खुले पिंजरे का पक्षी

खुले पिंजरे का पक्षी
  
 अभिजीत ने अपनी उम्र के तीस वर्ष और वैवाहिक जीवन के तीन वर्ष सात महीने गुजरने के बाद सेफ़्टी रेजर से रेगुलर दाढ़ी करना शुरू किया था। सुछंदा की आँखों में यह बात चुभनी नहीं चाहिए और चुभी भी नहीं। शादी के बाद, या उससे पहले भी, सप्ताह में केवल एक बार सैलून जाने वाले अभिजीत का कभी-कभी लड़ाई झगड़ा होने से या सुछंदा के अपने मायके जाने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता था। मगर वह आजकल सेफ़्टी रेजर लेकर.....? आश्चर्य?    
      अभिजीत सुछंदा की बातों पर हंस रहा था। दाढ़ी करने के बाद करने के बाद पैसे  न होने के कारण ऑफ्टर शेव लोशन के बदले पानी में फिटकरी घिस-घिस कर लगाता और होठों पर दाँत रगड़ने के कारण बनी कटी जगह पर जलन सहते-सहते मुस्करा कर हंसते हुए कहने लगा था, “प्रेम हो गया है, यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली लड़की से।
      सुछंदा उस समय प्लास्टिक की बाल्टी में साबुन फेनों के अंदर दोनों हाथ डूबाकर मैले कपड़ों को निचोड़कर साफ कर रही थी, और उसके शरीर पर लगी हुई साड़ी, साया समेत थोड़ी ऊपर उठी हुई थी तो अजितेश ने देखा कि सुछंदा के बाएं पांव के घुटनों के नीचे वाला तिल दिखाई दे रहा था, ललाट पर सिर के अस्त-व्यस्त बालों को उलटकर सजाते समय,ऊपर हाथों के कुछ साबुन फेन लग गए थे। सुछंदा ने सिर ऊपर उठाकर नहीं देखा और कहने लगी, “जाओ मैं सरल थी इसलिए मुझे फंसा दिया। दूसरी कोई और होती तो नाक में रस्सी बांधकर तुम्हें घुमाती।
            तीन साल लेडिज हॉस्टेल के सामने खड़े होकर प्रेम करने के बाद अभिजीत की एक दिन शादी हो गई। पहले एस्टीमेट था दो हजार रूपये का यानि भोज नहीं देता था। यह सुनकर  सुछ्न्दा को गुस्सा आया था, “पार्टी नहीं दोगे? बिना पार्टी के शादी होती है? होती है कहीं, सुना है?                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                 मगर रिसेप्शन की पार्टी बिलकुल नहीं हुई थी। एक टैक्सी और एक मिनी बस में बाराती गए थे, किराया लगा था आठ सौ रुपएअभी भी पूरी-तरह से याद है, ड्राइवर क्लीनर ने पंद्रह रूपये बक्सीश मांगी थी। और अभिजीत के जितने भी बन्धु-बांधव थे, सभी बाराती के रूप में सुछंदा के घर पर पार्टी खाकर आए थे। इस बिना पार्टी की शादी में एस्टीमेट से 2000 रूपये ज्यादा खर्च हुए थे। कुल मिलकर चार हजार आठ सौ रूपए- इसके बाद बैंक अकाउंट में बचे रह गए थे पचतर(75) रूपये वहाँ से शुरू हुआ उसका वैवाहिक जीवन।
      अभिजीत की पहली सुहागरात इस दो कमरों वाले घर बडे घर के बेडरूम में हुई थी, खाट के थोडे-सी हिलने पर ऐसी आवाज आ रही थी कि उसे पहले दिन से ही फर्श पर चादर बिछानी पड़ी.... आह! यह एक खतरनाक अनुभव था। अभिजीत समझ गया था कि शादी के बाद बहुत सारे अनुभव ऐसे ही बढ़ जाते हैं, जैसे पहले दिन सुछंदा ने चूड़ियाँ खोली थी तो दूसरे घरों की आवाज़े सुनाई पड़ना बंद हो गया था, केवल फुसफुसाहट सुनाई पड़ने लगी थी और उधर की आवाज़ सुनाई पड़ने पर अपना वॉल्यूम बढा दिया जाता था, उस दिन पहली बार अभिजीत के होंठों पर लिपस्टिक के निशान दिखाई दिए थे और वैसेलिन की उत्कट गंध मीठी लगने लगी थी, इस तरह बेडरूम पर परमानेंट अधिकार हो गया था मगर खाट पर अधिकार जताने में डेढ़ वर्ष लगे। टूटून होने तक चादर बिछाकर सुछंदा अलग सोती थी फिर बीच में सोता था टूटून, फीडिंग बोतल देने के लिए। कहती थी, मगर ऐसा करती नहीं थी। और मेरे लिए?” अभिजीत के इस प्रश्न से सुछंदा शर्म से हंसने लगी थी, और आज भी हँसती है याद कर। आंखें बंद कर दिल से देख सकता अभिजीत, उसकी वह हंसी कैसी थी।
      बंद आंखों से आज भी वह देख पाता है देवयानी की वह शर्मीली हंसी ए मा, लोग क्या कहेगें! छि:!! शायद मैं खराब लड़की हो गई हूँ।उसके बाद उसका शर्माते हुए हँसना। सुछंदा देवयानी को नहीं जानती थी। अगर वह जानती होती तो नहीं कह पाती, “ जाओ, तुमने मुझ जैसे मूर्ख को फंसा दिया।अभिजीत दांत दबाकर मन ही मन मुस्कराते हुए फिर से विषण्ण हवा से भीग गया, सुछंदा का विश्वास। यह विश्वासघात नहीं है अभिजीत?” उसे लगा कि उसके भीतर एक जानवर है, जिसके सामने सुछंदा का प्रेम, कष्ट त्याग- ये सारे मूल्यहीन हैं। और जो बच जाता है, वह है सैक्स।
      सुछंदा का त्याग? कभी किया है उसने त्याग या उसका त्याग अभिजीत के लिए और इस विषय पर स्वार्थी सुछंदा अपनी परिधि पर सास-ननद किसी को भी लाने के लिए राजी नहीं थी। अभिजीत के मन में सुछंदा की एक इमेज बनी हुई थी, अत्यंत ही स्नेहमयी चींटी के दबे हुए पेट जैसी दयामयी युवती के रूप में। बल्कि कुछ ही दिनों के अंदर उस इमेज का ग्लैमर सूखी मिट्टी की तरह फटकर नीचे झड़ गया और बची रह गई स्वार्थी सुछंदा और अभिजीत के लिए सारी लड़कियां, दुनिया की प्रत्येक लड़की वैसी ही स्वार्थी है।
      तुम जानते हो जीतू भाई, सास और ननद को साथ में रखने से घर कितना सुखकर लगता है।देवयानी ने कहा और अभिजीत की उपेक्षित हंसी को वह नहीं देख पाई थी। मैं केवल अकेली नहीं हूँ, किसी की पत्नी हूँ, किसी दूसरे की बहू तो तीसरे की भाभी, किसी की बेटी” – ऐसे कर्तव्य-बोध से बढ़कर और क्या सुख हो सकता है? अभिजीत ने कुछ भी बहस नहीं की। यह लड़की भी माँ बनने के बाद एक दिन पति के पास जाकर अपना दूसरे घर बसाएगी, अभिजीत जानता है।
      शादी के दो दिन बाद ही घर में पहली बार झगड़े का सूत्रपात्र हुआ। सुछंदा की पेटी को ठीक करते समय छोटी बहन रीता ने की ऑलिवग्रीन लाल आंचल वाले, जरीलगे कांजीवरम सिल्क के कपड़े देखे। इतनी सुंदर साड़ी तुम्हारे पास थी शादी से पहले, भाभी? यह साड़ी मैं लूँगी?” उसे लेने के लिए हाथ बढ़ाने पर सुछंदा ने कहा था, “ नहीं, “ अगर लेनी है तो कोई दूसरी देख लो।
      रीता हमेशा से कंगालीन की तरह जिद्द करती आई है। छोटे बच्चे की तरफ कहने लगी- नहीं भाभी, मैं यही लूँगी।
      घर मैं सभी लोग थे,सुछंदा ने अभिजीत की तरफ देखा मतलब उससे बचाओ। अभिजीत को छोड़कर कोई नहीं जानता है, पहले तो यह साड़ी सुछंदा को खूब पसंद है और अगर कोई उसे माँगेगा तो अच्छा नहीं लगेगा और दूसरा यह साड़ी ही एकमात्र ऐसी चीज है- जो शादी से पहले घर में सभी से छुपाकर, साढ़े चार सौ रुपयों की कीमत पर किश्तों में खरीदकर उपहार-स्वरूप उसे प्रदान की थी। उनके प्रेम की दूसरी वर्षगांठ के बारे में बताने की बात नहीं थी और अभी भी अभिजीत यह बात नहीं कह सकता था और रीता छोटे बच्चों की तरह जिद्द कर रही थी।
        सुछंदा घुटनों के बल पर बैठकर दाएँ हाथ से साड़ी को ऊपर उठाकर, दांत से निचले वाले ओठ को गुस्से से चबाकर और असहायतावश अभिजीत की तरह देख रही थी तो अभिजीत ने अनुभव किया, वह इतनी असहाय कभी नहीं हुई थी। समझ सकता था सुछ्न्दा की असहायता को फिर भी कम नहीं कर पा रहा था या रीता को समझा नहीं पा रहा था। यह संसार एक विचित्र धर्म है, उस दिन पहली बार समझ गया था, शादी करने का एक टेरिफिक अनुभव।   
      “बेटी जब इतना मांग रही है तो क्यों नहीं दे देती हो, बहू?” अधिकांश फिल्मों में जिस तरह होता है, विधवा माँ के रूप में निरुपा राय या कोई दूसरी सफ़ेद कपड़ों में सिलाई मशीन से खट-खट आवाज के साथ सिलाई करते-करते दांत से धागा तोड़कर जैसे कहती है, ठीक उस तरह माँ ने मध्यस्थता की। अभिजीत फिर भी चुप रहा। सुछंदा ने गंभीरतापूर्वक देखा अभिजीत की तरफ। फिर भी वह चुप था और  इस बार गुस्से से फेंक दी साड़ी, “ले लो, सब ले जाकहकर पेटी उलट कर दी और नैफ़्थेलिन की गोलियों के गिर जाने की तरह सुछंदा का गुस्सा बिखर गया था पूरे घर में और पाँव पटकते हुए दूसरे कमरे में चली गई थी सुछंदा। अभिजीत रीता- माँ सिलाई मशीन। दांतों से धागा तोड़ती हुई माँ की तस्वीर पूरी तरह फ्रिज हो गयी थी।  
सबसे पहले माँ सामान्य हुई थी और सरिता को गाली देने लगी थी, “अलक्षणी, कभी नहीं देखी? जो देखती हो मांगती हो। और कोई पिताजी जिंदा है जो खरीदकर लाएंगें! पराए घर में सिर ढक रही हो तो नौकरनी की तरह रहना सीख, कितनी बार सिखाया है!
      अभिजीत उठकर आ गया था, क्योंकि उसके बाद की सारी बातें उसे आघात देने वाली थी। सुछंदा जिसे समझ सकती थी कि इस घर में आने के दिन से वह माँ और बहन के लिए परायी हो गई थी, अनेक बार उनका छुप-छुपकर बातें करना और अभिजीत को देखकर चुप हो जाने का मतलब माँ और बहन की गोपनीय परामर्श में उसका कोई स्थान नहीं हैं, सीने में सूनापन आलपिन की तरह चुभ रहा था और वह दुख से कातर हो जाती थी, मगर ये बातें किसी को भी कही नहीं जा सकती थीं। अभिजीत उठकर बाहर चला गया, नहीं, बेडरूम की तरफ नहीं और बेडरूम में सुछंदा उसे देखने से नाक-भौं सिकोडकर रोने लगेगी और अब वह बिखरे हुए नैफ़्थेलिन की गोलियों की तरह न बक्से की ओर न ही घर की स्थितिहीन, आश्रयहीन होगी। पैंट-शर्ट पहन कर निकल गया था वह और इधर-उधर घूमते-घूमते रात को वापस आया और माँ-बहन सो गई थी। सुछ्न्दा ने हर दिन खाना खिलाने की तरह पास में बैठकर बातचीत नहीं की थी, वह उठकर सो गई थी और शादी के मात्र दो महीने हुए थे। सुछंदा पहली बार पलंग पर सोई थी, नीचे सोने नहीं आई। अभिजीत के खींचातानी के लिए भी नहीं । अवश्य, उस रात के बाद सब कुछ स्वाभाविक हो गया था और पेटी के फाँके में नैफ़्थेलिन कंजीवरम और सिलाई करते-करते माँ, किताब पढ़ते-पढ़ते रीता और घर की सफाई करते-करते सुछंदा तीनों अपने-अपने काम भुलाकर बातचीत करने में लग गए थे, यह देखकर अभिजीत  को खूब खुशी होने लगी थी। आह: काश! सभी दिन इस तरह तीनों के हँसते-खेलते पार होते।उसके बाद भी बातों-बातों में सुछंदा ने कहा, “उस दिन तुम्हारा कहना उचित था। कुछ तो बोलना चाहिए था। कायर की तरह  वहाँ से चले गए।सुछ्न्दा या रीता कोई भी अपनी गलती स्वीकार नहीं करती। अभिजीत जानता है इस समय बात खींचना ठीक नहीं है।
      अभिजीत के पिताजी हर सप्ताह साप्ताहिक हाट से दोनों हाथों में बैग भरकर सब्जी लाते थे, गेंहू लाते थे, राशन वाली चीनी लाते थे। अभिजीत ने देखा, यह क्या सहावस्थान है? ऑफिस से लौटकर चाय पीता था। उस समय उसके ललाट पर पसीने की बूंदें झलक रही थी। मुनगा और नीम पत्तों की सब्जी खाना उसे अच्छी लगती थी। सिगरेट नहीं पी रहा था, लेकिन खैनी और चूना मिला दोकता’- खाता था। माँ को पान खाने का नशा था। चाय पीने के बाद, पिताजी के लिए दोकतातथा माँ को पान नहीं मिलने से उनके मुंह खट्टे हो जाते थे,इस बात को अभिजीत जानता था। माँ को अभी भी पान चाहिए, पिताजी दोकता का और प्रयोग नहीं करते थे। एक दिन उसने दुर्घटनाग्रस्त पिताजी को रास्ते के किनारे से खून से लत-पथ अवस्था में उठाकर लाया था। उस दुर्घटना के बाद उन्हें और दोकता की जरूरत नहीं हुई, मगर धोती पहनने वाली माँ को अपने जीवन-यापन के लिए पान की जरूरत बनी रही। अभिजीत को आश्चर्य हो रहा था कि, पिताजी का दम क्यों नहीं घुटा था, जबकि अभिजीत के साढ़े तीन वर्ष के अनुभव से ही कभी-कभी दम घुटने लगता है।
      देवयानी के साथ पहले, सुछंदा नहीं जानती थी, कोलकाता के प्रेमचंद बराल स्ट्रीट के एक घर में तीन दिन काटकर आया था अभिजीत, साथ में था शंकर। घर की खिड़कियाँ खोलने पर दिखाई दे रहा था माता शीतला मंदिर के भीतर वाले आँगन में कुएं के पास, हँसती हुई वेश्याएँ तीन फुट बाई छह फुट का रास्ता,घर के दरवाजे की सीढ़ी के पास सस्ते प्रसाधन से सजी वेश्याओं के घेरे में पूरे तीन दिन गुजारे थे अभिजीत और शंकर ने। नहीं मेडिकल कॉलेज के लाल रंग का कोठा या बिपिन बिहारी गांगुली स्ट्रीट की गहने की दुकान- कुछ भी नहीं देखा है। ऐसे कि शीतला मंदिर पार कर ओड़िशा प्रेस की पान दुकान तक भी नहीं गए थे वे दोनों। शिखा, उसी गृहस्थ परिवार की बहू होने का दावा करने वाली औरत, जो समय-असमय में अपने कपड़े खोल देती थी, पता नहीं, कैसे शंकर उसका दोस्त है जानता नहीं था अभिजीत। इन तीन दिनों में मद, मांस, पापड़, सिगरेट, निरोध, मैले गिलास में अस्वाद चाय इस सब के बीच असंख्य देशी दारू पी दिया था और सबसे आश्चर्य की बात, वह शिखा के पास एक बार भी नहीं गया था, शंकर थोड़ा-सा सेक्सक्रेज़ी, चौदह बार गया था और शिखा रिजर्व थी दो दिन और दो रात के लिए। एक दिन एक्सट्रा रुका था, शाम को शिखा ने घर से बाहर निकाल दिया था, वह सब एक इतिहास है।
      ऑफिस की अभिजीत खरीददारी के लिए गया था कोलकाता। मगर प्रेमचंद बराल स्ट्रीट में काट दिए तीन दिन और दो रातें और पाँच बजे गली से निकलकर सीधे हावड़ा स्टेशन, वहाँ से मद्रास मेल पकड़ कर ओड़िशा। यहाँ वापस आकर, ऑफिस में टी॰ए॰ बिल भरा था, टूर डायरी में लिखा था, कोई कोटेशन देने के लिए राजी नहीं हुए इसलिए खरीददारी नहीं हो पाई थी। सुछंदा को कुछ कहा नहीं था, कहने से भी विश्वास नहीं करती, वरन संदेह करती कि प्रेमचंद बराल स्ट्रीट की गंदगी के भीतर दो दिन और तीन रातें रहा, मगर शिखा के पास एक बार भी नहीं गया होगा वह। शंकर गया था। चौदह बार और प्रत्येक बार उसने केवल मद्य पान किया है, मांस या पापड़ भाजी और सिगरेट के साथ,मगर शिखा को स्पर्श नहीं किया।यहाँ तक  शंकर इस कंप्लिकेसी को समझ नहीं पाया है। अभिजीत समझ पाया है क्या? यह  शिभालरी नहीं है कि वेश्या के पास जाएगा, दाम देगा मगर उसने नहीं दिया। क्या हो जाता है अभिजीत को वह समझ नहीं पाता है। इस प्रश्न का उत्तर एक दिन उसे मिला था और आधी रात को, जैसे याद आ गया था उसे अगर इसी क्षण शंकर को नहीं कहने से उसका जीवन व्यर्थ हो जाएगा। सिगरेट लाने के लिए जा रहा हूँ कहकर, लुंगी कुर्ता पहन कर पैरों में चप्पल पहन कर मुख्य रास्ते से होते हुए, पब्लिक कॉल ऑफिस या जान-पहचान की दुकान की तरफ,जहाँ से  फोन करना होगा,करूंगा सोचकर। अंत में क्या  नाम, आर॰एम॰एस॰ में सोते हुए आदमी को उठाकर, उसकी जम्हाई, उसकी नींद तोड़कर, उसके लेजर रसीद में खुले पैसे नहीं होने की विरक्ति- सबकी उपेक्षा कर, दीर्घ तीन मिनट के लिए एक लंबी रिंग कर, रात को ग्यारह बजकर पैंतीस मिनट पर, शंकर के नींद से उठाकर, अभिजीत ने कहा था, “हैलो शंकर, मुझे मिल गया है।
: “क्या?”
: “वह जो मेरी क्ंप्लिकेसी का उत्तर? तुमने कहा था। पा गया, अचानक रात को सोचते-सोचते।
: “क्या?”
: “वास्तव में वेश्या का दाम देकर, उसको नहीं ग्रहण करने का पागलपन शिभालरी नहीं होता है,मैं समझ गया था। ठूंस बार कोलकाता में शिखा को क्यों ग्रहण किया था, जानते हो?”
: “क्यों?”
: “वास्तविकता जानते हो, मैं सुछंदा को बहुत प्यार करता हूँ।
      “उसके विश्वास में आघात करना नहीं चाहता हूँ। मगर प्रश्न यह है कि वेश्या के पास क्यों गया था? उसका उत्तर यह है कि सुछन्दा के साथ मोनोटोनस घिसा-पीटा जीवन जीते-जीते मैं ऊब गया था। तब पूरी बात यह है कि मैं सुछंदा से प्यार करता हूँ, मगर उससे बोर होकर दूर भाग जाना चाहता हूँ, मगर नहीं जा सकता हूँ, यानि भाग नहीं पाता हूँ, उससे लड़ाई झगड़ा हो जाता है, और फिर भी उसे प्यार करता हूँ। डू यू फॉलो माई कंप्लीकेसी?”
      जम्हाई लेते हुए शंकर ने कहा था: ओह, अच्छासो जाओ, गुड नाइट।
: “सिगरेट की तलाशी में अच्छा-खासा हैरानी में डाल दिया मुझे।मैं इधर सोच रही हूँ, क्या है न बाबू डेढ़ घंटे टहलते हुए?” सुछंदा के गुस्से के अंदाज की अवहेलना करते हुए झुक कर एक चुंबन दिया था अभिजीत ने। उस समय उसको लग रहा था,जैसे वह जान गया हो पिताजी के हाट से लौटते हुए दोनों हाथों में लटके हुए बैग,ऑफिस से घर आकार चाय के कप को हाथ में पकड़े पिताजी के ललाट पर पसीने- के भीतर सुख कहाँ होता है। उसी रात को फर्श पर दोनों सो रहे थे, मतलब बहुत प्रेम और रात में पेशाब करने से बिस्तर में सोने के कारण बेटे को सर्दी पकड़ ली थी। सुछंदा कनफेस करने की मुद्रा में अभिजीत से कहा था : मैं एक राक्षसी हूँ नहीं जो कोई अपने बच्चे को छोड़कर ऐसे .....अभिजीत चला गया था होम्योपैथी डॉक्टर की पास।
      यह सब तब की बात है, जब टूटून का जन्म हो चुका था, शादी की ताजे परिधान, बेडरूम के अंतिम दृश्य के बारे में ऑफिस के सहकर्मियों की संयत भाषा में अश्लील इशारे भी बंद हो गए थे ढीली बिखरी और स्पर्शकातर हिन थी। ठीक उस समय की बात होगी या उससे पहले की यानि टूटून के आने से पहले जब एक आंधी-तूफान ने अभिजीत को एक सीडी पर पटक दिया था। उस समय अभिजीत को मालूम पड गया था उसका दोस्त पहले जैसा कहता था शादी एक ऐसा लड्डू है जो खाता है वह भी पछताता है और जो नहीं खाता है,वह भी पछताता है। कितनी सही बात थी। घटना थी वेतन के पैसे को लेकर।
      लेकिन देवयानी ने एक बार कहा था अभिजीत के लिए एक शर्ट पीस खरीदते समय, “तुम्हारा तो महीने का कोटा सीमित है, यानि पिताजी से पैसे मिलते होंगे। तुम को ये सब अच्छा नहीं लगता।ऐसे आपत्ति भरे जवाब में देवयानी का उत्तर था, “रुपये पैसे क्या सबसे बड़े होते हैं, जीतू भाई? दुनिया में दिल से प्रेम करने का कोई मूल्य नहीं है? मैं तो सोचती हूँ रुपये पैसे सब तुच्छ है। हमारे सम्बन्धों के भीतर यह नहीं आना चाहिए।
      शादी के तीन महीनों के बाद घटना इस तरह से घटी थी। दोपहर के समय रविवार के दिन, उस दिन घर में मीट लाया गया था- सामूहिक भोजन कर रहे थे माँ, रीता और अभिजीत और परोस रही थी सुछंदा। पहला आरोप था माँ की तरफ से – “ खाने में इतना तेल डाल रही हो बहू, पेट खराब नहीं हो जाएगा? : मुझे ऐसे ही पेट की बीमारी है।
      अभिजीत को पता था रीता गुस्सा दिला रही है सुछंदा को, उस साड़ी वाली घटना के बाद से- जितनी हंस कर बात करने के बावजूद भी रीता और सुछंदा के संबंधों की दीवार में दरार आ गई थी, वह अनुभव कर सकता था, रीता का हमेशा सुछंदा के प्रति असहय मंतव्य, जैसे कि उस बार था: पहले डेढ़ किलो तेल से हमारा घर चलता था, है न माँ ? अब चार किलो लगता है।
      सुछन्दा चुप रहती तो चल जाता, लेकिन चुप न रहकर कहने लगी : खुद रसोई करती तो पता चलता, डेढ़ किलो क्यों पाँच सौ ग्राम में काम चल जाएगा। पैर के ऊपर पैर रखकर रानी की तरह आर्डर चलाने से नहीं चलेगा, काम करके दिखाना पड़ता है।
मैंने भी घर चलाया है, पूछ ले अपने पति को। तुम जब नहीं आई थी तब मैं रसोई कर रही थी।
“हाँ हाँ , मुझे पता है, जिस दिन पहली बार रसोई घर में गई थी, मैंने देखा था, पखाल में कीड़े पड़ गए थे। छि: ! छि:!
      अभिजीत सोच रहा था कि ये सब लोग देहाती है, गाँव वालों की तरह बातें करते हैं,जैसे की ठीक अभी अभी माटी का मनुष्यके पन्नों से निकले हो- हारा की माँ और नैत्रमणि और उसका शरीर पसीने से तर-बतर, रविवार को छुट्टी के दिन, दोपहर का मांसाहारी भोजन सब पर पानी फिर गया। उसने जोर से मीट की कटोरी को फेंक दिया था नीचे, उस आवाज से माँ अवाक् हो कर देखने लगी थी तो रीता, सुछंदा की बोली बंद हो गई थी।
      उसके बाद वह मांसाहारी दोपहर व्यर्थ चली गई, बेडरूम में नहीं आई थी सुछंदा, ड्राइंग रूम में माँ और रीता के पास भी नहीं थी, भीतर के आँगन के बरामदे में बैठकर ब्लाउज सिल रही थी। बुलाने पर भी वह नहीं आ रही थी। बातचीत भी करना बंद कर दिया था। मुंह हांडी की तरह फूलाकर बैठी थी, गर्मी के दिन पसीने से तर-बतर ललाट से सिंदूर बहकर नीचे जा रहा था नाक तक। सुछंदा को इस तरह पसीने से तर-बतर अवस्था में पहली बार देखा अभिजीत ने और उसे देखकर याद आ गई सुरभि बुआ की बात। गाँव में धान कूटती हुई बुआ जिसका पसीने से भीगा शरीर, मांग से बहता सिंदूर नाक के अगले हिस्से तक, ये सब क्रमहीन रूप से याद आने लगे। माँ की सिलाई मशीन की खट-खट आवाज से अभिजीत स्तब्ध हो जाता था, उसके निसंग घर के भीतर और शैशव में। पूरे दोपहर में सुछंदा नहीं आई और आई केवल शैशव। साढ़े चार बजे हाथ में चाय लेकर आई निर्वाक सुछंदा। उस रात को पहली बार खाट के ऊपर सोई थी सुछंदा और खाट के ऊपर अभिजीत के आते ही हाथ झटक कर सुछंदा नीचे उतर गई। फिर किसी ने किसी को भी ड़िस्टर्ब नहीं किया। रात भर दोनों निर्वाक। अभिजीत फिर से अपने अतीत में लौट गया। उसे नींद आ गई।
      बाद में अभिजीत से सुछंदा ने कहा कि उसने रीता की बातों को बिलकुल भी दिल पर नहीं लिया है वरन जिस बात से उसे ज्यादा आघात लगा, वह है अभिजीत का इस तरह से कटोरी फेंकना। और कौन स्त्री नहीं चाहती कि उसका पति उसे समझेगा, सुरक्षा देगा, बचाएगा, जबकि तुम .....अभिजीत के चुंबनों से सुछन्दा का बोलना नहीं रुक नहीं सका वरन् उसकी  आंखों में आँसू और कंठ का कोह और आगे नहीं ले जा सका।
      बात इस तरह से खत्म हो जाने से तूफान नहीं आता, मगर उसके दूसरे दिन से रीता अपने मेनू से सब्जी बनाने को कहा और उसने केवल भात और जले हुए आलुओं पर अपने गुस्से को व्यक्त किया था कुछ दिन। माँ और रीता की फुसफुसाहट भरी बातों और सुछंदा के मन ही मन कूडने के कारण निसंग है वह,आजन्म अकेला,संवेदना के हाथ कोई नहीं बढाता है, कोई आह तक नहीं करता है, दुख में। अभिजीत चाहता था सुछंदा, रीता और माँ को लेकर एक हंसता खिलता संसार हो। वास्तव में जैसे किसी की किसी के प्रति इज्जत कोई नहीं करता। हर कोई चाहता है एक दूसरे का हाथ पड़कर चलने के लिए-सभी की इच्छा, अपनी परिधि में आत्मरत रहने की है। इन सारी  चीजों के सामने अभिजीत बहुत असहाय अनुभव कर रहा था, सभी ने मिलकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए हैं, वह किसी का भी अपना नहीं हो पा रहा है।    
      उसके दूसरे महीने माँ ने मना कर दिया था तनख्वाह के पैसे को रखने के लिए, जबकि पहले माँ ही सारी तनख्वाह रखती थी, अपने टीन के एक बक्से में, ताला लगाकर यत्नपूर्वक इस तरह घर के महीने का बजट तैयार करने की जिम्मेदारी आ गई थी सुछंदा  पर और माँ की सिलाई मशीन की खट-खट आवाज बढ़ती जा रही थी। एक दिन अभिजीत ने देखा कि मशीन के चारों तरफ ब्लाउज बनाने के कुछ कपड़े पड़े हुए हैं। बाद में सुछंदा ने बता दिया कि माँ पड़ोसियों के ब्लाउज पेटीकोट की सिलाई कर रही है।
      “मुझे दो पैसे की जरूरत पड़ती है जीतू , पान के खर्च के लिए। बेटी है उसका कभी कभी हाथ-खर्च, कॉलेज-फीस या रिक्शे का भाड़ा, या इधर-उधर का चंदा- कितना और हाथ फैलाकर मांगूँगी?” अपनी सफाई में माँ ने कहा था, अभिजीत के प्रश्न पर फिर भी माँ ने लौटा दिया था उसके रुपए, उसके दूसरे महीने भी, तीसरे महीने भी और अभिजीत के अलावा कोई समझ नहीं सकता था, सिलाई मशीन की प्रत्येक आवाज से उसके सीने में दुख के गुबार फूट रहे थे। माँ के पास अभिजीत अपना हो कर नहीं रह गया। सोचने पर मन के भीतर एक कोह घूमने लगा था।
      “तुम्हारी कोई प्रेस्टिज नहीं है? पड़ोसी क्या सोच रहे हैं, तुम्हारे बारे में? तुम तुम्हारी माँ और बहिन को खाने के लिए नहीं दे रहे हो इसलिए सिलाई करके वे लोग अपना पेट पाल रहे है। ये थर्ड क्लास, मूर्ख औरतों ने हमारे ड्राइंग-रूम में बैठकर हम दोनों के बारे में, जो मन में आता है, माँ को कहते हैं। किसके बलबूते पर वे ये बातें कर रहे है? केवल चार रुपए में एक ब्लाउज सिल देने के बहाने वे लोग हमारे ड्राइंग-रूम के भीतर आने का साहस कर रहे हैं, फिर भी तुम कायर हो, कुछ नहीं बोल सकते?”
      सुछन्दा के इस क्रोध के आगे अभिजीत को अहसास हुआ था कि वह असहाय है या इस तरह से सुछंदा ने कह दिया, जैसे कि वह एक कायर है- उसे फार्मूले नहीं मालूम है, वह खून के रिश्तों को बांधकर रखने का। उस दिन देर रात तक जागते-जागते खुली खिड़की की तरफ देख रहा था मानो स्मृतियाँ उसे बुला रही हो। कितने दिनों से नहीं गया था वह अपने अतीत की ओर । अतीत के पुराने जाने-पहचाने घर-द्वार - वह बहुत धीरे-धीरे पहुंच गया था अपने शैशव में। उस दिन उसकी पहली बार इच्छा हुई जी भर कर रोने की। मगर उसने वैसा नहीं किया, दोनों आंखों से आंसू गिर पड़े थे अपने सारे प्रतिरोध के बावजूद भी। उसने बड़ी सावधानी के साथ आँसुओं को पोंछ लिया था, उस समय सुछंदा प्रगाढ़ नींद में थी।
      “ लड़कियों को कुछ सबमिसिव होना चाहिए, जीतू भाई। पुरुष का पुरुषत्व और क्या रह जाएगा अगर वह डोमिनेंट नहीं होगा? नारियां हमेशा ऐसे पुरुषों को ही चाहती हैं, जिसे देखने में डर लगेगा, श्रद्धा पैदा होगी और भय आने से उनके सीने में वे निर्भय आश्रय लेंगी।कहने लगी थी, देवयानी एक बार पास के मार्केट से कुछ खरीददारी कर, हॉस्टेल गेट बंद हो जाएगा सोचकर शीघ्र लौटते समय- हाथ बढ़ाकर प्लास्टिक के थैले को पकड़ लेना चाहता था अभिजीत,मगर देवयानी ने नहीं दिया था और वह स्वयं ही पकड़ कर राखी थी। इस घटना से चार-पाँच साल पीछे चला गया था अभिजीत, उसके हॉस्टेल गया था, उस समय बेडिंग बॉक्स लेकर हॉस्टल के पास तुम आ गए हो,अच्छा हुआ, मैं आज घर जा रही हूँ, चलो बस पर चढ़ा कर आ जाता।सुछंदा के किट बैग पकडने के लिए अपने हाथ बढ़ाते समय, देवयानी की तरह, वह भी पकड़ कर रखी थी अपने बैग दोनों हाथों में, उन्हें लटकाकर चलने में कष्ट होने पर भी, एक भी नहीं दिया था अभिजीत को उठाने के लिए, वह प्रेम का समय था। शादी की बाद जब भी अभिजीत सुछंदा के साथ बाहर गया है, कभी हाथ नहीं बढ़ाया था सुछंदा ने। हमेशा अभिजीत पकड़ता था बैग या सूटकेश को।
      याद आ गई थी वह घटना। जब अभिजीत ने कहा था, “जानती हो, प्रेमी और पति के भीतर क्या पार्थक्य है? प्रेमी के साथ प्रेमिका चलते समय अपना बोझ स्वयं उठाती है, जब कि पत्नी के साथ चलते समय उसका भार उठाना पड़ता है पति को।”   
        इन बातों पर भावुक होकर हंसने लगी थी देवयानी और कोई मंतव्य नहीं दिया देख कर, अभिजीत ने सरल भाषा में कहा था: उसका अर्थ समझ गयी? प्रेमिका हमेशा सबमिशिव होती है और पत्नी हमेशा डोमिनेंट होकर रहती है।” 
      इस बार देवयानी ने वही बात दोहराई, मतलब उन लड़कियों को कुछ सबमिशिव होना चाहिए इत्यादि सारी बातें। अभिजीत हंस पड़ा या और देवजानी को देख कर सोचने लगा था- आह : रे, लड़की अनुभव की प्रथम सीढ़ी में कुछ भी नहीं जानती है।बाद में सुछंदा को एक बार पूछा था यह बात, मतलब प्रेमिका सबमिशिव होती है मगर पत्नी बन जाने पर क्यों डोमिनेंट हो जाती है?” सवाल पूछ कर ड़र गया था अभिजीत, जैसे कहीं गुस्से से फट कर टुकड़ा-टुकड़ा न हो जाए सुछंदा, लेकिन आश्चर्य, सुछंदा गुस्सा नहीं हुई थी, वरन अद्भुत शरारती हंसी हंसे हुए कहने लगी थी, : “ प्रेमिका के पास प्रेमी मुट्ठी में नहीं होता है,, मिलेगा या नहीं मिलेगा, इस तरह के संदेह में रहती है। और उसे खो देने की आशंका बड़ी बात नहीं है या कह सकते हैं कि प्रेमिका के पास प्रेमी की स्थिति सबसे बड़ी चीज नहीं होती है। जबकि स्त्री के पास अपने पति की स्थिति सबसे बड़ी होती है। पति के  बिना पत्नी का कुछ भी नहीं होता है, नहीं जानते हो? और जब पत्नी देखती है कि उसके पति को उससे दूसरी कोई छीन कर ले जा रही तो, वह तत्पर हो उठती है पति को पल्लू में बांधकर रखने  के लिए।
      सुछंदा प्रेम करने के समय सबमिशिव थी और शादी से पूर्व उसकी उद्दंडी बड़ी बहन ने सिखाया था डोमिनेंट होने का रहस्य, जब कि शादी के एक महीने पहले तक वह इस बात को नहीं मानती थी। उसका तर्क था लड़कियों को कुछ सबमिशिव होना चाहिए।सुछंदा के पिताजी अभिजीत को पसंद नहीं कर रहे थे या प्रेम विवाह से उनको एलर्जी थी और अंत में तेरे भाग्य में जो होगा घटेगाइस तरह हारा हुआ मंतव्य और नाराजगी में सुछंदा की अभिजीत के साथ शादी करने के लिए राजी हो गए थे। फिर भी उसका इंप्रेशन अच्छा नहीं था। उसके घर किसी का भी- मतलब सुछंदा की बड़ी बहन, माँ या पिताजी का, जो लोग समर्थन कर रहे थे- उनके साला और साली। अभिजीत एक गुंडा और हृदयहीन आदमी है, उसके साथ शादी करने से पछताएगी सुछंदा और वह उसे भीषण कष्ट देगा। अभिजीत के बारे में ऐसे ही धारणा उनके मन में अंत तक थी, मतलब पाणिग्रहण तक पड़ने तक। शादी के मंडप में पहने वाली धोती-कुर्ता भी उन्होंने नहीं दिया था, जबकि पहले सुछंदा को बहुत बार कहा था- पिताजी को चिट्ठी लिखकर याद दिलाई थी दो धोती-कुर्ता देने की बात।लेकिन लिखा नहीं था अभिजीत ने। पिताजी क्या पहली बार बेटी की शादी करा रहे हैं, यह सब जानते नहीं हैकि जैसे अव्यक्त गुस्सा खुल कर कभी नहीं किया था सुछंदा पर। पहले से ही अनुमान लगा कर शादी के मंडप में पहनने वाला धोती कुर्ता लेकर गया था मंडप में, जो मिला था मंडप में सुछंदा और उसके इतने दिनों के स्वप्न, आशा- आकांक्षा के हाथ और ऊंगली के नहीं रहने वाली अंगूठी। ऐसी अवहेलना में उसका प्रेम सफल हुआ, यानि शादी में बदल गया। बाद में माँ और रीता ने गुस्से में कहा, “यह प्रेम शादी है ? इन लोगों ने कितना नेगलेक्ट किया है, जैसे हम लोगों की कुछ प्रेस्टीज़ नहीं है, हम लड़के वाले हैं न? हमारा तो सिर ऊंचा कर खड़ा होना चाहिए, मगर ये लोग लड़कीवाले होकर सिर ऊंचा कर खड़े हो गए और हम लोगों पर को जैसे दया दिखा रहे हैं- हम दया के पात्र हो गए।
      माँ और रीता ने चुप करा दिया था अभिजीत को। आह क्या इगोइस्टिक बातचीत है तुम्हारी।वे लोग चुप हो गए थे और बाद में एक और समस्या सामने आ गई, शादी के बाद से माँ ने कहा था- हमारा नियम यह है कि वरण कर नहीं लेने तक बेटा बहू लौट कर नहीं जाएंगे”- ऐसे मंतव्य के प्रति सुछंदा के पिताजी ने चिट्ठी लिखी थी, “दामाद के वरण नहीं करने तक दामाद नहीं आएगा, बेटी क्यों नहीं आएगी?”
      इस छोटी-सी बात से खींचातानी। एक दिन रात को अभिजीत ने सुछंदा को समझाया था- देखो हमारा, ट्रेडीशन?” “हमारा यानि सुछंदा के मायके के ट्रेडीशन। बहुत दु:ख हुआ था अभिजीत को। उसने सोचा था कि शादी के बाद सुछंदा अपने ससुराल को अपना लेगी, प्रतिश्रुति भी दी थी ऐसी कुछ- मगर उसके पास शादी ही अपना घरहोकर रह गयी।
      सुछंदा की बड़ी बहन ने शादी के एक महीने पहले वही सिखाया थी, डोमिनेंट होने का रहस्य। वह बहन ही खतरनाक डोमिनेंट- उसका एसडीओ पति उसके सामने चूहे की तरह दब्बू बना रहता था और महीने में एक-दो बार वह मायके से घूम कर आ जाती है और वही अपने घर की मुखिया- अपने घर में, मायके मेंउसकी बातों को ना करने की शक्ति किसी में भी नहीं थी- इन्दिरा गांधी ने उसे सीखा दिया था है शासन करने की ट्रिक। उसी बहन ने सुछंदा से था कि  मेरी मैरिड लाइफ बहुत ही सुखद है।
      “सुख क्या है सुछंदा? ये जो तुम्हारी बहन जबरदस्ती ले रही है- ये सब सुख है, प्रेम में तो ऐसा नहीं चाहिए। आपस में खुशी रहने से प्रेम होता है। वहाँ त्याग ही सुख होता है। परस्पर एक-दूसरे को सुखी करने के लिए त्याग, कष्ट के भीतर जो सुख है, तुम्हारी दीदी को पूछो, ये सब कभी उनको मिला है? अधिकार जता कर, ज़ोर-जबरदस्ती दखल कर सब मिल जाता है, हृदय नहीं मिल पाता है। पूछो, तुम्हारी दीदी से, उनको अपने पति का वास्तविक प्रेम कभी मिला है? ये सब चिट्ठी में लिखा था अभिजीत ने, दीदी के वक्तव्य सुनकर और शादी के बाद और हमारे ट्रेडीशन?” ऐसे प्रश्न सुनकर सुछंदा के मुंह से, उसके दूसरे दिन उसे मायके जाने के लिए अनुमति दी थी। माँ ने मुँह फूला दिया था, रीता गुस्सा होकर कहने लगी थी हिजड़ा। अभिजीत चुप रहा था-
         शादी के बाद, ससुराल ही स्त्री के लिए सब कुछ है। अमडाबाटकी माया की बात याद है? सभी लड़कियाँ कावेरी नहीं होती हैं जीतू भाई। कुछ लड़कियाँ मायाभी होती हैं।
      अभिजीत ने कहा था: हाँ, शादी से पहले सब लड़कियाँ मायाको आदर्श मान लेती हैं, शादी के बाद कावेरी को। अभिजीत की बातों पर सिर हिलाकर विरोध करती हुई देवयानी को बच्चा समझने लगा था अभिजीत, अनंत: अपनी अनुभूति के पास, देवयानी नहीं जानती है कि एक दिन सुछंदा उसकी जगह लेगी, ऐसे हॉस्टल में रहती थी, विजिटिंग अवर्स में ऐसे ऊपरी मंजिल से सीढ़ियाँ उतरकर, बरामदे में खड़ी होकर बात करती थी। बिलकुल देवयानी की तरह या उसकी वाइस-वर्सा।
            देवयानी कौन है? एक बार भी उससे चुंबन नहीं लिया था अभिजीत ने एक बार, मात्र एक बारउसका हाथ पकड़ा था तो कांप उठी थी देवयानी। डर से हाथ छोड़ दिया था उसने और उसके बाद कभी भी नहीं हाथ पकड़ा था और। मैं तुम्हें प्यार करता हूँऐसी बात भी नहीं बोला था, फिर भी सप्ताह में एक बार बुधवार और शुक्रवार के दिन मिलता है अभिजीत, सुछंदा को छुप कर। वे दोनों इधर-उधर की बातें करते थे यह प्रेम नहीं था तो क्या था?
      मैं तो कहानी का उपन्यास की नायिका नहीं हूँ जीतू भाई। किसी भी परिस्थिति का सामना कर लूँगी। सारे संबंधों की एक परिभाषा होती है? मैं जानती हूँ तुम शादी से खुश हो और सुछंदा भाभी से प्रेम-विवाह  किए हो। याद रखना जीतू भाई, अगर कभी भी दोपहर की धूप में तुम थक जाओगे, तो एक पेड़ की छाया और थोड़ी ठंडी हवा बनकर उस समय मैं आगे आ जाऊँगी।
      देवयानी की इन बातों से अभिजीत की नींद गायब हो गई थी। रात को सोते-सोते देवयानी, ऑफिस की फाइल की पृष्ठों की देवयानी, सुबह की चाय के साथ वाली या बाथरूम में साबुन फेनों से भीगी देवयानी। अपने आँचल आंचल के पल्लू को हिलाकर कविता बुनती बुनती कर देवयानी चलती जा रही थी और प्रत्येक रात को सोने से पहले अपना ब्लाउज खोलकर अपनी पीठ की घमोरियां मारने के लिए कहती। टूटून के पैरों को उठा कर नीचे के बिस्तर में हाथ रखकर, पेशाब किया है या नहीं देखती हुई सुछंदा एक दिन कहने लगी थी : शायद हमारा प्रेम करने वाला समय ही सबसे सुखद था। नहीं?”
      इस एक ही बात में गायब हो गई थी देवयानी, वरन् उसकी आंखों के सामने हॉस्टल की सुछंदा, उसकी हंसी, उसका माडर्नया ट्रांसलेशनका स्पेशल पेपर या उसका विषादग्रस्त मन, उसका संकोच, उसके सपने सामने लेकर खड़ा अतीत और अभिजीत ने सोच लिया था : न देवयानी नहीं। कल उसको चिट्ठी लिखूँगा: बुधवार और शुक्रवार की शाम लेडीज़ हॉस्टल आना, उसके लिए ठीक नहीं होगा।
     उसके दूसरे दिन ऑफिस में बैठकर जो चिट्ठी लिखी थी अभिजीत ने, उसकी कुछ लाइन इस प्रकार है: जीवन एक एक्सप्रेस ट्रेन की तरह होता है, देवयानी, अनुभव के मैदान, घर-द्वार, पेड़-पौधों पार कर ट्रेन एक के बाद एक अनुभव के स्टेशन पार कर चली जाती है। तुम आज अनुभूति के जिस स्टेशन पर हो मैं और सुछंदा एक दिन उसी स्टेशन पर थे, मगर हमारे जीवन की एक्सप्रेस ट्रेन अब बहुत दूर चलो आई है। तुम पीछे वाले स्टेशन से हाथ से इशारा कर बुला रही हो देवयानी, मैं लौट सकता हूँ, लेकिन क्या लाभ होगा कहो? पीछे लौट कर आने से भी एक दिन तुम्हारे साथ आज की अनुभूति के स्टेशन में पहुँचना पड़ेगा, जहां पर सुछंदा और मैं अभी हूँ। तब कहो देवयानी इतना पीछे लौटकर फिर से उसी जगह पर आकर पहुँचने का कोई मतलब होता है क्या? तुम्हारी उम्र अभी छोटी है देवयानी। उम्र बढ़ने के साथ-साथ अनुभव बढ़ने पर एक दिन समझ सकोगी जीवन के संबंधों की कोई निश्चित परिभाषा नहीं हो सकती है। केवल इतना कहने के अलावा कि जीवन बड़ा विचित्र होता है, बहुत विचित्र यह ही दावा।इन दावों के सामने सब क्रीतदास है। ऐसी ही हमारी जीवन यात्रा।
      कहानी का अंत इस तरह होता है कि हमारे कहानी के नायक फिर से अपने हाथों से दाढ़ी करना बंद कर देता है, घर के एक कोने में पड़ा रहता है सेफ़्टी रेजर, जंग लग जाती है, ब्लेड से नाखून या पेंसिल काटता है और सप्ताह में एक बार सैलून जाता है अभिजीत- सुछंदा के साथ लड़ाई-झगड़ा होने पर भी उसका मायके चला जाना सब बंद हो गया है।अनाश्चर्य सुछंदा, अभिजीत के गालों पर अल्प बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ एडजस्ट कर लेती है।                  
                                               





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