यात्रा
यात्रा
गरम कंबल की तरह लिपटी हुई थी नींद। बाहर में कोई
हल्ला-गुल्ला कर रहे हैं क्या? कहीं सायरन
बजते हुए दौड़ रही थी पुलिस गाड़ी। कहीं दूर दमकल गाड़ी खड़ी होकर घंटा बजा रहीं थी,अस्वस्तिकर शब्दों से उठकर बैठ गया सारा घर। पुराने
बल्बों की मद्धिम रोशनी। नीचे दरी बिछी हुई थी,पास में टूटून सो रहा था कुकड़ू बनकर। याद आया, यह घर नहीं है सम्बलपुर बस स्टैंड के ऊपर मंजिल पर
बना प्रतीक्षा रूम है। जिसके सारे खाट किसी ने निकाल दिए? अथवा पहले से ही नहीं थे? कितने बजे हम आए थे,हमें ढेंकानाल जाना था तो? इस सम्बलपुर
बस स्टैंड का मतलब? मैं बाहर आ
गया। बस स्टैंड खाली था,बस स्टैंड
पर कोई जाग नहीं रहा था। गहरी नींद में यात्रीगण केसर रंग की यूनिफॉर्म पहनकर सो
गए थे,शांति से।
टेबल पर पोर्टेबल चाय बननेवाला दुकानदार भी कहीं चला गया था। कहाँ गए सारे
लोग और सारे निद्रालु कुत्ते? सम्बलपुर के
बस स्टैंड के विश्राम भवन के दूसरी तरफ था,गैरेज। कटक जाने के ‘एक्ज़िट’ रास्ता की तरफ आया कैसे? रेस्ट हाउस के कॉरीडोर से देखा– दोनों किताबों की दुकाने भी बंद है। दूधिया
उजाले के नीचे अश्विनी खड़ा था। शरीर पर पुलिस की वर्दी। अश्विनी
मिश्रा, कवि, समाज का संपादक। टिटिलागड कहीं पर तहसीलदार था? ऐसी पुलिस वर्दी में?
अश्विनी ने मेरी आवाज़ सुनकर ऊपर की तरफ हाथ उठाकर हिलाया। ऊपर नहीं आ
पाऊँगा जगदीश। अभी मैं ड्यूटी में तैनात हूँ। तुम तो ओ.ए.एस में थे अश्विनी।
तुम्हारे शरीर पर पुलिस वर्दी कैसे? छोड़ दी ओ.ए.एस. की नौकरी,बहुत बेकार
कूजी नेता से लेकर मजिस्ट्रेट,एस.पी. तक
सब ऊपर हावी होते हैं। मैं नीचे आ गया। लेकिन कहाँ अश्विनी। उसकी जगह था रवीन्द्र
सिंह। यह उत्तर भारतीय सज्जन हमारे कार्यालय में लिपिक का काम कर रहा था। केवल
हल्की-फुलकी जान-पहचान थी। एक बार उसने मुझे कार से झारसुगुड़ा लाया था। अपनी खुद
की कार में सेकंड हैंड खरीदी थी या नई, कितने में? अपने उपयोग
के लिए रखीं हैं,किराए की है?कुछ भी नहीं पूछ पाया। मेरे पास इन सारी जिज्ञासाओं
का पूरा अभाव था।
पूछा:- कुछ
हुआ है शायद?
आप नहीं
जानते हैं शायद? कटकी ओडिया
में अनर्गल भाव से रवीन्द्र सिंह से कहा, इससे पहले उनके मुंह से संबलपुरी ओडिया ही सुनी थीं: दंगा फसाद हो गया हैं।
‘फसाद’ पहली बार इस अपमिश्रित ओडिया शब्द को मैं अपने मन में
उलट-पुलट कर रहा था। उसने कहा हिन्दू और कम्युनिस्टों के अंदर। हिन्दू और
कम्युनिस्ट ऐसे दंगाई होतें हैं कभी? कहाँ हुआ है? मुझे पता
नहीं क्यों खुशी हुई यह सुन कर कि कम्युनिस्टों का भी एक धर्म हैं। सेमेटिंक धर्म
की तरह। हिन्दू, बौद्ध और
जैन धर्म की तरह। कम्युनिस्टों के मंदिर विहीन धर्म को मानने से भेद न होता कि
साधु फकीरों की तरह कामरेड पुजारी बनते। उनके अपने निश्वरवादी पूजा स्थल पर पुजारी
बनते। बनते क्या? जरूर बने
होंगे। नहीं तो हिन्दू और कम्युनिस्टों का दंगा होता?
: सारी बसें बंद है?
बसों के बारे में पूछ रहे हो? चारों तरफ कर्फ़्यू लगा है। एक कदम चलने के लिए
मजिस्ट्रेट की परमीशन कार्ड चाहिए। आप कहाँ जाएंगे?
: ढेंकानल! जरूरी काम हैं।
: आज नहीं जाने से नहीं होगा?
: नहीं, मुझे एक चीज
पहुंचानी हैं।
: क्या,चीज? क्या? ये देखिए। मैं भूल गया क्या चीज पहुँचानी हैं? चाबी? कागज-पत्र? पैसा? बॉक्स? कौन-सी चीज? याद नहीं कर
पाया। कौन-सी चीज? रवीद्र सिंह
ने फिर से पूछा जिरह करते हुए। बहुत गुस्सा आया मुझे। वह ऐसे पूछ रहा था,जैसे वह पुलिस ऑफिसर हो। मेरी छान-बीन कर रहे हो।
मैंने सोच लिया,कि उसका बात
का और जवाब नहीं दूंगा। कहा:- मेरे साथ मेरे भाई,बहिन और माँ हैं,हम सब
ढेंकानल जा रहे हैं।
: आपको पहले
मजिस्ट्रेट का ऑर्डर लेना पड़ेगा। उसके बाद गाड़ी किराए पर लीजिएगा। मेरी गाड़ी का
कलेक्टर ने रिक्वीजिशन किया हैं। अगर आप कह कर ले पाएंगे तो अच्छा होता, मैं ड्राइव करके ले जाता। पुलिस के चंगुल से मुक्ति
मिलती। सरकारी रिक्वीजिशन रफादफा हो जाता। सेल्फ खराब हो जाता हैं। गियर बाक्स
चोरी हो जाता है। एक बार इलेक्शन के समय हमसे गाड़ी ली थी।
अधीरता से
उसने कहा: “लेकिन मेरी
तो कलेक्टर से पहचान नहीं है। एस.एन.त्रिपाठी कलेक्टर हैं? कुमारबंध कॉलेज के वार्षिकोत्सव में एक बार मुलाक़ात
हुई थी उनसे,मगर ऐसे
परिचित नहीं हैं।”
रवीन्द्र
सिंह थोड़ा चिंतित हो गया। फिर उसने कहा, “आइए, मेरे साथ”, कहकर मुझे अकेले छोड़कर कहीं
चला गया।
कहाँ चला
गया? रवीन्द्र
सिंह के बिना ही मैंने खुद खोज लिया अशोका टाकिज जाने का रास्ता। इतनी दूर चला गया? निर्जन रास्ते पर। एक भी दुकान खुली नहीं थी, मैं केवल ‘कर्फ़्यू’ और ‘देखते ही गोली’ जैसे शब्द ही समझ पा रहा था इस इस घोषणा में।
देखते ही
मेरे सामने एक जीप खड़ी हो गई। दो-तीन पुलिस नीचे कूद गए। उनके कंधे पर दो-तीन तारे
आ गये थे आसमान से। जीप के पीछे से कूद कर पुलिस ने इस तरह मुझे घेर लिया,जैसे वह युद्ध क्षेत्र का रिहर्सल कर रहा हो। कोई
मेरी गरदन पकड़ रहा था,मगर सामने
वाले अधिकारी ने सिर हिलाकर मना कर दिया। “क्या कर रहें हैं आप यहाँ?” सरकारी बस
स्टैंड पर थे, हम ढेंकानाल
जा रहे थे। किस तरह सम्बलपुर बस स्टैंड पर रुक गए याद नहीं कर पा रहा है।
“आप को सरकारी बस स्टैंड में ही रुकना था। यहाँ कहाँ से आ गए?”
: रवीन्द्र सिंह मुझे लाया था?
: कौन रवीन्द्र सिंह?
“झारसुगुड़ा का एक आदमी। कोयले की दुकान में क्लर्क हैं। झारसुगुड़ा में उसकी
कोई दुकान हैं। किसकी है पता नहीं। फिर एक कार भी है। शायद सेकंड हैंड, अर्थात् उसके साथ मेरी इतनी खास दोस्ती नहीं। केवल
जान-पहचान हैं। सच कहूँ तो दुनिया में शायद मेरे परिवार के लोगों को छोड़कर किसी और
के साथ मेरी दोस्ती नहीं है। मेरी दुनिया बहुत संकुचित होती जा रही थी।
कंधे पर
चमकते तारे वाले आदमी ने धमकी भरे स्वर में कहा, “फालतू की बात कर रहे हैं। कम टू द पॉइंट,रवीन्द्र सिंह के साथ आप यहाँ कहाँ पर आए थे? कम टू द पॉइंट,बात से याद
आ गया, यह तो
रजनीश। रजनीश गोस्वामी, एक बार
दिल्ली गया था ट्रेड यूनियन की एक कॉन्फ्रेंस में। तब चतुर्भुज बाबू केंद्र में
उपमंत्री थे। हमारे कोलियरी क महापात्र बाबू ने उनके पास जाकर कहा था,ओड़िशा के प्रतिनिधियों को पार्लियामेंट दिखाने के
लिए। चतुर्भुज बाबू ने इस रजनीश गोस्वामी को आदेश दिये थे,हमारे पार्लियामेंट में प्रवेश करने की समुचित
व्यवस्था करने के लिए। रजनीश तब डिप्टी सेक्रेटरी शायद थे पार्लियामेंट में। हम एक
कार से गए थे चाणक्य पुरी से पार्लियामेंट। रजनीश गोस्वामी,ड्राईवर के पास वाली सीट पर थे,सूट-बूट में एकदम सज-धज कर ठीक पार्लियामेंट पहुँचने
से पहले उसने पॉकेट से एक स्टील चेन निकालकर गले में लटका दी थी। स्टील चेन पर
लिखा हुआ था उनका नाम,परिचय में
मन ही मन उस समय एक अद्भुत दृश्य याद आने लगा। ऐसे लग रहा था मानो आगे की सीट पर
रजनीश गोस्वामी नहीं बैठकर एक कुत्ता बैठा हो गले में गणतन्त्र की सांकल लटकाकर।
किसी भी समय वह हमारी तरह देखकर भोंकना शुरू करेगा भो-भो। रजनीश को देखकर मैंने
उनकी चिर परिचित हंसी हंसने का प्रयास किया। मेरी हंसी खुद को नर्वस कर रही थी।
राजनीति करने वाले आदमी के लिए सबसे ज्यादा आवश्यकता वाली चीज हैं,वह है आत्म-विश्वास। वह आत्म-विश्वास मुझमें बिलकुल
नहीं हैं। रजनीश बाबू क्या मुझे पहचान पाएंगें? चतुर्भुज बाबू के आदेश पर उन्होंने हमें पार्लियामेंट दिखाई थी। अच्छा वह
तो आई.ए.एस. थे? ऐसे पुलिस
ऑफिसर कैसे बने? इसका मतलब
आजकल एड्मिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर भी पुलिस बनने लगे हैं। मैंने कहा : सर,(सर, क्यों कहा
मैं बहुत नर्वस हो गया हूँ ?) आप तो सिविल
सर्विस में थे न। पुलिस सर्विस में कैसे आ गए,आज अश्विनी बाबू को भी पुलिस वर्दी में देखा है।
अश्विनी बाबू कौन ?
अश्विनी मिश्रा। उन्हें देखकर तो मैं बस स्टैंड में
ऊपर से नीचे उतरा था। तब कहने लगे कि रवीन्द्र सिंह नाम के आदमी ने आपको यहाँ छोड़ा
है? हाँ,बस स्टैंड से बाहर और अश्विनी नहीं था। रवीन्द्र सिंह
वहाँ खड़ा था। रवीन्द्र के साथ आप इधर कहाँ जा रहे थे? मुझे ढेंकानाल जाना था। बहुत जरूरी काम से। रवीन्द्र
सिंह ने कहा मजिस्ट्रेट के ऑर्डर मिल जाने से वह छोड़ देगा,आप मजिस्ट्रेट की अनुमति लेने के लिए बस स्टैंड से
निकलें हैं,इसका अनुमति
पत्र लाए हो?
नहीं।
आप ने गलत काम किया है। कानून के विरुद्ध। बस स्टैंड
से एक कदम बाहर निकालना आप के लिए गैर कानूनी था। लेकिन मैं माजिस्ट्रेट के पास
बिना पहुंचे कैसे अनुमति लाता? मुझे यह सब
पता नहीं,मुझे अनुमति
पत्र चाहिए। आप कहाँ से लाए,ये सब मुझे
देखने की जरूरत नहीं हैं,आप जीप में
बैठिए। कृपया जीप में बैठिए। नहीं,मैं कुछ भी सुनना नहीं चाहता हूँ। चलिए, बातचीत नहीं। बिलकुल नहीं। मुझे चार लोगों ने उठाकर जीप में डाल दिया। वहाँ
पहले से दो लोग बैठे थे दाग भरे चेहेरे वाले। अपराधी होंगे। मुझे क्या जेल ले जा
रहे हैं। मुझे रोना आ गया। बस स्टैंड में माँ, टूटू और नानी की नींद खुलेगी और देखेंगे कि मैं वहाँ नहीं हूँ तो,क्या होगा उन लोगों का?
नाम?
मैंने नाम बताया।
पिता का नाम?
मैंने पिता का नाम बताया।
उम्र?
मैंने उम्र बताई।
मैंने पिता का नाम बताया।
पता?
मैंने वह भी बताया।
उम्र? मैंने उम्र बताई।
उस आदमी ने बार-बार मेरे चेहेरे की तरफ देखने के बाद
कहा,”पहचान के
लिए कोई चिन्ह है शरीर में? आइडेंटिफिकेशन
मार्क?”
मैंने अपना आइडेंटिफिकेशन मार्क खोजकर दिखाया। उसने
स्लिप पकड़ते हुए कहा, “उस कमरें
में जाइए।” वहाँ
पहुँचकर मैंने देखा बहुत सारे कुर्सी-टेबल। हर टेबल पर एक-एक काम में लगा हुआ
आदमी। मैंने एक आदमी को कागज दिखाया,उसने मुझे देखकर कहा,उस तरफ जो
बाबू हैं उनके पास जाइए। बाबू के पास जाकर स्लिप दिखाई तो उसने कहा, “आप अमुक तहसील के है।उस
तहसील का काम वह बाबू करते हैं। वह जो पान खा रहे हैं,उनके पास जाइए।” पान चबाते हुए बाबू के पास गया तो बिना स्लिप देखे वह पूछने लगे: “कौन-सा ब्लॉक?” मैंने ब्लॉक का नाम बताया। पान चबाते हुए उस बाबू ने कहा, “वह जो बाबू चाय पी रहे हें
उनके पास जाइए”। मैं उनके
पास गया तो उन्होंने कहा, “कौन-सा थाना?”
मैंने थाना का नाम बोला तो वह हँसकर कहने लगे, “वह जो खाली कुर्सी पड़ी हैं, उस बाबू के पास जाइए”।
मैं आश्चर्य चकित हो गया।
मतलब वहाँ कोई नहीं हैं। कोई नहीं आया हैं। कर्फ़्यू
के कारण बहुत सारे स्टाफ नहीं आए थे। उनमें से वह भी एक है। आप का काम आज नहीं हो
पाएगा। लेकिन मेरा तो ढेंकानाल जाना जरूरी है। बस-गाड़ी सब बंद है। चाय पीते-पीते
वह आदमी फ़ाइल के अंदर डूब गया,मैंने एक
बार,दो बार,तीन बार आवाज़ लगाई, मगर उन्हें सुनाई नहीं दी। मैं फिर से पान खाते बाबू के पास गया। उसने मुझे
फिर से उस तरफ बैठे बाबू के पास भेज दिया। उस तरफ बैठे हुए बाबू ने मुझे पुराने
बाबू के पास भेज दिया। पुराने बाबू ने इस बार मेरी बात को ध्यान पूर्वक सुना और
उसके बाद वह कहने लगे, “आपको
मजिस्ट्रेट से अनुमति लेनी पड़ेगी। वह तय करेंगें, आपका काम कौन करेगा? वह किसी को
तो डेपुट करेंगे ना?
आपका नाम?
मैंने नाम बताया।
“उम्र?
पता?
आइडेंटिफिकेशन मार्क?
मजिस्ट्रेट के पास आवेदन करने का कारण?” मैं ढेंकानाल जाना चाहता
हूँ। जाना जरूरी है। मेरे एक जान-पहचान वाले हैं। रवीन्द्र सिंह। उनके पास गाड़ी
है। सरकार ने उन्हे कर्फ़्यू के लिए रिक्विजिशन किया है। आदमी ने मेरी बात को काटते
हुए कहा, “ये सब कुछ
नहीं हैं। इस जरूरी बातों को वेरिफ़ाई करने के लिए किसी को तो,दायित्व दिया जाएगा। यह काम करने के लिए जो बाबू हैं,वह बाबू छुट्टी पर हैं इसलिए उनकी जगह पर काम करने के
लिए किसी और बाबू को ड़िपुट करने के लिए दरख्वास्त लिखिए।”
: “देखिए,जब यह दरख्वास्त
जिलापाल के पास जाएगी सीधे उस बात को लिख देने से नहीं होता कि मैं ढेंकानाल जाना
चाहता हूँ मुझे अनुमति दी जाए।”
“नहीं,नहीं होगा। उनके पास इतना समय नहीं हैं कि इधर
कर्फ़्यू लगा हुआ है उधर लॉ एंड ऑर्डर के प्रॉबलम में तुम्हारी व्यक्तिगत बात सुनने
के लिए मिलेंगे। मैं जैसा कहा रहा हूँ, वैसा लिखिए।”
मैंने लिखा, महोदय, विनती अनुरोध यह हैं कि .............
मेरे हाथ से दरख्वास्त लेकर उसने पढ़ा। दो-तीन जगह पर
संशोधन किया और उसके बाद लिखा। इस आवेदन की सत्यता की परीक्षा की जाए। लिखने के बाद
कहने लगा, “अब इस आवेदन
को लेकर उस आदमी के पास जाइए जो अखबार पढ़ रहा हैं।”
मैं उसके पास गया। उसने आवेदन देखकर कहा, “उधर जो आदमी उपन्यास पढ़ रहा
हैं,उसके पास
जाइए।”
उसके पास गया,उसने पूछा, “आप किस तहसील के हैं?”
मैंने तहसील का नाम बताया। उसने कहा, “आपकी तहसील का काम मैं नहीं
करता,दूसरा बाबू
करता हैं। वह बाबू जो सिनेमा की पत्रिका पढ़ रहे हैं। उनके पास जाइए।” मैं उस बाबू के पास गया। पत्रिका पढ़ने में व्याघात
होने के कारण गुस्से से चिढ़कर उसने कहा, “कौन-सा ब्लॉक?”
मैंने ब्लॉक का नाम बताया।
उसने गुस्से से कहा,आपका का काम नहीं हो पाएगा। मैं नर्वस हो गया। “नहीं हो पाएगा? क्यों?”
“क्योंकि जो बाबू,आपके ब्लॉक
के बारे में,जानता है,उसका ट्रान्सफर हो गया हैं,उनकी जगह कोई नया नहीं आया हैं।”
“तो? मैं क्या
करूँ? मुझे
ढेंकानाल जाना था जरूरी। चारों तरफ कर्फ़्यू, मेरा वहाँ जाना बहुत जरूरी है।”
आदमी सिनेमा पत्रिका की पोखरी में डुबकी लगाने से
पहले दया दिखाते हुए कहने लगा, “आप जिलापाल
से बातचीत कीजिए। समझना तो उन्हें है।” मैं फिर से उसी बाबू के पास आ गया। उसने सब कुछ सुना। उसके बाद एक रजिस्टर
खींचकर लिखा, “आपका नाम?
उम्र? “पिता का नाम?” “पता?” “आवेदन करने का उद्देश्य?”
“सर,मुझे
कलेक्टर की अनुमति चाहिए। इस कर्फ़्यू के समय में मुझे शहर छोड़ना जरूरी है। मेरे एक
जान-पहचान वाले हैं। रवीन्द्र सिंह।”
बात को वहीं रोककर उसने कहा; “इधर-उधर की बात न लिखकर,लिखिए कि उस ब्लॉक का काम करने के लिए उस बाबू के
ट्रान्सफर हो जाने के बाद उनकी जगह में किसी की नियुक्ति नहीं कि गई हैं,इसलिए मेरे आवेदन पत्र को जांच करने के लिए किसी को
स्थायी या अस्थायी नियुक्ति देकर अधोहस्ताक्षरी को अनुग्रहित करें।” आवेदन पत्र मेरे हाथ से लेकर,पढ़ते हुए उस आदमी ने कहा, “ठीक हैं,अब इस आवेदन को लेकर उस तरफ नाश्ता कर रहे आदमी के
पास जाइए।” “ढेंकानाल
जाने का उद्देश्य? किसलिए जाना
चाहते हैं आप? ऐसा क्या
काम हैं कि इस कर्फ़्यू में नहीं जाएगें तो नहीं चलेगा? कैसे जाएंगें आप ढेंकानाल? क्या टेलीफोन से आपका काम नहीं हो पाएगा?”
मैं हर प्रश्न के पास चुप रह जाता था। क्यों ढेंकानाल जाऊंगा? क्या काम था? क्या? कुछ तो काम
था? कोई परीक्षा
देनी है?किसी का
एड्मिशन करवाना हैं? मुझे बिलकुल
याद नहीं आ रहा हैं,लेकिन इतना
पता हैं,मेरा
ढेंकानाल जाना जरूरी है इस समय। एक लंबे कॉरीडोर में तो अंधेरे पैखाने का पानी
बहते हुए गीली फर्श मानो बुरला
मेडिकल वार्ड के कॉरीडोर की तरह नरकमय एक अंधेरी गली का कोई मुझे रास्ता दिखा रहा
हैं। लेकिन रास्ता खत्म नहीं हो रहा हैं। कितने समय तक ऐसे चलना होगा। अचानक मेरे
सामने एक चेहरा उभरा। मैंने अस्पष्ट उजाले में देखा, भूरे बाल या बाहर निकले दांत वाला या ठिगना आदमी अयावा चील जैसी भूरी आँखों
वाला या एक लंबा लड़का आता है और पूछता है क्या जरूरी था ऐसा ढेंकानाल में?
क्या? मैंने याद करने की कोशिश की लेकिन याद नहीं आया। चाबी? चिट्ठी? कुछ पहुंचाना था अथवा खुद के पहुँचने की बात? या? या?
“आपका नाम?”
“आपके परिचित गेजेटेड ऑफिसर का नाम?”
“उन्हे आप कैसे जानते हैं?”
“आपका स्थायी पता?”
“आपका वर्तमान पता?”
“वार्षिक आय?”
“विवाहित या अविवाहित?”
“धर्म?”
“जाति?”
“राष्ट्रीयता?”
“अनुसूचित जाति? उपजाति?”
“पेशा?”
“शिक्षा?”
“ग्रीनकार्ड मिला है या नहीं?”
“मिला है तो नंबर?”
“वोटर लिस्ट में नाम हैं या नहीं?”
“मूल निवासी प्रमाणपत्र है या नहीं?”
“अन्यवासी भारतीय या नहीं?”
विभिन्न प्रश्नावली से पूरी तरह स्पष्ट हो रहा था,काले अक्षरों में लिखे बारह बिन्दु। “क्यों आप ढेंकानाल जाना चाहतें हैं?”
क्यों? मुझे बिलकुल याद नहीं आ रहा था।
क्यों ? मुझे बिलकुल याद नहीं था। लेकिन मेरा जाना था जरूरी।
शेष में अंधेरा,कोरीडॉर खत्म हो गया। ऊजाला दिखाई देने लगा। किसी ने मेरी पीठ थपथपाते हुए
कहा, “यह देखिए
आपकी व्हाइट कार।”
कोरीडॉर के अंत में सफ़ेद आलोक और बहुत सारी खुली हवा।
सामने सफ़ेद कार और रवीन्द्र सिंह। उसने कार का दरवाजा खोल दिया और कहने लगा, “जल्दी आइए, चले जाएंगें।”
मैं कार में
बैठ गया। कार की खिड़की के पास किसी ने आकर कहा, “तुम ढेंकानाल जाओ। माँ और टूटू को मैं खबर कर दूंगा।”
मैंने देखा, अरे, अश्विनी था।
कहाँ गायब हो गया था बस स्टैंड पर। अश्विनी ने कार के अंदर हाथ बढ़ाकर मेरे कंधे को
छूकर कहा, गायब हो गया
था?” मैं तो
तुम्हारे ही काम में लगा था। नहीं तो सरकार के रिक्विजीशन से गाड़ी बाहर निकालना, कर्फ़्यू पास जुगाड़ करना- ये सब संभव नहीं होता।” मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा, “धन्यवाद, अश्विनी।”
कार स्टार्ट हुई। अश्विनी ने कार के भीतर से मुंह
बाहर निकालकर सांस लेते वक़्त कहा, “बोलिए, ढेंकानाल जाना क्यों इतना जरूरी हैं जो तुम इतने अधीर
हो गये।”
मेरे कुछ भी उत्तर देने से पहले कार चल पड़ी। ड्राइवर
की जगह रवीन्द्र सिंह। मैं कार के पीछे वाली सीट पर बैठा। सीट का सहारे लेते हुए।
कैसा-कैसा लग रहा था! सुनसान सड़क में कार दौड़ने लगी। सुबह हो गई हैं शायद? ठंडी हवा चेहेरे पर लग रही हैं। आ: इसे कहतें हैं
सफलता की तृप्ति; तो समय
कितना हुआ होगा? ढेंकानाल
जाने में कितने घंटे लगेंगे।
वीर
सुरेन्द्र साय की मूर्ति पार कर गई कार। धानुपाली भी। मानेश्वर भी। अचानक मुझे याद
आया,अरे,मुझे नहीं– टूटू को जाना था,आज अपराहन
दो बजे उसका इंटरव्यू था,एक ऑफिस
में। मैंने कहा,रवीन्द्र
सिंह गाड़ी घुमा लो। मुझे नहीं,टूटू को
जाना था ढेंकानाल।”
रवीन्द्र
सिंह आश्चर्य चकित होकर मेरी तरफ देखने लगा। उसके बाद उसने कहा, “गाड़ी तो और सम्बलपुर शहर में
नहीं घुस सकती। वहाँ कर्फ़्यू है; उसके लिए
फिर से मजिस्ट्रेट की अनुमति चाहिए।”
मेरे दिमाग
ने काम करना बंद कर दिया। मैं कार के सीट में चिपक कर बैठा रहा स्तब्ध। कार बहुत
तेजी से ढेंकानाल की तरफ दौड़ती जा रही थी।
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