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दिग्वलय

दिग्वलय “ दिल्ली के लोग बहुत बडे ठग होते हैं न , अंकल ?” पिंकी ने पूछा , काश ! मैं उसको कह पाता कि ऐसी बात नहीं है बेटी। मनुष्य सब जगह समान होते हैं। दिल्ली के हो या भुवनेश्वर के। न्यूयार्क के हो या कोलंबो के। मेरी स्कूल मास्टर वाली बुद्धि से पिंकी को समझाना उचित था , वास्तविक चीज होती है विश्वास । मनुष्य के ऊपर मनुष्य का विश्वास रहने की बात। जब मनुष्य के ऊपर मनुष्य का विश्वास टूट जाता है , इस धरती सही मायने में धरती नहीं रह जाती है। मगर मैं कह नहीं पाया. पिंकी के अंकल वाली आवाज के पास ही अटक गया।अंकल। जैसे मैं उसका बड़ा पिताजी नहीं हूँ। उसका पिता प्रकाश मेरा छोटा भाई होता है। वह मेरा कुछ नहीं है। यह बात सही है , पिंकी के साथ मेरी घनिष्ठता केवल दो दिन की थी।गांव की मिट्टी को कभी उसने छुआ नहीं। उसे मूल रूप से ओडिया नहीं कह सकते। उसकी ग्यारह वर्ष की यादों में मेरा कोई स्थान नहीं। शायद उसके सामने मैं बड़े पिताजी की जगह अंकल के रूप में ग्रहणीय था। कल मैं और पिंकी आगरा गए थे। प्रकाश ने ही सारी व्यवस्था कर दी थी। गरमी के दिनों