दक्षिण दरवाजे वाला घर
दक्षिण दरवाजे वाला घर
उस शहर जाने
का रास्ता इस तरह है।पहले तुम्हें अमुक रेलवे स्टेशन पर उतरना होगा,प्लेटफॉर्म से बाहर आने पर एक मध्यवर्गीय बाजार
मिलेगा। बहुत सारे रिक्शे वाले तुम्हारे पास दौड़कर आएंगें। मगर तुम उस शहर में
रिक्शे से मत जाना, क्योंकि
शायद ही कोई आज तक उस शहर में रिक्शे से गया होगा। इसके अलावा,अगर तुम रिक्शे वालों के चार्ज सुनोगे तो और जाने की
इच्छा नहीं होगी। अगर तुम्हारे पास लगेज होगा तो सामान उठाने वाले कुली तुम्हें
मिल सकते हैं दो-तीन रुपये में। अगर तुम्हारे हाथ में कम सामान है,जिन्हें तुम अपने हाथों में उठाकर ले जा सकते हो,तो किसी भी आदमी से पूछ सकते हो उस शहर में जाने वाले
रास्ते के बारे में।वे लोग एक कच्चा रास्ता दिखाकर कहेंगे,यही है उस शहर में जाने वाला रास्ता।तुम उस रास्ते
में आगे बढ़ते जाना,बस कुछ दूर
आगे जाकर पाओगे एक लेवल क्रासिंग,जहां पर तुम
आते-जाते लोगों से पूछ सकते हो उस शहर की तरफ जाने वाले रास्ते के बारे में।लोग
तुम्हें ट्रेक लाइन के पास से एक दिशा दिखाकर कहेंगे,इस रास्ते से जाइए,जल्दी पहुँच जाएंगे। यही केवल रास्ता है,जहां से तुम्हें जाना है,उस रेल लाइन
के किनारे-किनारे पगडंडी पर आगे बढ़ते जाना,शहर को पीछे छोड़ते हुए और अपने साथ खेत,मैदान,नाले और
मिट्टी की परत को साथ लिए हुए।प्लेटफॉर्म छोड़ने के ठीक एक घंटे बाद तुम सोच सकते
हो कि तुम्हें और कितना रास्ता तय करना होगा।नहीं,बेचैन मत होना,आगे दिखाई
देने वाला कोयले के खदान-अंचल का ‘पिट’(हेडगीयर), अर्थात् जमीन के नीचे जाने का रास्ता।ऐसे यहाँ पर
अनेक “पिट” बने हुए हैं। सभी पिटों के अलग-अलग नंबर हैं।बेचैन मत
हो,आगे दिखाई
देने लगेगें पक्के घर,ऐस्बेस्टास
छत की कॉलोनी,वही है
शहर।तुम्हें और 15 मिनट चलना
पड़ेगा।उसके बाद मिलेगा वह शहर,अर्थात् वह
कॉलोनी जहां ‘ज’ पहुँच गया।शहर छोटा है,मगर उसे शहर कहा जाएगा या नहीं,इस बात में संदेह है। सारे घर कतार बद्ध,मगर एक कतार की दूसरी कतार से दूरी नजरों के दायरे में काफी दूर।पान-सिगरेट
की दुकानें भी दो-तीन हैं। चावल-दाल की दुकानें बहुत सारी है। एक कॉपरेटिव स्टोर
भी है।एक एम.ई. स्कूल है और एक खेल का मैदान भी।हाँ,शहर के उस तरफ है सरकारी डाक्टर खाना अर्थात पब्लिक हेल्थ सेंटर।खपरैल छतों
वाले घरों की एक स्वतंत्र कॉलोनी।इस अस्पताल में आस-पास के गाँव के लोग आते
हैं।खदान का भी एक अस्पताल है। कोयला खदान में काम करने वाले मेडिकल-सिक लेने के
लिए यहाँ आते हैं,अर्थात्
छुट्टी की जरूरत होने पर वे अस्पताल का रुख अपनाते हैं।इस शहर के लोग हँसते नहीं,बल्कि बिना किसी कारण के क्रोधित अवश्य हो जाते
हैं।शाम को सात बजे के बाद रास्ते में केवल शराब भट्ठी या खदान से आने-जाने वाले
लोग देखने को मिलते हैं।
ऐसे शहर में पहुँच गया था ‘ज’ अंधेरी रात
में।‘ज’ शाम के समय पहुंचा था उस शहर में उस समय सूर्य अस्त
हो गया था।अंधेरा होने में थोड़ा समय बचा था।उस शहर में पहुंचते समय कच्चे कोयले के
जलने की उत्कट गंध के धुएँ में उसका नाक रुद्ध हो रहा था।यह धुंआ गृहस्थियों के
चूल्हों से बाहर निकल रहा था। मगर इस छोटे कस्बे जैसे शहर में, जो कस्बा भी नहीं शहर भी नहीं,टाउनशिप कहने पर उसका वास्तविक नामकरण उपयुक्त नहीं
होगा,उस जगह पर
किस तरह रात बिताएगा ‘ज’?
रास्ते के दोनों तरफ ऐस्बेस्टस की छतों वाले
घरों को पीछे छोड़ते हुए धुएँ की लहरों को काटते हुए ‘ज’ आगे बढ़ता
गया, घरों में
रेडियो की तेज आवाज और गीतों को सुनते हुए।नहीं,इन घरों का कोई भी दरवाजा उसके लिए खुला नहीं था।इस शहर में उसका कोई जान
पहचान वाला या परिचित नहीं था।
तब वह क्या करता?कुछ समय तक वह इधर-उधर घूमता रहा।उसके बाद अंधेरा घिर
जाने बाद,रेल लाइन के
किनारे छोटे खपरैल घरों से बने हुए मार्केट के भीतर पहुँचते ही वह समझ गया यहा
कहीं शराब की भट्ठी हो सकती है। दुर्गंध से उसका नाक फटने लगा,मगर उसके चारों तरफ लोग निर्विकार भाव से खड़े थे मानो
उनके सूंघने की शक्ति खत्म हो गई हो। उसके बाद वह एक होटल में चला गया और आधा कप
चाय का ऑर्डर दिया। उसके सामने बैठे हुए आदमी ने एक पाव ‘फ्रूट’ मंगाया। नौकर लड़के ने दो गिलास लाकर दोनों के सामने रख दिया। उसके बाद
गिलास में आधा कप चाय और सामने बैठे हुए आदमी के गिलास में आधा तरल पदार्थ। ज
आश्चर्य चकित हो गया कि इस देश में फ्रूट का मतलब तरल पदार्थ होता है।फिर गंध से
समझ में आया कि यह किस प्रकार का तरल पदार्थ है।फल और फूलों के रस में अधिक
विटामिन होने की बात उसे याद आ गई।उसका मन हँसने को कर रहा था,मगर उसे याद आ गया कि वह उस शहर में अकेला और बेसहारा
है।उसे एक आश्रय खोजना होगा कम से कम आज के लिए ही सही।
‘ज’ होटल वाले
के पास से उठ गया और सामान संभालते हुए पूछने लगा,“अच्छा,बता सकते
हैं क्या,एक रात
बिताने के लिए यहाँ कोई जगह मिलेगी?होटल,भाड़ा घर,कम से कम सोने के लिए एक बेंच?मैं इस शहर में एकदम नया हूँ।”
दुकानदार ने आश्चर्य के साथ इधर-उधर देखते
हुए कहा,“नए आदमी
लगते हो? क्या किसी
के पास कोई काम है?किसी को
पहचानते हो?तुम तो अजीब
आदमी हो। कोई जान-पहचान नहीं,क्या काम
खोजने आए हो?नौकरी क्या
पेड़ का फल है? नहीं। हमारी
दुकान में सोने के लिए कुछ भी जगह नहीं है।इस अंचल में रात को सात बजे के बाद
मार्केट बंद हो जाता है।यहाँ किसी पर विश्वास नहीं है।चोर का भय.....”
बाध्य होकर ‘ज’ को वहाँ से
जाना पड़ा। इस तरह से घूमते-घूमते एक ऑफिस के बरामदे में एक बेंच पर सिर के नीचे
दोनों हाथ को तकिए की तरह रखकर सोते हुए ‘ज’ सोचने लगा।
सोचा कि वह
जैसे एक संग्रामी बन गया है।दुःख क्या होता है? दुख से इतना डरता है वह? दुख,विषाद,शोक को लेकर कहानी लिखता है,लेकिन इस समय,इस निराश्रय
शहर में वह अकेला और उसके पास एक पैसा भी नहीं है।भविष्य में क्या करेगा,क्या नहीं करेगा उसे मालूम नहीं है। फिर ऐसे भूखे-पेट
में भी सो गया है-लेकिन दुख की अनुभूति तो नहीं हो रही है!हमारे सारे अनुभूति-बोध
के अक्ष में क्या जंग लग गया है।
क्या जरूरत थी स्वास्थ्य कर्मी वाली नौकरी
छोड़ देने की?मगर ठीक
है।क्या उस नौकरी से उसका
मोनूमेंट लग जाता!यह तो अच्छा ही हुआ।जीवन में कुछ एडवेंचर होना भी जरूरी है। उसे
अवश्य एक न एक दिन नौकरी मिल ही जाएगी।आजकल किस फार्मासिस्ट को नौकरी नहीं मिली है?उसका तो रेजिगनेशन भी हेल्थ ऑफिस से एक्सेप्ट नहीं हो
रहा था। कुछ नहीं हुआ तो उस जगह वह वापस चला जाएगा।
‘ज’ की नींद टूट
गई थी किसी की आवाज सुनकर।आंखेँ खोलते समय भोजपुरी भाषा में दरबान पूछ रहा था।उसके
हाथ में एक लाठी थी।पायजामे के ऊपर खाकी वर्दी,पाँवों में बिना मोजे के जूते।दरबान अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए बेंच
पर दो बार लाठी पीटकर पूछने लगा,“. तुम कौन हो? यहाँ क्यों सोए हो?”
‘ज’ ने यथासंभव
उसे समझाने की कोशिश की कि वह इस शहर में नौकरी की तलाश में आया है।उसने यह सबकुछ
भी समझाया कि वह फार्मेस्यूटिकल केमिस्ट्री में डिस्टिंक्शन से डिप्लोमा पास करने
वाला फार्मासिस्ट है।
मगर दरबान अपनी जिद्द पर अड़ा रहा और कहने
लगा,“ये सब मुझे
कहने से क्या लाभ? तुमने यहाँ
सोने की परमीशन ली है?मुझे परमीशन
दिखाओ?किसी मैनेजर
या पर्सनल ऑफिसर ने लिखित परमीशन दी है? उससे छोटे ऑफिसर की लिखी परमीशन नहीं चलेगी।यह जनरल ऑफिस है,यहाँ पर्सनल ऑफिसर का राज चलता है।चीफ इंजीनियर से
लिखवाकर लाने से भी नहीं चलेगा यहाँ।”
‘ज’ ने उसको
समझाने का प्रयास किया कि वह पर्सनल ऑफिस से मिलने के लिए ही तो आया था।सुबह होने
दो,ऑफिस खुल
जाने दो।
बिहारी दरबान क्रोधित हो गया।दो बार बेंच पर
लाठी पटकते हुए वह कहने लगा,“मैं
तुम्हारा कोई भी बहाना सुनना नहीं चाहता।पहली बात,अगर तुमने परमीशन लाई है तो दिखाओ,उसके बाद भले ही सारी रात सो जाओ।दूसरी बात,अगर परमीशन नहीं है तो यहाँ से उठकर इज्जत के साथ अपना रास्ता नापो।नहीं तो,पुलिस चौकी में ठूंस दूंगा।आजकल क्या जमाना आया है
बाबा! सभी मेरी नौकरी खाने के पीछे लगे हुए हैं।”
‘ज’ को इस बार
गुस्सा आ गया,“अच्छे
बुद्धू हो तुम! पर्सनल ऑफिसर से मिलने ही तो आया हूँ। उससे मिले बिना परमीशन कैसे
लाऊँगा?”
दरबान की
फिर से वही बात,हाथ आगे
बढ़ाकर कहने लगा,“शीघ्र
परमीशन दिखाओ?”
इस तरह अनेक विरक्तिकर तर्क-वितर्क के बाद ‘ज’ पर्सनल
ऑफिसर के ऑफिस से बाहर आ गया।अपमान बोध के कारण उसके कान गरम हो गए थे।बाहर आकर
रास्ते के ऊपर वह खड़ा हो गया।इस आधी रात को वह कहाँ जाएगा?
उसके दूसरे दिन ग्यारह बजे उस ऑफिस में
पहुँचने पर रात वाला दरबान दिखाई नहीं पड़ा। ऑफिस में लोगों की भीड़ थी।फाइलों के
अंदर खोए हुए एक बूढ़े आदमी को ‘ज’ ने पर्सनल ऑफिसर के ऑफिस के बारे में पूछा। फाइल के
भीतर मुंह घुसाकर बैठे हुए आदमी ने मुंह ऊपर उठाकर देखा तक नहीं।केवल घंटी बजा दी।
कुछ समय चुपचाप खड़ा रहा ‘ज’। उस आदमी
ने कलम की मून से जिस तरह घंटी बजाई,मानो उसके पास सिर उठाने की फुर्सत तक नहीं थी। फिर से ‘ज’ ने उससे
पर्सनल ऑफिसर से भेंट करने के
बारे में पूछा तो फिर से उस आदमी ने घंटी बजा दी।
आश्चर्य! हर प्रश्न के जवाब में उसे घंटी के
शब्द सुनाई दे रहे थे। कुछ समय अधीरता से उसने इंतजार किया और फिर से उस आदमी से पूछा तो गला खंखारते हुए वह कहने
लगा,“ कैसे आदमी
हो तुम? देख नहीं
रहे हो मैं बार-बार घंटी बजा रहा हूँ,तुम अधीर हो रहे हो?”
‘ज’ को कैसे समझ
में आता कि पर्सनल ऑफिसर के साथ भेंट करने का उपाय पूछने का अर्थ केवल कॉलिंग बेल
बजाना है?वह अप्रतिम
भाव से चुप हो गया।कुछ समय तक इंतजार करने के बाद फाइल लाने वाला बाबू उस आदमी के
सामने खड़ा हो गया। इतनी देर तक मुंह ऊपर न उठाने वाले आदमी को किस तरह बाबू की
उपस्थिति का अहसास हो गया कि फिर से एक बार गला खंखारते हुए कहने लगा,“इतनी बार घंटी बजाने के बाद भी नहीं आए?कहाँ मर गए थे? जाओ बाबू को चाँद साहब के रूम में ले जाओ।”
कल रात दरबान से पर्सनल ऑफिसर की प्रतिपत्ति
सुनकर ‘ज’ समझ नहीं पाया था कि वह इतना शीघ्र उससे मिल पाएगा। किवाड़
धकेलकर भीतर जाने से पूर्व सप्रतिभ स्वर में उसने कहा,“ मे आई कम इन,सर?”
उत्तर आया,“यस,कम इन।”
‘ज’ ने देखा
उत्तरदाता के प्रवीण चेहरे का गांभीर्य,मुंह में चुरुट,शरीर पर
काला कोट-सूट। विनम्रता पूर्वक एप्लिकेशन को आगे बढ़ाते हुए ‘ज’ ने कहा, “सर, एक दरखास्त थी।”
चुरुट के
पीछे भाग को मुंह में टिकाते हुए उसने कहा,“व्हाट? कौनसी
दरखास्त?”
“फ्राम ए रिलाएबल सोर्स, आई केम टू नो दैट द पोस्ट ऑफ ए फार्मेसिष्ट” इत्यादि अँग्रेजी शब्दों में लिखी हुई एप्लिकेशन उसके हाथ से चुरूट पीने
वाले आदमी के हाथ में चली गई।
उसने और कोई उत्तर ‘ज’ से नहीं
पूछा।“आई ऑफर माई
केंड़िड़ेचर फार द पोस्ट ऑफ सेम” लिखी हुई
एप्लिकेशन पर नजर डालते हुए वह कहने लगा,“हमारी हास्पिटल में पोस्ट खाली है? मुझे मालूम नहीं।”
‘ज’ भौचक्का रह
गया। इस प्रश्न का वह क्या उत्तर दे पाता?
पर्सनल ऑफिसर कहने लगा,“हास्पिटल का इंचार्ज हमारे पास रिक्विजीशन
भेजेगा।उसके बाद हम एप्वाइंटमेंट देंगे।अभी तक तो कोई रिक्विजीशन नहीं आया है।”
‘ज’ ने और कुछ
समय तक विनम्रता पूर्वक अनुनय-विनय किया।मगर रिवाल्विंग चेयर में बैठे हुए उस आदमी
ने पेपर-वेट के नीचे एप्लिकेशन रखकर कहा,“सॉरी इन्फ,आई कान्ट
हेल्प यू। रिक्विजीशन आने के बाद ही हम आपकी बात पर विचार कर सकते हैं। इस
एप्लिकेशन को हमारे पास रहने दो।”
‘ज’ निराश हो
गया।जबकि वह जानता था कि पहले साक्षात्कार में उसे नौकरी नहीं मिलेगी। फिर भी वह
निराश क्यों हुआ? ऑफिस से
बाहर निकलकर पॉकेट में हाथ डाला।पॉकेट में जितने पैसे थे,शायद उससे एक समय का खाना आराम से मिल सकता था।उसके
बाद?इस परदेश की
धरती पर कैसे
गुजारा करेगा वह? उसके पास तो
फिर से लौट जाने के लिए किराए के पैसे भी नहीं थे।
‘ज’ ने भविष्य
की ज्यादा चिंता नहीं की। उसके पॉकेट में इतने अल्प पैसे थे कि मात्र दोपहर में
खाना खा लेने से रात के लिए कुछ भी नहीं बचता।तथापि होटल में जाकर उसने खाना खा
लिया।खाना खाने के बाद उसने सिगरेट सुलगाई।दोपहर में भोजन के बाद तंद्रा से उसकी
आँखों की झुकती पलकें किसी आश्रय को खोज रही थी।खोजते-खोजते उसकी मुलाक़ात उस छोटे
बाजार में प्रतिमा के साथ हो गई।
सफ़ेद साड़ी पहने हुए हाथ में इंजेक्शन की
सिरिंज लिए हुए वेदनार्त मगर निरीह चेहरे वाली प्रतिमा ठीक वैसे ही लग रही थी जैसे
उसे कटक के मेडिकल कॉलेज के ईएनटी वार्ड
में देखा था।दोनों आमने-सामने हो गए।
‘ज’ को आश्चर्य
हुआ।प्रतिमा के मुंह से अस्पष्ट आवाज बाहर निकली, “ ’ज’ तुम यहाँ पर?”
‘ज’ ने भी पूछा,“प्रतिमा,तुम यहाँ पर?”
बाद में पता चला कि प्रतिमा का यहाँ पर
स्टाफ नर्स के रूप में एपाइंटमेंट हुए छह महीने हो गए थे। उसी हेल्थ सेंटर में,कॉलोनी के उस पार वाली नदी के पास।
‘ज’ की सारी बात
सुनने के बाद प्रतिमा ने कहा,“ अभी भी तुम
पहले की तरह ऐसे ही पागल हो। बिलकुल भी नहीं बदले हो।इस तरह नौकरी-चाकरी छोड़कर कोई
भटकता-फिरता है?”
‘ज’ लापरवाह की
तरह हंसने लगा।प्रतिमा ने कहा,“मैं यहाँ पर
अकेली रहती हूँ।मेरी छोटी बहन अवश्य पास में रहती थी।मगर वह बारह साल की है,किसी भी काम की नहीं। जैसे-तैसे कुछ बना ले रही थी।
अभी वह गाँव गई हुई है। अस्पताल की तरफ से मुझे क्वार्टर नहीं मिला है।किराए के घर
में रहती हूँ।तुम कुछ दिन मेरे घर में क्यों नहीं रह लेते?”
‘ज’ खुश हो
गया।उसके लिए किसी भी प्रकार की आपत्ति जताने का कोई कारण नहीं हो सकता था।
एक खपरैल घर की छत के आगे खड़ी होकर प्रतिमा ‘ज’ की तरफ मुड़ी,उसकी तरफ देखने लगी और हँसते हुए कहने लगी,“यही मेरा घर है। मतलब भाड़े का घर।”
`थोड़ी-सी दूर पर सरकारी अस्पताल की कंपाउंड वाल
थी।थोड़ी-सी दूर में नदी थी।जिसका नाम था ‘भेड़ेन’।
पीछे की तरफ देखने पर ढलवां जमीन पर बनी
खनन-अंचल की अनेक कॉलोनियां,पीट,छोटा-सा मार्केट और हरे पेड़-पौधों से भरा हुआ जंगल
दिखाई दे रहा था। उस जंगल के अंदर किस तरह रेल्वे-स्टेशन छुपा हुआ है,तुम्हें पता नहीं चल पाएगा।
ताला खोलकर घर के भीतर चली गई
प्रतिमा।पीछे-पीछे ‘ज’।देखने में घर ठीक-ठाक लग रहा था।पहले एक
पैसेज-बरामदा।उसे ड्राइंग रूम कह सकते हो या छोटा घर भी कहा जा सकता है। उसके पीछे
एक बड़ा घर।उसके पीछे फिर से........... एक छोटा घर जिसे प्रतिमा रसोई-घर के रूप
में प्रयोग करती थी।घर मिट्टी की दीवारों से बना हुआ था।पीछे में आँगन खाली पड़ा
हुआ था।
प्रतिमा ने कहा,“मुझे क्वार्टर नहीं मिला।फार्मासिस्ट पास वाले गाँव
में रहता है मगर क्वार्टर ताला डालकर जाता है।”
‘ज’ और क्या
उत्तर देता! उसने पहले जिस नौकरी को छोड़ा था,वहाँ उसे अच्छा क्वार्टर मिला था।पक्का घर,दो कमरों का।उसे छोड़कर दोनों तरफ बरामदा,कीचन,पैखाना और
बाथरूम के अलावा आगे-पीछे आँगन था।दो फैन भी लगे हुए थे। दिन अच्छे से गुजर जाता
था। होटल में खाना,बगल में
किताब पढ़ना,नहीं तो ताश
खेलना और रात में नाइट शो में फिल्म जाना,दिन के समय वार्ड बॉय को चार्ज देकर कुछ समय पेपर पढ़ना,सुख से जीवन कट रहा था। फिर क्यों छोड़ दिया?
प्रतिमा ने पूछा,“तुम्हारी पोस्टिंग कहाँ हुई थी? अचानक नौकरी क्यों छोड़ दी?”
उस समय तक ‘ज’ रस्सी वाली
खाट पर बैठ चुका था।वह कहने लगा,“पता नहीं, मैं क्या खोज रहा हूँ,समझ नहीं पा रहा हूँ: मगर मेरे सीने के अंदर एक खालीपन रह गया है।वह भर
नहीं पा रहा है।मालूम नहीं, यह कोई रोग
है या नहीं।”
प्रतिमा ने एक धोती लाकर उसे दी और कहने लगी,“यहाँ लूँगी नहीं है।मेरे यूनिफ़ार्म की साड़ी यानी धोती
चलेगी?”
‘ज’ ने इस बात
का उत्तर दिए बगैर कपड़े बदलते हुए कहने लगा,“ कभी-कभी मन होता है,मैं अपने
जीवन को अपना अतीत लौटा पाता...छोड़......वही कह रहा था- मेरे सीने की रिक्तता की
बात।”
प्रतिमा हँसे लगी,“तुम ठीक पहले जैसे ही हो।पागलपन अभी तक खत्म नहीं
हुआ।ट्रेनिंग के समय तुम कितने अन्यमनस्क थे-किसी भी विषय में तुम्हारा ध्यान नहीं
लगता था।”
‘ज’ आहत हो गया।प्रतिमा ने पता नहीं उसकी बातों को क्या अर्थ
लगाया कि उसने इस तरह की टिप्पणी की। ‘ज’ को मालूम है
उसकी यंत्रणा प्रतिमा की बुद्धि से परे थी। इस अद्भुत यंत्रणा को पहचान कर
परित्राण कर पाना मुश्किल था।
प्रतिमा ने कहा,“ट्रेनिंग के समय की स्मृतियाँ आज भी याद है? कितने अजीब लड़के थे तुम बाबा! ईएनटी वार्ड में पहली
बार तुमसे परिचय हुआ था। दूसरे दिन विवाह के प्रस्ताव वाला प्रेमपत्र लिखना शुरू कर
दिया था।”
‘ज’ हंसने लगा।उसे मालूम था कि वे सब एक-एक खेल
थे।प्रेम-प्रेम खेल। वे सब खेल घर टूट गए थे।प्रतिमा से वह शादी नहीं कर सकता।उसके
बौद्धिक जगत की परिसीमा में जो कोई लड़की आती है,उसके चाहने के बावजूद
भी उस लड़की की इच्छा पूरी करने की क्षमता ‘ज’ में नहीं
है।
प्रतिमा कहने लगी,“मैं चिट्ठी का उत्तर किस तरह दे सकती थी? अचानक यह सब होता है?” “तब कैसे होता है?” ‘ज’ ने पूछा।
प्रतिमा
शरमा गई। मुंह छुपाकर हंसने लगी,“धत्,तुम बहुत बदमाश हो गए।ऐसा कहीं होता है?फिल्मों में शायद होता होगा,मगर प्रथम परिचय के बाद ही... !”
‘ज’ कहने लगा,“इसका मतलब तुम यह कहना चाहती हो कि प्रेम एक नियम के
आधार पर होता है? मतलब पहले
परिचय,दूसरी
दोस्ती,तीसरी
घनिष्ठता और चौथा प्रेम?”
प्रतिमा मज़ाक करने लगी,“तुम इतनी सारी बातें करना कहाँ से सीख गए हो। इस
दौरान बहुत सारे प्रेम कर चुके हो शायद।”
उस मज़ाक का उत्तर नहीं दिया ‘ज’ ने।वह कहने
लगा,“.मगर हम क्या
उन नियमों को मानेंगे प्रतिमा?मैं क्यों
मानूँगा?सभी जो करते
हैं,ऐसा मैं
क्यों करूंगा? सभी चीजों
में एक कार्य कारण
संपर्क क्यों रहेगा? लिंक बंधे
रास्ते पर चलते के लिए मैं क्यों बाध्य हूंगा?”
प्रतिमा ‘ज’ की तरफ
बड़ी-बड़ी आँखों से देखने लगी।कुछ समझ पाई और कुछ नहीं समझ पाई।वह कहने लगी,“तुम कहते हो,रास्ते में जो कोई दिखाई देगा,उससे प्रेम कर लो। तुम कहते हो-समाज में एक नीति-नियम नहीं रहेगा?तुम्हारे मन में प्रेम का मतलब ‘आया राम गया राम’ की तरह क्षण-भंगुर होगा?”
‘ज’ क्लांत हो
गया था,“मैंने तो
ऐसा कुछ नहीं कहा,प्रतिमा
अथवा मैं क्या कहना चाहता था,मुझे खुद
मालूम नहीं।इस दुनिया,इस समाज के
प्रति मेरी ऐसी कोई धारणा नहीं है अथवा एक दिन ऐसी धारणा थी-आज खत्म हो गई।सच कह
रहा हूँ प्रतिमा-मेरे सीने के भीतर क्या कुछ खो गया है।उस चीज के बिना अस्थिपंजर
के अंदरूनी कमरे में केवल शून्यता भर गई है। मैं नहीं जानता कि वह वस्तु मुझे कैसे
मिलेगी।मेरे किसी भी दर्शन,मूल्य-बोध,कमिटमेंट पर मेरा और विश्वास नहीं रहा।”
सुराही से ठंडे पानी का गिलास भरकर प्रतिमा
उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहने लगी,“पहले अपना
सिर ठंडा कर लो।तुम एक अजीब किस्म के आदमी हो। अजीब कहने का मतलब तुम्हें सहजता से
नहीं भूला जा सकता।”
सारी असहायता को पोंछते हुए ‘ज’ ने पूछा,“मुझे याद करती हो,प्रतिमा?”
प्रतिमा कहने लगी,“तुमने जो चिट्ठी लिखी थी,आज तक उसे संभालकर रखी हूँ।”
‘ज’ रस्सी वाले
खाट पर सो गया। यह धरती बहुत बड़ी है।यहाँ सभी को जैसे भी हो,आश्रय मिल ही जाता है।कल रात बिहारी दरबान से भगाए
हुए ‘ज’ को आज एक घर की छत मिल गई। आराम से उसकी आंखेँ बंद
होती देख प्रतिमा कहने लगी, “रुको,मैं बिस्तर लगा देती हूँ।”
उसके दूसरे दिन ‘ज’ कोयलांचल के अस्पताल में रिक्विजिशन के बारे में
समझने के लिए चला गया।मेडिकल ऑफिसर ने कहा,“ अस्पताल में फार्मासिस्ट की पोस्ट खाली है और मैंने एक साल पहले रिक्विजिशन भेज
दिया था,मगर अभी तक
किसी का एपांइंटमेंट नहीं हुआ है और रिक्विजिशन की क्या आवश्यकता है?अगर चाहते हो तो पुराने रिक्विजिशन लेटर के नंबर ले
सकते हो।”
उसके बाद ‘ज’ की बारी थी
फार्मासिस्ट से रिक्विजिशन लेटर के नंबर लाने के लिए। ‘ज’ जिसके पास
गया,भले ही,वह अधिक युवा नहीं था,मगर वह डिप्लोमा-होल्डर था। वह पूछने लगा,“आप कहाँ के स्टूडेंट हो? कटक या
बुर्ला के?”
‘ज’ ने बताया कि
उसने कटक मेडिकल कॉलेज से पास किया।वह फार्मासिस्ट बुर्ला मेडिकल का छात्र था। वह
कहने लगा,“आप यहाँ
क्यों आना चाहते हो?”
‘ज’ के जीवन में
फार्मासिस्ट होना एक दुर्घटना थी क्योंकि हेल्थ सेंटर की अपनी नौकरी छोड़कर आने के
बारे में उसे मालूम नहीं था। इस प्रश्न का वह क्या उत्तर देता?
फार्मासिस्ट
ने कहा,“मैं हेल्थ
सेंटर में था।उस नौकरी को छोड़कर मैंने भूल की,ऐसा लग रहा है।वहाँ जो कुछ हो न हो,मगर प्रेस्टीज़ थी।यहाँ साले लेबर क्लास के लोग भी आंखेँ दिखाएंगें।”
‘ज’ चुप
रहा।तर्क-वितर्क करता? धत्! शब्द खोजते-खोजते
परेशान हो जाएगा।फार्मासिस्ट ने फिर से कहा,“तुम तो अच्छी जगह पर थे।देखो,लोग क्या देखकर नौकरी करते हैं? अच्छी सोसायटी मिलेगी;स्कूल,कॉलेज की सुविधा होगी,जहां बच्चों की हायर एजुकेशन में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। क्या मिलेगा? हाईस्कूल भी तीन मील दूर और रही तनख्वाह की बात? वही बड़ी चीज नहीं है। हैल्थ सेंटर में प्राइवेट
प्रैक्टिस भी है।”
‘ज’ इतना
सांसारिक आदमी नहीं था,बल्कि वह
बोहिमियान टाइप का आदमी था। इसलिए कुछ खो जाने के दुख के बारे में इतना ज्यादा
चिंतित नहीं था। सोसायटी,स्कूल,कॉलेज के विषय में इतना चिंतित नहीं था। शादी के बाद
घर-संसार बसाना होगा,ऐसी चिंता
ने ‘ज’ को स्पर्श नहीं किया था।
वह चुप रहा।बहुत भाषण सुनने के बाद
रिक्विजिशन लेटर नंबर लेकर जब वह बाहर निकला,उस समय घड़ी में दिन के ग्यारह बज रहे थे।
आवास पर लौटते समय तक प्रतिमा पहुँच गई थी।उसका
अस्पताल बारह बजे बंद होता था,किन्तु वह
अभी भी ‘ज’ के लिए चली आई थी। आकर देखने पर उसे असली व्यक्ति नजर नहीं आया।
“तुमने स्नान कर लिया है?” प्रतिमा ने पूछा।फिर कहने
लगी,“यहाँ पानी
वाला सुबह पानी देता है। कुछ दूरी पर पाइप है,जिसमें सुबह पाँच से सात बजे तक पानी आता है। अभी तो पानी बंद हो गया होगा।तुम नदी में
स्नान करके आ जाओ।”
‘ज’ ने पूरी तरह
झूठ कह दिया कि वह नहा चुका है।प्रतिमा संभवतः थकी हुई थी,अन्यथा ज्यादा पूछताछ से उसे पता चल जाता कि ज’ ने झूठ बोला है और ज्यादा बातचीत न करके वह सीधे
रसोई-घर में खाना परोसने के लिए चली गई।
भोजन करके ‘ज’ बिछौने पर
लेट गया। पास वाली खटिया पर प्रतिमा बैठी रही। उसने कहा,“अकेले रहना बहुत दुखदाई है। एक लड़की और वह भी अकेली
रहे...”
‘ज’ अकेलेपन के
आग की ज्वाला से परिचित था।प्रत्येक क्षण वह उसी ज्वाला में जल रहा था।अतः
संवेदनापूर्ण हाथ बढ़ाते हुए उसने प्रतिमा के हाथ को पकड़ लिया।प्रतिमा ने भी हाथ
छुड़ाने का प्रयास नहीं किया।उसने कहा,“जानते हो? मेरी जब
यहाँ नियुक्ति हुई तो मैं अकेली आई थी।साथ में था एक बेडिंग और एक पेटी।तुम्हें
विश्वास हो रहा है।मैंने अकेले घर किराए पर ले लिया।”
प्रतिमा के इस अकेलेपन के चरित्र को ज’ ने पहली बार अनुभव करने का प्रयास किया। प्रत्येक
मनुष्य अपने आवरण के नीचे नग्न भाव से अकेले होता है।
“कितनी तकलीफ और यंत्रणा में मैंने दिन काटे हैं!”प्रतिमा ने कहा,“एक लड़की का अकेले रहना कितना कष्टदायी है,उसे तुम नहीं समझ सकते। पहले मेरे द्वार पर प्रेम-पत्र रखे होते थे।मैं तो
बहुत डर गई थी।पास के मकान में एक महिला रहती थी।उन्हें मौसी कहकर पुकारती थी।एक दिन मैंने उसे
सारी बात बता दी।मौसी का एक बेटा उन्नीस वर्ष का था एक दिन वह घर की रखवाली कर रहा
था, आधी रात को
किसी ने झरोखे के पास आकर दरवाजा खटखटाया तो वह चिल्ला उठा। यह देखकर वह आदमी भाग
खड़ा हुआ।उस दिन के बाद से उस आदमी के और दर्शन नहीं हुए।उस दिन से मौसी का मंझला
लड़का रात को यहाँ सोने आता है। ”
“कल रात क्यों सोने नहीं आया?”
प्रतिमा शरमाकर बोली,“तुम आ गए हो ना? अब मुझे पहरेदार की क्या जरूरत है? उसे मैंने मना कर दिया है।”
पुनः मन में कुछ सोचकर उसने मुस्कुराते हुए
कहा,“तुम्हारी
मौसी पूछ रही थी कि तुम कौन हो ? मैं और क्या
कहती…?”
‘ज’ ने
मुस्कुराते हुए पूछा,“ तुमने क्या
जवाब दिया?”
शरमा गई प्रतिमा,“तुम बड़े शरारती हो गए हो। तुम्हारी पिटाई होनी चाहिए।”
उसकी बात में क्या ऐसा आभास था। ज’ का हृदय प्यासी नदी की तरह तृप्त हो गया।सोचने लगा-
कितना अकेला हो गया है।बहुत दिन हो गए किसी ने उसके साथ इस तरह की बात नहीं की।वह
यंत्रवत केवल खा-पीकर घूम रहा है।सभी लड़कियों के साथ धीरे-धीरे उसके संपर्क समाप्त
हो गए थे।
खटिया पर रखे प्रतिमा के हाथ को उसने पकड़
लिया।प्रतिमा नहीं शरमाई।ज’ ने कहा,“कटक मेडिकल की बात तुम्हें याद है-प्रतिमा? मैंने तुम्हारे साथ शादी करने का प्रस्ताव रखा था।”
प्रतिमा का चेहरा लाल हो गया। खाट की ओर
पीछे हट गई। सोए हुए ‘ज’ का हाथ प्रतिमा के मुख-मण्डल पर आ गया। प्यार से
सहलाते हुए वह पूछने लगा,“कुछ कहो न, प्रतिमा?”
प्रतिमा और ज्यादा शरमा गई,“क्या कहूँगी?”
“तुम्हारी इच्छा नहीं थी?”
“इच्छा न होती तो तुम्हें घर लाती?” यह कहते हुए शायद प्रतिमा
लजा गई। ज’ की हथेलियों
पर उसने अपना चेहरा रख दिया। कुछ समय बाद ज’ रस्सी वाली खाट पर सोता हुआ दिखाई दिया और उसके लोमश सीने पर अपना मुख रखकर
फर्श पर बैठ गई प्रतिमा।
उस व्यक्ति का पदनाम क्या होगा? कार्यालय के समय में इतने व्यस्त ऑफिस के भीतर टाइपराइटर
पर टंकण की आवाज, बाबू लोगों
के गुणा-भाग की गुनगुनाहट की उपेक्षा करके टेबल पर पैर पसारकर गहरी नींद में
खुर्राटे मार रहा था। उसकी टेबल पर सलीके से रखे हुए थे-ब्लोटिंग-पेपर,पेपरवेट,कलम,स्याही और
टेबल क्लॉथ गुलदस्ते में प्लास्टिक के फूल भी थे। पर्सनल ऑफिस की इतनी जमा फाइलें,इतने लोगों की भीड़,टाइपराइटर की खनखनाहट में भी वह व्यक्ति अकेले टेबल पर अपने पसारे हुए
पैरों को हिला रहा था।उस आदमी का काम क्या ज’ को मालूम नहीं था।
उसके पास ‘ज’ गया।पहले-पहल
तेज आवाज देने के बाद टेबल पर ठक-ठक करने पर आँखें खोलकर वह देखने लगा।‘ज’ उसे सभी
विषयों के बारे में समझाने के बाद कहने लगा कि उसने हास्पिटल से रिक्विजिशन लेटर
नंबर लाया है। यह लेटर नंबर किसे देने होंगे?उस आदमी ने पर्सनल ऑफिसर के चेम्बर की तरफ अंगुली दिखते हुए इशारा किया और
फिर से झपकी लेने लग गया।
उस चेम्बर के आगे पहले वाला दरबान बैठा हुआ
था। ‘ज’ को देखकर उठकर खड़ा हो गया और आत्मीयता से पूछने लगा,“तुम्हारा काम हो गया?”
एक दरबान पहली मुलाक़ात के बाद उसे ‘तुम’ कहकर
पुकारेगा,यह बात उसे
पसंद नहीं थी। गुस्सा आने के बाद भी उसने कुछ नहीं कहा और पूछने लगा,“पर्सनल ऑफिसर हैं?”
दरबान ने कहा,“अभी-अभी बाहर गए हैं।मैनेजर भीतर में हैं।जाओ मिल लो।”
भीतर घुसते ही ‘ज’ आश्चर्यचकित
हो गया।पर्सनल ऑफिसर के चेयर के सामने हॉफ पेंट और हॉफ शर्ट पहने एक अधेड़ उम्र का
आदमी बीड़ी पीते हुए स्टेट्- मेन
पढ़ रहा था। सिर ऊपर उठाकर कहने लगा,“येस।”
शॉक लगने की तरह बाहर आ गया ‘ज’।दरबान कहने
लगा,“क्या हुआ? बाहर आ गए?”
“वहाँ तो एक हाफ पेंट पहना हुआ....”
दरबान ने निर्लिप्त भाव से कहा,“वह तो सब एरिया जनरल मैनेजर है! इस कोयलांचल का सबसे
बड़ा अधिकारी।”
इस कोयलांचल के सबसे बड़े अफसर जनरल मैनेजर,फिर हाफ पेंट पहनकर बीड़ी पी रहे है! यह बात ‘ज’ की कल्पना
से बाहर थी।
दरबान शायद इस बार ‘ज’ की समस्या
समझ गया था।वह कहने लगा,“आप शायद इस
अंचल के नहीं है,यहाँ तो
अंडरग्राउंड काम करना पड़ता है,फुल पेंट
पहनकर पीट के अंदर जाया जा सकता है?”
‘ज’ खुश हो गया,दरबान की सफाई से नहीं,आप सम्बोधन से।
दरवाजा ठेलकर फिर चेम्बर के भीतर चला गया ‘ज’।
हॉफ पेंट पहने बीड़ी पीने वाले सब एरिया जनरल
मैनेजर ने फिर से कहा,“यस, व्हाट्स योर डिफिकल्टी?”
पर्सनल ऑफिस से बाहर निकलकर पूरे कोयलांचल
में घूम आया ‘ज’। जेब में एक भी पैसा नहीं था। सिगरेट के काले धुएँ
की एक प्यास उसे बहुत बेचैन कर रही थी।बेकार घूमते समय सिगरेट पीने की जरूरत पड़ती
थी। लेकिन उसे आश्चर्य हुआ,सिगरेट के
बिना भी उसका काम चल जा रहा था।दुनिया में किसी भी चीज के अभाव से किसी का काम
नहीं रुकता हैं। चल जाता है,जैसे- तैसे।
उसने चला लिया,सिगरेट के बिना।सारे दिन घूमता रहा।उस दिन तनख्वाह का
दिन था- इस अंचल के लोगों की भाषा में ‘पगार का दिन’।रास्ते के
किनारे छोटी-छोटी दुकानों के मेले लगे हुए थे।जहां सस्ते कपड़े,स्नो-पाउडर,सूई से लेकर सब्जी तक सब-कुछ मिलता था।निश्चय ही आज का बाजार गरम होगा। आज
पगार का दिन है। इस देहाती शहर में इस अस्थायी बाजार का यहाँ मजदूरों के लिए
चौरंगी,कानटप्लेस
या पिकाडेली के बाजार से भी ज्यादा महत्त्व है।
सब जगह भीड़
लगी हुई है।लोग सब भी कैसे बदल गए है। कुछ घमंडी और उच्छृंखल हो गए हैं। कल तक जिन
लोगों को देखा था,असहाय,दुर्बल,आज वे कैसे अचानक बदल गए। ग्रीक सेनाओं की तरह सिर पर लोहे के टोपी,पाँवों में जूते,मैले-कुचैले कपड़े पहनकर खदान का सायरन सुनकर आने-जाने वाले लोगों के चेहरों पर थी उम्र की क्लांतियुक्त छाप- जैसे
उबली हुई चाय के ऊपर
लाल रंग का आवरण जमा हो गया हो।आज असहायता की तुलना में एक-एक उग्र योद्धा की तरह
हिंस्र आँखों से एक-दूसरे की तरफ अविश्वास की नजरों से देख रहे थे।
रास्ते में लोग दारू पी रहे हैं।बेकार में
झगड़ा कर रहे हैं।‘ज’ ने देखा और घूमने लगा। घूमते-घूमते देखने लगा।शाम को
घर लौटने पर प्रतिमा ने उत्तेजित होकर कहा,“जानते हो,आज कॉलोनी
में मार-धाड़ हुई है।किसी का सिर फूटा है।”
‘ज’ जिस दृश्य
को देखकर आया था,प्रतिमा के
चेहरे पर वहीं दृश्य दिख रहा था।प्रतिमा ने कहा,“एक माह के भीतर ये दो दिन यहाँ खूब खतरनाक होते हैं।सबकी जेबें गरम होती
हैं न इसलिए।जरूर एक-दो फ़ौजदारी केस (मर्डर) भी होते हैं।आज कोयलांचल के पंद्रह
केस रेफर हुए हैं ।कैसी नृशंस हत्याएँ हुई हैं।”
प्रतिमा वर्णन करते-करते थक जाती थी।देखकर
आई होगी खून से लथपथ लाशें। भले ही,एक नर्स के लिए विदारक दृश्य नहीं थे।फिर भी उसका वर्णन इस तरह था,जैसेकि जीवन में पहली बार उसने ऐसे खून देखे हो।
‘ज’ ने कहा,“क्यों ऐसे होता है जानती हो,प्रतिमा? इस निर्जन अंचल में मनोरंजन के कुछ भी साधन नहीं है।कुछ भी नहीं,केवल शिफ्ट के हिसाब से ड्यूटी जाओ,वापस आकर ज़ोर वाल्यूम में रेडियो लगाकर सो जाओ,बच्चों की पढ़ाई देखो,गाली-गलौच करो,शासन करो और
रात को शरीर का वही पुराना खेल खेलते रहो। कितने दिन मनुष्य इस हमोजाइन,मोनोटोनस,स्टीरियो टाइप जीवन जी सकता है?यहाँ सब इंतजार कर रहे हैं पहला,किसी युद्ध-विग्रह,बम विस्फोट
का;दूसरा
चासनाला दुर्घटना,खदान के
भीतर पानी घुसने की दुर्घटना उन्हें भयभीत कर देगी-जीवन के प्रति मोह-माया पैदा कर
देगी।लेकिन कुछ भी नहीं घटा है,जीवन के
प्रति ममता पैदा करने की प्रेरणा पाने के लिए।अंत में,वे कुछ दिन थोड़ा-सा खेल लेते हैं-रक्त का खेल।
प्रतिमा समझ पाई या नहीं,पता नहीं। बात को बदलते हुए वह कहने लगी,“आज जाकर तनख्वाह मिली। जानते हो,तीन महीनों से हमें तनख्वाह नहीं मिली थी।आज बकाया
एरियर भी मिला है। मेरी तो मात्र छ्ह महीने की नौकरी हुई है।तीन महीने के तनख्वाह
में से मैंने घर भेजे हैं मात्र सात सौ रुपए। विश्वास कर सकते हो?”
‘ज’ कितने रुपए
दिए है डेढ़ वर्ष की नौकरी के अंदर। बल्कि पहली नौकरी में कुछ महीने बिना तनख्वाह
की छुट्टी लेकर पूरा ओड़िशा घूम लिया था और घूम-घूमकर क्लांत होकर नौकरी पर वापस
आया था।दूसरी बार रिजाइन कर यहाँ आया है।कितने रुपए उसने अपने घर भेजे है, यह सोचकर
उसके मन की मिट्टी गीली हो गई एक शोक की बारिश में।
उस दिन शाम को कुछ रुपए मांगे थे प्रतिमा से
‘ज’ ने। उसकी जेब खाली थी।सिगरेट पीने के लिए पैसे नहीं
थे। लेकिन प्रतिमा से पैसे मांगने में उसे भीषण संकोच लग रहा था। उसने अपने अहं को
ओढ़ा रखा था लोहे का ढक्कन।वह और अपने आपको रोक नहीं पाया। पैसे मांग लिए। अंत में उसने कहा,“ तुम निश्चित रूप से मुझे बुरा सोच रही होगी,प्रतिमा?”
आश्चर्यचकित प्रतिमा ने पूछा,“क्यों?”
“एक पुरुष के पास कुछ पौरुष होना आवश्यक है।जिसके पास
पैसे नहीं,जो किसी
लड़की के उपार्जन पर चलता हो-ऐसे पुरुष पर दया अथवा घृणा ही तो आती है।”
प्रतिमा विव्रत हो गई,“छि! ये सब क्या बोल रहे हो? मेरे पैसों पर क्या तुम्हारा अधिकार नहीं है? तुमने तो नौकरी के लिए एप्लाई किया है। हो सकता है
मिल जाए।”
अन्यमनस्क होकर ‘ज’ ने कहा,“क्या पता?”
अचानक प्रतिमा ने कहा,“तुम हेल्थ-सेंटर की नौकरी पर वापस क्यों नहीं चले
जाते?”
इस प्रश्न से चौंक उठा था ‘ज’। “क्यों? ऐसे क्यों कह रही हो,प्रतिमा?”
प्रतिमा ने उत्तर दिया,थोडा-सा शरमाकर,“हेल्थ-सेंटर में नौकरी करने से हमारी शादी के बाद हम एक जगह पर रह सकते
हैं।ऐसे भी तुम यहाँ खदान में रहोगे।मैं ट्रांसफर होकर चली जाऊँगी कालाहांडी या
फूलबनी। कैसे घर चलेगा,कहो तो?”
प्रतिमा ने कहा और शरमा गई। ‘ज’ क्लांत हो
गया। हेल्थ-सेंटर का नाम सुनते से उसे नींद आ जाती थी। लालफीताशाही से त्रस्त एक विराट ऑफिस,जहां हर काम के लिए पहले पैसे फैंकने पड़ते हैं।
हेल्थ-सेंटर में आदर्श मनुष्य के रूप में कोई बच कर रहता है?
प्रतिमा ने फिर एक प्रस्ताव दिया,“तो तुम्हारा चयन कोयलांचल की हॉस्पिटल में हो जाने के
बाद मुझे वहाँ ले जाओगे।”
“हम दोनों मिलकर बहुत सारे पैसे कमाएंगे।” प्रतिमा ने मज़ाक किया,“तुम मुझसे शादी कर रहे हो पैसों के लिए नहीं तो?”
‘ज’ जानता है,वह प्रतिमा से शादी नहीं कर सकता।प्रतिमा उसकी
मानसिकता से एडजस्ट नहीं कर सकती है,और यहाँ अर्थ-सर्वस्व दुनिया में भी ‘ज’ रुपए-पैसे
की केयर नहीं करता है। मगर यह बात उसको समझाने का क्या फायदा है?
प्रतिमा ने कहा,“मैं बहुत कम खर्च में घर चला लूंगी,देखना। सौ रुपए के भीतर।”
“तब तो बहुत जल्दी एक स्कूटर
आ जाएगा।” झूठे आनंद
से ‘ज’ नाचने लगा।
प्रतिमा ने सिर हिला दिया,“ऊहूँ।स्कूटर नहीं।तुम्हारे जैसे मोटे लोग के लिए
मोटर-साइकिल चाहिए।”
: “और सोफासेट?”
: “फ्रिज भी।”
: “और गैस चूल्हा?”
: “गोदरेज आलमीरा भी।”
प्रतिमा ‘ज’ के कंधे पर
सिर रखकर कल्पना के स्वर्ग में पहुँच गई। लेकिन ‘ज’?
उसके मन के भीतर एक ट्रेन,लंबी व्हिसिल बजाकर चली गई।पीछे रह गई प्रतिध्वनि
उसके सीने के गह्वर में।
घास की तरह सूखे शिशिर को अपनाने के लिए
प्रतिमा बेचैन थी,मगर शिशिर
का जीवन कितना लंबा होता है,कहिए?
रात को खाना खाने के बाद सिगरेट बाहर
निकालकर खाली पैकेट को फेंकते देखकर प्रतिमा ने उसे मांग लिया।वह सिगरेट के खाली
खोल लेकर क्या करेगी,सोच नहीं
पाया ‘ज’। वह आश्चर्य चकित हो गया। मगर प्रतिमा ने उसे लेकर
घर के एक कोने में सजा दिया,जहां ‘ज’ के सिगरेट
के अनेक परित्यक्त खोल रखे हुए थे।वह कहने लगी,“जब तुम मेरे पास नहीं होंगे,तब इन सिगरेट के खाली खोलों को देखकर तुम्हारी याद आएगी और तुम्हारे हाथों
के स्पर्श की भी।मैं इन खोलों को छूकर तुम्हारे हाथों के स्पर्श को अनुभव करूंगी।”
‘ज’ के सीने के
भीतर स्नेह की अद्भुत बाढ़ आ गई और साथ ही साथ दुख की भी। ‘ज’ ने कभी भी
प्रेम के इस तरह इमोशनल इन्वोल्वमेंट को अपने अंदर घुसने नहीं दिया था।उसके पास
शारीरिक तौर पर सोना,बैठना ही
पर्याप्त था।मगर इस क्षण उसके मन में किशोरावस्था और यौवनावस्था की संधि पर बैठे
हुए अनुभूतिहीन युवक की तरह हृदय में अनेक ज्वार उठ रहे थे,जिसकी पीठ पर समय की प्रतीक्षा का बोझ लदा हुआ था।उसे
प्रेम के इंतजार में बैठना चाहिए था।मगर उसे मालूम था उसके बौद्धिक मानसिक स्तर से
कदम-ताल मिलाकर चलने में प्रतिमा अक्षम थी। उसके लिए दूसरी लड़की होनी चाहिए थी। वह
कहाँ से लाएगा? बहुत दिन
बीत चुके थे,उसका किसी
भी लड़की के साथ कोई और अटचमेंट नहीं था। वह पुरानी लड़कियों के नाम पते भी भूल गया
था। यह एक विचित्र असहायता थी। उसने उस अपनी असहायता पर काबू भी पा लिया था।
कुछ समय दर्पण के सामने खड़ी होकर प्रतिमा ने
सामान्य शृंगार किया। उसके बाद खटिया के पास आकर दो बिछौनों की जगह एक बिछौना
बिछाया। सोने से पूर्व ‘ज’ से कहने लगी,“देखो,रात को किसी
तरह की हरकत मत करना। अच्छे बच्चे की तरह सोते रहना।”
ठीक उसी समय उसे प्रताप की बात याद आ गई।
प्रताप ने उससे कहा था,“प्रतिमा
मेडिकल कॉलेज के किसी लड़के से प्यार करती है।”
उसने पूछा,“प्रताप को जानती हो? एक्स-रे
टेक्निशियन वाला प्रताप? अभी चौद्वार
में है।” प्रतिमा
कहने लगी,“उस छोटे
लड़के को नहीं पहचानूंगी? हम सभी उसे
छोटा बच्चा कहते थे। मिनी को जानते हो? हमारे ग्रुप की नर्सिंग स्टूडेंट थी। अभी फुलबानी में है।”
“प्रताप और मिनी की शादी हो गई। दोनों एक-दूसरे को
बहुत प्यार करते थे।”
“जानता हूँ।”
“तुम प्रताप को कैसे जानते हो?” प्रतिमा ने पूछा
“जानता हूँ।इस दुनिया में इतने लोग हैं, एक न एक तो जानना ही पड़ता है।”
“मिनी और मैं,दोनों बहुत गहरे मित्र थे। केंदुझर में आई कंपाउंडर ....”
‘ज’ ने कहा,“प्रताप कह रहा था तुम मेडिकल कॉलेज के किसी लड़के से प्यार करती थी।”
प्रतिमा विचित्र लड़की थी। न उसे शर्म आई और
न उसे डर लगा। बिना कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहने लगी,“झूठी बात।”
“सच में तुम उसे प्यार नहीं करती थी?”
प्रतिमा ने कहा,“तुम अंधेरे में लाठी घूमा रही हो।”
“सच में?”
“क्या कहा था?”
“कहा तो,तुम एक मेडिकल के लड़के से ....”
“झूठी बात। तुम बहुत ही ईर्ष्यालु हो।”
‘ज’ चुप हो
गया।वास्तव में प्रताप ने उसे कनक,मिनी,प्रतिमा की
कहानियाँ बताई थी,उसके ग्रुप
की कहानियाँ।कौन किसको प्यार करता है।कौन किससे शादी करेगा,वे सारी बातें। मगर प्रतिमा ने ‘ज’ की बात पर
कुछ भी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
उस रात एक दुर्बल उत्तेजक पल में प्रतिमा के
कान के पास मुंह ले जाकर पूछने लगा,“उस मेडिकल लड़के के साथ तुम्हारे कभी शारीरिक संबंध नहीं बने थे?”
प्रतिमा इस बार भी नाराज नहीं हुई। वह कहने
लगी,“तुम बहुत
शक्की हो,नहीं?”
यह कहकर उसने ‘ज’ को बाहों
में ले लिया।
दोनों शरीर अलग होने के बाद ‘ज’ ने उठकर
सिगरेट सुलगा ली। लालटेन बुझ गई थी। वे उसी अंधेरे में बैठे रहे। वह समझ गया था,प्रतिमा ने जो शरीर उसे पहली बार दिया है,वह शरीर पहले से अक्षत नहीं था।‘ज’ ने तो अपने
पौरुष अनेक स्त्रियों में बाँट दिया था। अब प्रतिमा के अक्षत यौवन के बारे में
इतनी चिंता क्यों?
पर्सनल ऑफिस के अंदर कोने में पाँव ऊपर रखकर
सोते हुए आदमी को पार करके ‘ज’ बाहर चला गया। फाइलों के अंदर मुंह छिपाए लोगों को
भी। टाइपराइटर के ऊपर शब्दों के समुद्र में डुबकियाँ लगाने वाली लड़की को भी।एक दंभ
भरने वाले इंसान की तरह इस बार दरबान को नजर-अंदाज कर पर्सनल ऑफिसर के चैंबर से
सामने वाले किवाड़ को धकेलते हुए भीतर चला गया वह और कहने लगा,“‘सर,थोड़ा काम था।”
पर्सनल ऑफिसर अखबार पढ़ रहा था। मुंह ऊपर
उठाकर देखने लगा,“यस,ओह आप!”
“मेडिकल रिक्विजिशन के बारे में।”
पर्सनल आफिसर ने हड़बड़ाते हुए कहा,“देट आई नो। आपने इस एरिया के एम्प्लायमेंट एक्सचेंज
में अपने नाम की रजिस्ट्री करवाई है?”
‘ज’ ने कहा,“नाम रजिस्ट्री किया हुआ है मगर इस एरिया में नहीं।”
“अन्य एम्प्लायमेंट एक्सचेंज से आप ट्रांसफर करवाकर इस
एरिया में अपना नाम लाएं।”
‘ज’ टूट गया। वह
बहुत बड़ा काम था। बहुत दिन लग जाएंगे। कम से कम छह-सात महीने। इतने दिन वह
बेरोजगार रहेगा? पर्सनल
ऑफिसर ने उसकी समस्या सुनते हुए कहा,“मगर नियम के अनुसार से हमें स्थानीय लोगों को ही नियुक्ति देना है अर्थात्
इस एरिया के एम्प्लायमेंट एक्सचेंज में नाम दर्ज किए हुए लोगों को।”
‘ज’ के मुंह से
शब्द नहीं निकले।चेहरे पर सूर्यास्त की छाया के समय भोर का बिगुल बजा दिया पर्सनल
ऑफिसर ने,“ देखते हैं,कोशिश करते करते हैं,क्या होता है।”
पर्सनल
ऑफिसर की बात समाप्त होगी,उसे मालूम
नहीं था। वह इतना समझ पाया था कि उसके चैंबर से बाहर निकलना ही ठीक रहेगा।
रात में प्रतिमा ने कहा,“जानते हो! जब मैं पहली बार इस घर में आई थी।उस समय
दरवाजे के कोनों में चिट्ठियाँ पड़ी रहती थी। एक बार आधी रात को नींद टूटने के समय देखा,एक हाथ मेरी तरफ बढ़ता आ रहा था और वह वेंटीलेटर जो
अभी बंद है,उसमें से एक
आदमी झांक रहा था।”
“तुम डर गई होगी?” ‘ज’ ने पूछा।
“नहीं डरूँगी? चिल्लाकर मौसी को आवाज दी,तब वे लोग
भाग गए। एक अकेली लड़की के लिए नौकरी करना
बहुत कष्टप्रद हैं।”
“तब तुमने मेरे प्रेमपत्र को रिफ़्यूज़ क्यों किया था?” ‘ज’ की आवाज में आहत क्रोध के स्वर प्रकट हुए,पता नहीं क्यों?
“सही कह रही हूँ।” प्रतिमा ने कहा,”कटक में दिन
किस तरह कट जाते थे,पता नहीं
चलता था। मेडिकल कैंपस,नर्सिंग
हॉस्टल,साथ-साथ
मैटनी-शो में फिल्में देखने जाना,मंगल बाग
में मार्केटिंग करना,फिर बारह
घंटे की ड्यूटी।वे बाउल के सारे पेड़। क्वार्टर कॉरिडर। अभिज्ञता पर अभिज्ञता।
ट्रेन के कमरों की तरह रोगियों के साथ उनके परिजनों के साथ आत्मीय संबंध। उसके बाद
डिस्चार्ज टीसी के साथ उन्हें भूल जाने के नियमों से बंधा जीवन, बहुत कुछ था। मुझे कभी भी मालूम नहीं पड़ा कि अकेलापन
क्या होता है। शादी करने या प्रेम करने की जरूरत मुझे महसूस नहीं हुई।”
‘ज’ ने मज़ाक भरे
लहजे से पूछा,“फिर
आवश्यकता महसूस कब हुई?”
मगर प्रतिमा ने इस मज़ाक को नजर-अंदाज कर
दिया।वह कहने लगी,“जिस दिन
उसका अकेलेपन से सामना हुआ,उस दिन से
यह मालूम हुआ अकेले जिंदगी जीने में बहुत कष्ट हैं। यह भी समझ गई कि जिंदा रहने के
लिए साथी की जरूरत होती है।”
‘ज’ असहायता के
भीतर खो गया। प्रतिमा कितनी आशा लिए हुए है,मगर ‘ज’ जानता है उसके लिए विवाह का मतलब असहायता है। हर दिन
उसी मोनोटोनी संलाप के भीतर लकीर खींचे रास्ते पर चलना उसके लिए संभव नहीं है।वह
क्रीतदास होकर नहीं रह सकता।
प्रतिमा ने कहा,“कटक मेडिकल फिमेल सर्जिकल वार्ड में एक औरत रहती
थी।उसका कोई नहीं था,फिर भी वह
रहती थी। वार्ड का खाना खाकर जिंदा थी।वार्ड ही उसका घर था। कभी उसे देखा है?”
‘ज’ ने कहा,“हाँ,देखा उसे,जब वह मर गई थी तो उसके हाथों की चाँदी की चूड़ियाँ भी
दोनों सिस्टरों ने
निकाल ली थी।”
अचानक ‘ज’ को याद आ गई
सीमा की बात। उसकी सुंदर हंसी हाथ हिलाकर ‘टाटा टाटा,’ ‘बाय बाय’ करने की भंगिमा।वह कहने लगा,“राऊरकेला के इन्दिरा गांधी हॉस्पिटल के मैटरनिटी
वार्ड में एक लड़की है-सीमा।डेढ़ साल की लड़की।उसके माता-पिता इन्दिरा गांधी
हॉस्पिटल। एक स्वीपर ने उसे हास्पिटल कैंपस से लाकर चीफ सर्जन मिसेस बंबारी को
दिया था। जन्म के कुछ घंटों बाद मैटरनिटी वार्ड के नर्सरी में भर्ती हुई थी,जो अब तक है। बहुत ही खूबसूरत बच्ची! उसकी हंसी एकदम
मार्वलस!उम्र कितनी होगी? दो-तीन साल
मात्र।वार्ड की सिस्टर और डाक्टर उसे खूब प्यार करते हैं। उसका जन्मदिन मनाया जाता
है। केक काटा जाता है। जानती हो? मैं उस लड़की
को एडाप्ट करूंगा।”
प्रतिमा मज़ाक उड़ाने लगी,“अरे,तुम
मैटरनिटी वार्ड को क्यों जाते थे? किसी सिस्टर
को प्रेम-पत्र देने के लिए?”
‘ज’ के मानस-पटल
के बरामदे में सीमा घूमती रहती थी,दौड़ती रहती थी। एक असहायता उसके सीने के भीतर बादलों की गर्जन करने लगी।वह
कहने लगा,“वास्तव में
मनुष्य क्या है,प्रतिमा! एक
स्वार्थी प्राणी,जो अपने
रक्त-मज्जा से बने हुए शिशु को कुत्ते-भेड़ियों के सामने फेंक देता है? या एक दयालु प्राणी,जो अनजान लावारिस बच्चे को लाकर मनुष्य बनाता है?फिर वह व्यक्ति विशेष इतना निर्दयी,स्वार्थी क्यों हो जाता है?प्रतिमा,इसलिए मैं नहीं समझ पाया कि मनुष्य क्या है?स्वार्थी या दयालु? बुद्ध या
हिटलर?अगर कुछ लोग
अच्छे और कुछ लोग खराब होते हैं तो एक अच्छा मनुष्य भी कुछ लोगों के लिए खराब क्यों होता है?अच्छे आदमी की परिभाषा क्या है? खराब मनुष्य की संज्ञा क्या है?”
प्रतिमा ने कहा,“तुम अपने को किस श्रेणी में गिनते हो? अच्छा या खराब आदमी?”
बहुत ही विचित्र प्रश्न था। क्या उत्तर देता
‘ज’? उसने पूछा,“तुम क्या सोचती हो?”
पहले कुछ समय के लिए चुप रही प्रतिमा। फिर
कहने लगी,“तुम्हारे
बारे में पहले मेरी धारणा अच्छी नहीं थी।मैंने तुम्हें अनेक लड़कियों क साथ बहुत
बार देखा।मगर तुम्हारे पास ऐसा क्या है,लड़कियां नहीं संभाल पाती? मैं भी
अंतिम समय तक नहीं संभाल पाई।”
“ऐसा क्या है?”
“मुझे क्या पता? शायद तुम्हारे लोमश सीने में आश्रय की गहरी प्रतिश्रुति है।”
‘ज’ हंसने लगा,“मगर मेरा तो खुद का ठिकाना नहीं है। मैं किसे सहारा
दे सकता हूँ। प्रतिमा,तुम तो
जानती हो,कई लड़कियों
के साथ मेरे संबंध थे,साधारण भाषा
में मेरा चरित्र अच्छा नहीं था। फिर तुम्हें मेरे ऊपर इतना विश्वास क्यों है?”
प्रतिमा ने उत्तर दिया,“ गंगा से विशद गहरा तुम्हारा
हृदय/गांठ में बंधा तुम्हारा स्नेह/कदम फिसलने पर खेद होने का दर्द/बचने का उपाय
बताओ?”
‘ज’ ने अनुभव किया कि उसके सीने में उल्टे कबूतर की तरह
प्रतिमा गुंटर-गू कर रही थी। अस्पष्ट भाव से उसने कहा,“मैं अपने मन को नहीं समझ पाया,प्रतिमा। मैं अपने हृदय को खोज नहीं पाया। ये क्या हो
रहा है,प्रतिमा!”
शायद प्रतिमा को सुनाई नहीं पड़ा।कुछ समय
आवेग में आकर वह पूछने लगी,”क्या सच में
मुझे प्यार करते हो?”
‘ज’ को याद आ गई
काम्यूक के ‘आउट साइड’ उपन्यास का कथानक। नायिका अपने उपन्यास नायक से पूछ
रही है,“सच में,तुम मुझे प्यार करते हो?”
ऐसे ‘आउट साइड’ के संलाप की तरह ‘ज’ ने कहा,“इन सारी चीजों का कोई मतलब नहीं है। जो प्रेम-फ्रेम किताबों में लिखा हुआ है
शायद मुझे मालूम नहीं।”
“तुम मुझसे शादी नहीं करोगे?” संदिग्ध स्वर में प्रतिमा ने
पूछा।
“करूंगा,यदि तुम कहोगी”।
‘ज’ के
निर्लिप्त भाव को प्रतिमा समझ नहीं पाई। आश्चर्यचकित होकर कहने लगी,“मगर तुम मुझे प्यार नहीं करते हो?”
‘ज’ ने कुछ भी
उत्तर नहीं दिया। और वह क्या कह भी पाता? उसे किसी भी शब्द पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह जो कुछ कहना चाहता था,वहीं कह पा रहा था। यह एक अलग किस्म की असहायता थी।
प्रतिमा ने कहा,“तुम विचित्र पागल हो। तुम्हारी बातों का सिर-पूंछ
नहीं समझ पा रही हूँ। शायद इसलिए मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। और देखोगे,एक दिन शायद मैं तुमसे नफरत करूंगी।”
‘ज’ को फिर से
याद आ गई ‘आउट साइड’ उपन्यास की कहानी। वह पूछने लगा,“तुमने काम्यू पढ़ा है,प्रतिमा?”
प्रतिमा हंसने लगी,“कान्हु चरण? हाँ पढ़ा है। फिर भी मुझे भूपेन गोस्वामी की किताबें अच्छी लगती है। तुम्हें
कैसे लगती है?”
‘ज’ विमर्ष हो
गया और धड़ाक से उठकर बैठ गया।उसके लिए बिछौने पर और सोना संभव नहीं था।प्रतिमा ने
पूछा,“उठकर क्यों
बैठ गए हो? क्या हुआ?”
‘ज’ ने उत्तर
दिया,“मैं सिगरेट
पीना चाहता हूँ। आईसीयू कॉरिडर में दौड़ने घूमने वाली एक छोटी बच्ची अचानक मेरे
सामने खड़ी होकर पूछने लगी: हे आदमी,बता मनुष्य की परिभाषा क्या है?”
प्रतिमा ने इन्स्ट्रुमेंट
सजाकर रखते हुए कहा,“गंगा से
विशद गहरा तुम्हारा हृदय...”
बिहारी दरबान ने हाथ बढ़ाते
हुए कहा,“परमीशन कहाँ
है,दिखाओ?”
प्रताप कहता
था,“केंदुझर आई
कैम्प में मिनी के साथ....”
‘ज’ की नींद टूट
गई। प्रतिमा असंयत तरीके से सोई हुई थी। कितने विश्वास के साथ अपने शरीर के कपड़ों
को इस तरह बिखेरकर सोई है प्रतिमा? इतने शब्द,इतने वाक्य,मगर मनुष्य की संज्ञा को समझ नहीं पाई। ‘ज’ क्लांत हो
गया,एक अव्यक्त
विद्रोह से कांप उठा। मनुष्य स्वार्थी होता है। प्रतिमा एक मेडिकल लड़के के साथ।
प्रताप खड़ा है एक्स-रे की खराब फिल्म को पकड़कर। सारे इस्टाब्लिशमेंट पर पेशाब कर
दे रहा है ‘ज’। सीमा बड़ी होकर क्या करेगी? प्रतिमा घूम रही है अपने एप्रनों में खून के छींटे
लगाकर।
इतने घर होने के बाद भी लोग क्यों
खोजते-फिरते है दक्षिण द्वार वाला घर? कितने लोग उसे पाते हैं कहो? प्रतिमा,मैं ऐसे ही
नए शब्दों का अर्थ खोजता हूँ। वास्तव में अर्थ मिलेगा,प्रतिमा? ‘ज’! तुम क्या
कहना चाहते हो ?
सीमा घूम रही है मेडिकल कॉलेज के रक्त के
छींटे लगाकर। मनुष्य नष्ट इस्टाब्लिशमेंटों के ऊपर क्यों खड़ा होता है? सभी दक्षिण द्वार वाला घर खोजते है,क्यों?
मैं बेकार हूँ,शब्दों की इतनी भीड़ के अंदर जानती हो,मैं कौन हूँ? क्या करना चाहता हूँ, नहीं जनता।
नहीं जानता हूँ,मुझे क्या
कहना चाहिए?
प्रतिमा इस्टाब्लिशमेंट पर प्रताप घूम रहा
है,सीमा मेडिकल
में,बर्बाद
एक्स-रे फिल्म। ‘ज’ खड़ा हो गया। प्रताप के पास खून के छींटों वाली
प्लेट।प्रतिमा,मनुष्य की
परिभाषा क्या है? एक आदमी
पूछता है,मनुष्य
नौकरी क्यों करता है। खून के छींटे। दक्षिण द्वार वाला घर पर। एप्रान। सीमा मेडिकल
प्रताप केंदुझर,प्रतिमा
एक्स-रे। प्रेम। हे आदमी, शब्दों का
अर्थ क्या होता है?
एक उत्तेजना ‘ज’ के अंदर
प्रवाहित होने लगी,घास पर गिरे
ओस के बिन्दुओं की तरह। आँख मूंदकर वह कहने लगा,“सारे शब्दों को तोड़कर मैं नष्ट कर देना चाहता हूँ,पृथ्वी के सारे शब्दों को।मैं नए शब्द गढ़ना चाहता
हूँ।मुझे रास्ता दिखाओ।”
प्रतिमा ने चेतना लौटाई,शायद उसकी नींद टूट गई थी।सिकुड़कर वह पूछने लगी,“क्या हुआ?”
‘ज’ ने
आग्रहपूर्वक कहा,“मुझे अनेक
नए शब्द गड़ने पड़ेंगे प्रतिमा,पुराने घिसे
हुए शब्द अर्थहीन हो गए है।”
प्रतिमा की पलकें मूँदती चली जा रही थी।
शायद उसे सुनाई नहीं दिया। निद्रावस्था में कहने लगी,“सो जाओ,सूरज उगने में अभी बहुत देर है।”
एक उत्कंठा,इतनी जल्दी समाप्त हो जाएगी,’ज’ ने सोचा न
था। ऑफिस में घुसते समय टेबल के ऊपर पाँव रखकर सो रहे व्यक्ति की तरफ इतना ध्यान
नहीं दिया था,बड़े-बड़े बही
खातों के ऊपर पड़े बाबू लोगों को या पर्सनल ऑफिसर के चपरासी का भी। बिना इजाजत के चैंबर में घुसकर आवाज़ लगाई थी,पर्सनल ऑफिसर को जो कुछ लिखने में व्यस्त था,मुंह ऊपर उठाकर उसने देखा। देखकर वह मंद-मंद
मुस्कराया जैसे रोशनी सर्दी के सुखदायक धूप की तरह चारों तरफ फैल गई हो।वह कहने
लगा,“ये आप हैं।
लीजिए अपना एपाइंटमेंट लेटर।कब ज्वाइन करोगे?”
फाइल के अंदर से एक कागज बढ़ाते हुए वह कहने
लगा,“उस बाबू के
पास ले जाओ,वह लेटर
नंबर चढ़ा देगा,आप पियोन
बुक में साइन करके ले जाना।”
‘ज’ का सारा
शरीर कांप उठा।भय से या आनंद से? कागज पकड़ते
समय उसने महसूस किया कि उसकी सारी शरारत कहीं खो गई थी और उसके पास समय नहीं बचा
था उस कागज को पकड़कर रखने के लिए। मानों उसके हाथ से कागज खिसक जाएगा। असंभव तरीके
से उसका हाथ क्यों काप रहा था? किसी तरह
अपने आप को संभालकर बाहर आ गया ‘ज’। आगे कोयलांचल की कॉलोनी।हेलमेट सिर पर लगाकर लोग आ
जा रहे थे।सभी के चेहरे विषर्ण।किसी का किसी से मतलब नहीं।मगर सभी अस्थिर इस
घटनाविहीन मोनोटोनस दिन को लेकर।
यह रास्ता,यह घर-बार,सब कुछ मानो
यंत्रणा के कोहरे के भीतर हो। उसे लगने लगा कि ये सब बहुत पुराने,जाने-पहचाने और अविरक्तिकर है। यहाँ पर काटना होगा
उसे अपना सारा जीवन? ओह,एक दीर्घ जीवन जीते-जीते वह भूल जाएगा इस विशाल
दुनिया को और एक दिन वह सीमित दायरे
में रहते हुए समाप्त हो जाएगा? जान-बूझ कर
वह कैदी होकर रह जाएगा? निर्वासन
वरण कर लेगा? यह सोचकर वह
आगे बढ़ने लगा। वह अपने अस्तित्व का प्रमाण चाहता था। मगर मिलेगा कैसे? इस शहर में कुछ दिन रहने के बाद वह अपना चेहरा तक भूल
जाएगा! यहाँ तक कि दर्पण के सामने खडे होने पर भी अपने-आप को नहीं पहचान पाएगा। वह
क्या यही चाह रहा था? इससे अच्छा
तो फिर से अपनी पुरानी नौकरी हेल्थ सेंटर में चला जाता। वहाँ कुछ नहीं तो बाहर की
दुनिया के साथ संपर्क तो बना रहता। यहाँ तो यह भी नहीं है। इस सीमित दुनिया को
छोड़कर जाने का तो उपाय भी नहीं है।
वह प्रतिमा के क्वार्टर में आ गया। प्रतिमा
उस समय अस्पताल में होगी,वह उसके पास
जाएगा? जाकर कहेगा? मैं आया था यहाँ विजयी होने के लिए,मगर यह कैसी विजय? ऐसी विजय तो मैंने नहीं मांगी थी।मुझे तुम माफ करो। वह कहने लगा,“प्रतिमा,किसी के बिना भी दुनिया में किसी का काम नहीं रुकता है।मुझे न पाकर भी तुम
अपना जीवन चला सकती हो। जैसेकि तुम मेडिकल स्टूडेंट को न पाकर के भी रह पा रही हो।
तुम्हारे लिए मुझे दुःख लग रहा है,फिर भी मैं यहाँ नहीं रह पाऊँगा। क्योंकि मैं एक ऐसी दुनिया चाहता हूँ,जहां मैं यह अनुभव कर सकूँ अपने खून का नमकीन स्वाद,पानी में लोहे का स्वाद। इस मिट्टी ने मुझे खाली हाथ
लौटा दिया। प्रतिमा, मुझे क्षमा
कर दो।”
नहीं,वह यह सारी बातें नहीं कर पाएगा। रहने दो और प्रतिमा के साथ भेंट करने की
कोई जरूरत नहीं। वह तो अपने साथ कुछ लाया भी नहीं था। आज जाते समय प्रतिमा को बहुत
कुछ देकर जाएगा। अनेक स्मृतियाँ। अनेक प्रताड़ना। प्रताड़ना?
‘ज’ कांप उठा और
प्रतिमा के लिए कहने लगा,“प्रतिमा,तुम क्या समझ पा रही हो, हम दोनों में से कोई किसी को प्यार नहीं करता?केवल अकेलेपन का सामना न कर पाने के लिए हमने एक
दूसरे के पास समर्पण किया। मन बहुत ऊंचा है प्रतिमा। शरीर गंदा होने पर साफ किया
जा सकता है मगर मन मैला होने पर नहीं धोया जा सकता। विश्वास करो,मेरे मन के तले बिलकुल भी मैल नहीं है।”
उठकर खड़े होते समय उसकी आँखें प्रतिमा
द्वारा कल सजाए गए सिगरेट के खोलों पर पड़ी,आगे बढ़कर बड़े आदर के साथ उन पर उसने हाथ घुमाया और मन ही मन कहा,“प्रतिमा,इन सिगरेट के खाली पैकेटों की तरह मैं भी तुम्हारी स्मृति बन जाऊंगा। तुम
उन्हें अपने हृदय में सँजोकर रखना।तुम क्या जानती हो यही सबसे बड़ी चीज होती है।
मुझे चिरकाल के लिए इन
चारदीवारी के भीतर पाया,कुछ ही
दिनों में तुम यह अनुभव करोगी।मुझे इस घर के भीतर कहीं खो दिया है? उससे तो अच्छा चिरकाल के लिए तुम मुझे अपनी स्मृतियों
में रखोगी और कभी उन्हें देखोगी।प्रतिमा,मुझे विदा करो।”
रेलवे-स्टेशन पहुँचकर उसने सुना कि एक गाड़ी
के आने की दूसरी घंटी बज चुकी थी। उसने यह भी नहीं पूछा यह कौनसी गाड़ी है,अप या डाउन,कहाँ जाएगी।कुछ भी नहीं पूछा।जेब में हाथ डालकर जितने पैसे बाहर निकाल सकता
था,उतने पैसे
काउंटर की खिड़की पर दे दिए।
बुकिंग क्लर्क ने पूछा, “किस स्टेशन का टिकट लोगे?”
किस स्टेशन का टिकट लेता ‘ज’,कहाँ पर
मिलेगा उसे अपने अस्तित्व का प्रमाण,किस मिट्टी पर खड़ा होकर वह जान पाएगा अपने खून का गरम नमकीन स्वाद? ‘ज’ ने कहा,“इतने पैसों से जितनी दूरी का टिकट मिलता हो उस स्टेशन का टिकट दे दो।”
बुकिंग क्लर्क ने आश्चर्य के साथ देखा ‘ज’ को कुछ समय
के लिए। तीसरी घंटी बजने पर बेचैन ‘ज’ के हाथ से
पैसे नीचे गिर गए।
टिकट लेकर प्लेटफार्म के भीतर आते समय गाड़ी
रुक गई थी,एक
कम्पार्टमेंट के अंदर घुसकर सीट पर बैठकर चैन की सांस ली ‘ज’ ने और ठीक
उसी समय उसे याद आने लगी प्रतिमा की।
साढ़े ग्यारह बज रहे थे,प्रतिमा अस्पताल से घर नहीं लौटी होगी। लौटने के बाद
भी क्या वह समझ पाएगी कि ‘ज’ ने हमेशा के लिए उससे विदा ले ली है? शायद ‘ज’ के आने का
इंतजार करेगी साथ में खाना खाने के लिए। उसके बाद प्रतीक्षा और प्रतीक्षा। ‘ज’ और लौटकर
नहीं आएगा।प्रतिमा क्या हमेशा ‘ज’ के इंतजार में बैठी रहेगी? ऐसा शायद केवल कहानियों और उपन्यासों में होता है या
क्या वह हमेशा के लिए प्रतीक्षा कर सकती है? दर्पण में देखेगी? जिंदगी ऐसी
ही है,दर्पण किसी
की छाया को पकड़कर नहीं रख सकता। मनुष्य के हटते ही छाया चली जाती है।
ट्रेन ने सिटी बजाई,बाहर खड़े हुए लोग रेलगाड़ी में चढ़ गए,गार्ड ने पीछे कम्पार्टमेंट से हरी झंडी हिला
दी।धीरे-धीरे आवाज करते हुए गाड़ी आगे बढ़ने लगी,‘ज’ चढ़ गया, दरवाजे के पास खड़े होकर हाथ हिलाने लगा।उसे सी-आफ
करने कोई नहीं आया था,उसने किसके
लिए विदा होने का हाथ हिलाया? यद्यपि ‘ज’ ने तब तक
हाथ हिलाया,जब तक
स्टेशन आँखों के सामने ओझल न हो गया।हाथ हिलाते हुए अस्पष्ट स्वर में उसने कहा,“विदा!,विदा!!”
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