुए इस बार काम चला लेने के लिए कहते थे और अगले महीने बेटों से रुपए आने पर वह इन चीजों को भर देंगे। इस तरह का एक लुका-छुपी का खेल पिताजी और माँ के भीतर चलता था।
      अब पिताजी को पैसों की जरूरत थी। लड़कों ने कोई मदद करने के लिए तैयार नहीं थे।बात  केवल एक महीने की नहीं थी। भविष्य की सुरक्षा की बात थी। रुपए नहीं आने से खेती कैसे होगी? दुकान की उधार कैसे चुकाएंगे? पिताजी ने भीषण दुश्चिन्ता में पड़ कर माँ से पैसे मांगे। माँ के पास था: लेकिन भविष्य में काम आएगा सोचकर,उसने मना कर दिया था। कहने लगी: रुपए उसने बहू के हाथ में दे दिए परदेश जाते समय। लेकिन पिताजी को मालूम था कि वह झूठ बोल रही है। दोबारा और पैसे नहीं मांगे। केवल चेहरा लटका कर बहुत समय तक बैठने के बाद,अस्पष्ट रूप से, “दुनिया के सारे लोग स्वार्थी हैं।”- यह एक शब्द माँ ने सुन लिया था।
      पिताजी के इधर-उधर की बातें शुरू हुई थी कि उन्हें एक बारहसिंघा ने मार दिया हैं। मुनु भाई और अभिन्न जब टैक्सी बुलाने गए थे,पिताजी घर में प्रलाप कर रहे थे- बिस्तर पर लेटे हुए। माँ अकेली- बुरी तरह से भयभीत,त्रस्त,क्या करेंगी,समझ नहीं पा रही थी,बक्से से कुल जमा एक सौ तीस रुपए लाकर पिताजी के हाथों में पकड़ा दिए थे। ऐसी अस्वस्थ हालत में भी, बारह रुपए, बीस रुपए और चौदह रुपए का दयनीय हिसाब करते हुए पिताजी ने रुपए फेंक दिए थे और कहने लगे थे,“मुझे यह सब नहीं चाहिए।माया-मोह सब झूठा है। मैं गरीब हो गया। मेरा सब खत्म हो गया। मेरा सब-कुछ टूट गया।सब-कुछ। घर-संसार। सब-कुछ।
      इन बातों में से कुछ मैंने मुनु भाई से सुना हूँ और कुछ माँ से। कुछ दिन पहले-पिताजी जब बुखार में पीड़ित थे,लीना दीदी की तरफ से एक पैकेट रजिस्टर्ड होकर आया था।उससे पहले एक पोस्टकार्ड भी आया था। उसमें लिखा हुआ था: रज-पर्वआ रहा है। आपके लिए लूँगी,बनियान और धोती भेजी हूँ। मैंने सोचा था, माँ के लिए एक संबलपुरी साड़ी और देवदत्त के लिए शर्ट-पैंट पीस। ये सब रज-पर्वपर लेकर जाऊँगी। लेकिन घर के दरवाजे तो मेरे लिए बंद हो गया है। मेरा और क्या अधिकार है घर पर? और कभी घर नहीं जाने का प्रतिज्ञा करते हुए ये सब डाक से भेज रही हूँ। आशा करती हूँ,खुश होंगे।
आपकी प्रणता
लीना
      चिट्ठी पाकर पिताजी की आँखें पहले भर आई थीं। बाद में भीषण गुस्सा होकर पोस्टमैन को पैकेट वापस ले जाने के लिए कहा था। लेकिन माँ, अभिन्न और नुनु भाई के द्वारा पिताजी को समझाने पर अंत में पार्सल के ऊपर हस्ताक्षर कर पोस्टमैन से लिए थे। पैकेट को खोला नहीं था। अभी भी ऐसे ही पड़ा हुआ है। पिताजी ने एक आंतरिक गुस्से से माँ को कहा था, इस पैकेट को रख दो, मेरे मौत के बाद खोलना। बेटी ने धोती भेजी है, तुम्हारी काम आएगी।
      माँ ने पिताजी को धमकाते हुए कहा,“शाम के समय आप इस तरह की अमंगल बातें क्यों कर रहे हो?”
         थके-हारे पिताजी दीवार का सहारा लेकर बैठे हुए थे,आकाश की ओर देखकर उनकी आंखें छलछला गई।
      इस रुद्ध अभिमान के पीछे भी एक कहानी है।कहानी जैसी कोई चीज नहीं है,मगर  परिस्थितियाँ एक साधारण कहानी को असाधारण बना देती हैं इस परिवेश में। कहानी इस प्रकार है कि विगत कुछ महीने पहले सोमू भैया की शादी के समय हुए किसी तुच्छ कारण की वजह से लीना और सोमू भैया के बीच एक झगड़ा हुआ था।लीना हर समय ऐसा ही करती थी। उसका मूड समझ पाना बहुत मुश्किल है।किस बात को लेकर कब-कहाँ झगड़ा करेंगी कहना मुश्किल है।वह भयंकर जिद्दी है,बचपन से ही।हमारे निम्न मध्यवर्गीय परिवार में किसी भी बच्चे के मानसिक विकास की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता था।लीना के मन में बचपन से जो कॉम्प्लेक्स पैदा हुआ,वह बाद में एक विशाल पेड़ की तरह उसके जीवन में छा गया।
      मेरे अलबम में एक फोटोग्राफ है। बहुत सीधी-सादी,बिना किसी फैशन के,देखने से कोई  कहेगा यह जरूर एक अध्यापिका होगी,जबकि उसकी दोनों आंखों में बुद्धिमत्ता की निशानी, तेजस्वी चेहरे पर सुस्पष्ट असंख्य भाव और क्रोध से उत्तप्त अंतर्मुखी लड़की वह लीना दीदी ही थी। होठों के नीचे मैंने लिखा था काल्पनिक बारूद की गंध।उसे हर दिन पुरुष जाति पर विशेष गुस्सा आता था।भाइयों की शादी के बाद घर से धीरे-धीरे दूर होकर अपने घर-संसार के भीतर रहने लगी थी,अपनी सीमाओं से बंधे स्वार्थी भाइयों को वह अच्छे से पसंद नहीं कर पाती थी। पिताजी और भाइयों को पुरुष जाति का प्रतिनिधि मानकर उनके ऊपर सारा गुस्सा निकालती थी।हाँ,छोटे भाई के हिसाब से मुझे, सोमू भैया और देवदत्त को भी उसके गुस्से का हिस्सा बनना पड़ता था?मगर लीना दीदी का सबसे ज्यादा गुस्सा पिताजी के ऊपर था! जबकि पिताजी लीना दीदी को ही सबसे ज्यादा प्यार करते थे।लीना का पिताजी के ऊपर सबसे ज्यादा गुस्सा करने का कारण उसकी शादी नहीं होना था अथवा इस दिशा में कोई कोशिश न करने के कारण वह पिता को मूल अपराधी मानती थी,अवश्य पिताजी भी अपने इस अपराध-बोध जनित असहायता पर काबू पाने के लिए प्रतिक्रिया-स्वरूप लीना दीदी के प्रति उनका स्नेह कुछ ज्यादा ही होता था। जबकि लीना दीदी कभी भी उस स्नेह को समझ नहीं पाई।हर दिन पिता के मन को चोट पहुंचाकर एक मानसिक सुख और आत्मतृप्ति अनुभव करती थी वह।     
      सोमू भाई की शादी के समय किसी छोटी-सी बात को लेकर लीना दीदी और सोमू भैया के भीतर झगड़ा चल रहा था,उस समय पिताजी ने एक बार बीच के आकर कहा,“बहुत काम पड़े हुए हैं,काम करो।तुम लोग आलतू-फालतू बहस में समय बर्बाद मत करो।
`     बात छोटी-सी थी।पिताजी को उनके झगड़े की विषय-वस्तु के बारे में जानकारी नहीं थी और वे किसी को सपोर्ट भी नहीं कर रहे थे।जबकि लीना दीदी ने उस सामान्य बात को पकड़ कर गाँठ बांध ली।वह कहने लगी,“पिताजी नहीं चाहते हैं कि मैं इस घर को आऊँ, अगर आती भी हूँ तो नौकरानी की तरह काम करूँ,जो कोई कुछ भी कहे उसकी बात को सहन करूँ,मुझे अपना सारा जीवन भाइयों की नौकरानी बनकर बिताना होगा।
      लीना दीदी का यह गुस्सा मुझे कई बार बचपना-सा लगता था।इतिहास की एक अध्यापिका,जिसमें सोचने-समझने की शक्ति है,वह किस तरह बच्चों की तरह बहक कर गुस्सा कर सकती है।मुझे इस बात पर कई बार आश्चर्य होने लगता था।
      लीना दीदी के इस तरह के सारे आरोप पिताजी को वास्तव में पीड़ा देते थे।मगर उन सभी को तुच्छ समझकर पिताजी भूल जाते थे,उसका राग-क्रोध मिटाने की कोशिश करते थे, मगर लीना दीदी को एक बार गुस्सा आ जाता था तो उस गुस्से का कारण,भले ही,कितना भी तुच्छ क्यों न हो,अनेक दिनों तक यहाँ तक कि सारे जीवन तक वह भूल नहीं पाती थी और इसलिए शादी के इतने दिनों के बाद भी उसका पिताजी के पास कपड़ों का पार्सल भेजने का अर्थ यह था कि वह अभी तक उस गुस्से को भूल नहीं पाई है,यह बात याद दिलाकर पिता के हृदय में आघात करना उसका मकसद था।उससे भी क्या कोई बड़ा हो सकता था!पिताजी ने अपने जीवन-काल के दौरान लीना दीदी पर एक बार गुस्सा किया था,जो शेष-पर्यंत आत्मघाती रहा।
      शाम के समय परिवार की एक बैठक हुई,इनफार्मल।सारे भाई,बड़े पापा,बड़े बहनोई, अभिन्न,दादा,नुनु भाई और लीना दीदी को लेकर की गई बैठक का संचालन खुद माँ कर रही थी। देवदत्त ने पहले ही दरी बिछा दी थी,जिस पर पुरुष लोग बैठ गए,जबकि माँ,लीना दीदी,बडी दीदी घर के चौखट के पास बैठ गए थे। मीटिंग शुरू होने से पहले ही बड़ी दीदी उठकर चली गई,अपनी बेटी को खाना खिलाने के बहाने। छोटी भाभी घर के भीतर थी,केवल बड़ी भाभी बीच-बीच में पैंतरा बदलती रहती थी।
      मीटिंग के एजेंडा के विषय इस प्रकार थे,जैसे माँ के भविष्य और पिताजी की शुद्धि-क्रिया के खर्च के बारे में।पहले विषय पर सभी एक मत हो गए कि पिताजी की मृत्यु के बाद माँ को गाँव में अकेली नहीं छोड़ा जाएगा।माँ को बेटे और लीना दीदी सभी अपने साथ ले जाने का आग्रह करने लगे।बड़ी दीदी का इस बातों में कुछ कहना नहीं था,वह चुपचाप थी।
      
 
 
 




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