प्रतिद्वंद्वी

प्रतिद्वंद्वी
हमेशा शब्दों के भीतर डुबा रहता है वह।सुबह से लेकर रात तक कितनी शब्द-लहरियों को पार नहीं करना पड़ता है उसे? सारे शब्दों को ग्रहण कर लेता है, लेकिन अब वह अक्षम है, एक भी शब्द लौटाने के लिए। अक्षम मन के भीतर भाषा के कीचड़ से कई ध्वनि-प्रतिध्वनियों की मूर्ति बनाकर लोगों को उपहार देने के लिए। प्रतिदिन वह ऐसे ही जीता है।शब्दहीन है उसके सीने का प्रकोष्ठ।निर्मम, निष्ठुर रूप से शब्दहीनता निर्जनता की एक क्यारी बन चुका है अब, उसके शरीर के भीतर, शिरा-प्रशिराओं में, स्नायुतंत्र के केंद्र में एवं गहरी चेतना की प्रज्ञा में।
             सुबह उठते ही नित्य दिनचर्या के पदार्थों की तरह कुछ शब्दों की जरूरत पड़ती है। एक कप चाय, टूथ-पेस्ट, एवं शॉवर से गिरते पानी, तेल और साबुन की तरह कुछ शब्दों की जरूरत है प्रतिदिन। लेकिन वह चला लेता है।जैसे कभी-कभी पेस्ट खत्म हो जाने पर साबुन न होने पर, तेल खत्म हो जाने पर अथवा शॉवर से से पानी खत्म हो जाने पर चलाया जाता है। लेकिन प्रतिदिन उसे एडजस्ट करना पड़ता है शब्दों की कमी को। 
            लेकिन सब दिन ऐसे नहीं थे।वह ज़ोर-ज़ोर से हंस सकता था। गाली भी दे सकता था और प्रेम भी कर सकता था। असंख्य शब्दों को लेकर वह छोटे बच्चे की तरह बालू में घर बनाता थी और तोड़ता था। एक दिन वह स्कूटर पर जाते समय,चंड़ीखोल चौक में खो गई थी उसकी भाषा। टूट गया था स्कूटर।उसके खून से लथपथ शरीर को लोग अस्पताल लेकर आए। डॉक्टर वहाँ लौटा लाए थे उसका जीवन। बाद में वापस मिल गया था उसे अपना तंदुरुस्त शरीर और ठीक हो गया था टूटा हुआ स्कूटर; कुछ रुपए खर्च करने पर। लेकिन ठीक नहीं हो पाई उसके गले के हड्डी, जिसकी वजह से उसे अपने शब्दों के स्टॉक वापस नहीं मिले। इस तरह एक अवसन्न समय के भीतर, उसके अन्तर्मन से निकलने वाले सारे शब्दों का भंडार,चोरी हो गया। वह बन गया एक अथर्व,प्रागैतिहासिक प्राणी,जो सुन सकता है,देख सकता है,अनुभव कर सकता है लेकिन मुँह खोल कर कुछ भी बोल नहीं सकता है।
            जिस दिन अस्पताल में उसे होश आया था,सामने देखा था उसने अपनी माँ को। उनकी आँखों में सूखे हुए आंसुओं वाले चेहरे पर करुणा की धूल जमी थी।उसने अपने हाथ बढ़ाकर माँ को स्पर्श किया।बोलने की कोशिश की भरसक। उसके सीने में जमा हो रही थी उस समय अनेक अनुभूतियां। सुख-दुःख, शोक, स्नेह, और ममता की। वह मुँह खोल नहीं सका। बहुत चेष्टा की कुछ बोलने की। लेकिन गले से कुछ अद्भुत शब्द निकल रहे थे।
            शुरू-शुरू में उसे लगता था,‘काफ्काकी कहानी के नायक की तरह वह कीड़ा हो गया है। उसने अपने शरीर की तरफ देखा। नहीं, वह तो ठीक-ठाक है।वह तो ठीक मनुष्य की तरह है। उसके हाथ,पांव,लोमश,छाती और हाथ घुमाकर अनुभव किया कि उसने अपने जीवन की सबसे मूल्यवान चीज को खो दिया है। ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर रोने में भी उसे दर्द होने लगा। आंखों से गिर पड़े दो बूंद आँसू।  उस दिन से धीरे-धीरे एडजस्ट करना सीख गया है। सब चल जाता है। लेकिन कितने दिन ऐसे चलाया जा सकता है? जीवन बहुत  लंबा है।उसको इतना लंबा रास्ता पार करना पड़ेगा,निर्वाक,निर्जन शरीर को लिए। इतनी भीड़, इतना कोलाहल चारों तरफ, फिर भी उसे जीना पड़ेगा।एक निसंग, वाक्-हीन शरीर के मानचित्र को झुलाकर समय की दीवार पर जिंदगी भर?
            काफी दिन हो गए वह बाहर नहीं गया था। इतनी भीड़ में हो-हल्ले के बीच वह अकेला हो जाता है, रास्ते में। मन के घाव पर जैसे कोई दबा रखता है आयोडीन से भीगी रुई को। लेकिन चार दीवारी के भीतर कितने दिनों तक खुद को बांध कर रखा जा सकता है? बाहर जाकर उसका मन हुआ एक सिगरेट पीने के लिए।पान की दुकान के पास खड़े होकर एक कैप्स्टेन माँगने की कोशिश की। लेकिन मुंह से निकलने लगे अर्थहीन विनती के स्वर। पान  दुकानदार को बहुत समय लगा उसे समझने के लिए।हाथों के अनेक इशारों से समझा लिया था,लेकिन तब तक उसकी सिगरेट पीने की स्पृहा कम हो गई थी और पाँच आदमियों के बीच वह एक हास्य का पात्र बन चुका था। किसी सर्कस के जोकर को देखने की तरह संतृप्ति की हंसी हंसते हुए वे लोग उसे देख रहे थे। यह सोच कर उसका चेहरा और कान लाल हो गए।
            सिगरेट के दो-तीन बार कस लेने के बाद उसे एक अव्यक्त गुस्से से फेंक दिया। क्या जरूरत थी उसे सिगरेट पीने की।जबकि एक दिन था वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर बातचीत करते-करते रास्ते के किनारे कलवर्ट पर बैठकर सिगरेट पीना उसका एक शौक था। मगर आजकल यह अभ्यास टूट गया था। अब उसका कोई भी दोस्त नहीं। अपने दोस्तों से मिले हुए बहुत दिन हो गए थे। दोस्तों से मिलकर करता भी क्या? बातचीत नहीं कर पाएगा।उनके फेंके गए शब्दों की गेंद के बदले कुछ भी नहीं लौटा पाएगा वह। ऐसे ही बैठा रहेगा उनके आगे? इस तरह क्या दोस्ती निभाई जाएगी?
               उसके पास से गुजर रहे रिक्शे वाले के पांव रुक गए, पैडल के उपर।  हाथ की मुट्ठियों से ब्रेक पकड़ कर कहने लगा,बाबू रिक्शा? दूसरा समय होता तो वह उठकर रिक्शा में बैठ जाता और कहने लगता,ले जाओ मुझे जीब्रा कूल पर,ग्रांड सिनेमा हॉल,नहीं तो चंडी चौक में। शायद भाड़े के बारे में वह रिक्शे वाले से बहस भी करता। नहीं तो कह देता,तुम्हारे रिक्शे की मुझे कोई जरूरत नहीं। मगर ये सब तो नहीं कह पाएगा। इसलिए उसने सिर हिला कर मना कर दिया। रिक्शा में बैठने का क्या फायदा? बल्कि रिक्शे वाले को यह बात भी पता चलती कि वह बोल नहीं सकता तो वह मंद-मंद हँसेगा,इसलिए ज्यादा यही ठीक है।   
             यह सोचते समय उसका मन खराब हो गया। वह अकर्मण्य हो कर रह गया।  दुनिया के लिए क्या वह मनुष्य रह गया है? शायद नहीं,वह एक ज़िंदा लाश है। अपनी अर्थी ढोते हुए श्मशान से कितनी दूर रह गयी है,उसकी वध-भूमि? उसने महसूस किया कि उसके शरीर और मन के मैदानों में क्लांति का एक मैला आवरण धीरे-धीरे जम रहा है।
            एक कप चाय पीने की उसकी इच्छा हो रही है। मगर वह होटल के भीतर नहीं गया। होटल के बैरा को एक कप चाय के लिए शर्म से मेहनत करनी पड़ेगी,या कागज पर स्लिप लिख कर देनी पड़ेगी। उसके सामने टाउन बस खड़ी हुई थी।उसमें बैठ सकता था वह। अन्ततः गौरीशंकर पार्क तक वह जाता तो कुछ समय कट जाता।मगर नहीं गया। टाउन बस के कंडक्टर को किस तरह वह समझाता,उसके गन्तव्य स्थान के नाम के बारे में।
            तब कहाँ जाएगा वह? तो वह ऐसे ही निरुद्देश्य इधर-उधर भटकता रहेगा। आजकल अकेले बाहर निकलने का उसका साहस नहीं है।कटक शहर के लिए वह इतना पराया हो गया? इसी शहर में तो उसका बचपन गुजरा था।अब इस शहर के लिए वह अनजान व्यक्ति,यह शहर मानो उसके लिए विदेश की धरती हो। मगर जाएगा कहाँ इस संध्या के समय? घर को लौट जाए? घर जा कर करेगा क्या? चुपचाप बैठा रहेगा,नहीं तो सभी की बातें नीरवता से सुनता रहेगा। परिवार के ग्रुप डिस्कशन में भाग लेने की तो उसमें क्षमता नहीं अर्थात् वह एक अकर्मण्य नाबालिग हो गया है।
            उसके बड़े भाई ने अवश्य कई बार नौकरी करने के लिए बात कही है। आजकल विकलांग लोग भी नौकरी करते हैं। वह एक बार एम्प्लायमेंट एक्सचेंज भी गया था,भाई के साथ अपने नाम का भी रजिस्ट्रेशन करवा कर आया है मगर अभी तक कोई कॉल नहीं आया है। उसे पता चल गया है कि धीरे-धीरे वह अपने घर वालों के लिए बोझ बनता जा रहा है। उसे कुछ ना कुछ करना होगा,कुछ तो। जैसे कि भाई के बिजनेस के कागज पत्र देखने की तरह कुछ काम करना होगा। भाई ने कहा था एक बार टाइप सीखने के लिए। मगर लापरवाही से वह कुछ नहीं कर पाया। इस दौरान उसे कुछ ना कुछ करना होगा।
            उसने अनुभव किया बहुत कम समय के भीतर बहुत कुछ खो गया। खो गई उसके मुंह की भाषा, प्रतिपत्ति, उसके बंधु-स्वजन, अपनी दुनिया और उसकी प्रेमिका। कुछ खो गया एक्सीडेंट में और कुछ उसने जान-बूझकर खो दिया। एक्सीडेंट के बाद और वह अपनी प्रेमिका से नहीं मिला। क्या मुँह लेकर जाता वह,वह तो प्रेम के दो शब्द कहने में भी अक्षम था। कभी समय था घंटा-घंटा भर बात करने के लिए प्रतिदिन शाम को प्रतीक्षा करता था। सीने के भीतर थी एक अद्भुत प्यास,शब्दों की प्यास। क्या अब सब खत्म हो गई है? मगर उसे पता है बहुत इच्छा करने पर भी वह उसे पा नहीं सकता और उसकी प्रेमिका का प्रेम भी कितना  क्षणभंगुर! वह भी उसे देखने नहीं आई। आएगी भी क्यों? उसकी प्रेमिका की आँखों में सजे रंग-बिरंगे सपनों को जला कर चूर-चूर कर देगा वह इस तरह,मगर आधी रात को सोते समय आँखों की पलकों के ऊपर उसकी प्रेमिका भद्र गति से उतर आती थी। शरीर के भीतर झरने की तरह उसकी प्रेमिका की स्मृति शब्दों में झरने लगती थी। कई बार आधी रात को वह  उठकर बैठ जाता था। मन होता था तारों भरी एकांत रात को वह अपनी व्यक्तिगत प्रेम कहानी कहेगा,मगर कह नहीं पाता था। मुंह बंद कर केवल पड़ा रहता था। अपने सीने के भीतर वह अनुभव कर सकता था शब्दों को दीमक लग गई हैं। शब्दों के सारे बीज सड़ने लगे थे। इन बीजों को बोकर सपनों की फसल और उगाई नहीं जा सकती। यह सब उसके जीवन के लिए अयोग्य थी।
            दूर में एक चाय की दुकान। वहाँ पर बैठकर कई उसके मित्र अड्डा जमाते थे। जाएगा उधर? जाकर क्या करेगा वह? शायद वहीं लोग पूछेंगे कैसी तबीयत है?
              वह सिर हिलाकर कहेगा, हाँ वह ठीक है। कोई पूछ सकता है; तुम्हारे घर में सभी कुशल तो हैं? वह सिर हिलाकर फिर कहेगा हाँ, अभी क्या कर रहे हो? वह हाथ हिलाकर कहेगा, नहीं,कुछ नहीं कर रहा हूँ,चुप-चाप घर पर बैठा हूँ। उसके बाद? उसके साथ बातचीत करने के लिए उनके पास शब्द नहीं मिलेंगे और अगर बातचीत होगी तो कॉलेज के बारे में, फिल्म के बारे में,प्रशांत नंद,श्रीराम पंडा और साधु मेहेर के बारे में। बनजा महान्ती,संजीवनी पट्टनायक और डाली जेना के बारे में।  कुछ नहीं तो इमरजेंसी,बांग्लादेश और भाव-तौल के बारे में। इतने सारे शब्दों की लहरें उसके सामने होगी। मगर भीतर नहीं घुस पाएगा वह। अस्थमा के रोगी की तरह मफलर से कान ढक कर शरीर पर गरम पोशाक पहन कर वह सतर्क हो कर बैठा रहेगा,समुद्र- स्नान से दूर,शब्दों के समुद्र से निर्भय दूरी तक।
            नहीं,वह नहीं कर पाएगा। इसलिए वहाँ से मुड़कर चला गया और उसके असहाय मन के भीतर शोक की वर्षा से भीग गई उसकी चेतना दुःख को कीचड़ से चारों तरफ। उसके मन के अंदर चुपचाप बैठे इंसान ने कहा,कहाँ गए मेरे पुराने सारे दिन? कहाँ? मुझे ऐसा क्या हो गया और क्या मनुष्य के रूप में बचा हूँ? तब मेरा सारा यौवन सारा परिवेश और सारे सपने कोई चोरी कर ले गया? कितने दिन ऐसे बचे रहूँगा? इस यंत्रणा के आत्म-निर्वसन के भीतर? कहो, कहो,कोई तो कह दो !!
           वह घर आया बाध्य होकर थक-हारकर। घर के दरवाजे के पास खड़ा हो गया,स्टैचू की तरह। यह घर भी तो उसके लिए पराया होता जा रहा है। उसे कुछ उपार्जन की व्यवस्था करनी ही पड़ेगी।  दुनिया में असहायता को आधार बनाकर जिया नहीं जा सकता है। वह सोचने लगा और उसके शरीर के भीतर सारे खांचे ढीले पड़ गए।ढीला पड़ गया सारा शरीर,सिर और दोनों हाथ और दोनों पांव।
            वह किवाड़ ठेल कर भीतर आ गया।उसका छोटा भाई धीमी आवाज़ में पाठ पढ़ रहा था। कभी वह भी ऐसे पढ़ा करता था। मगर अब वह अक्षम, किसी भी किताब का एक भी  शब्द उच्चारण करने में। वह ड्रॉइग रूम को पार करते हुए आगे चला गया। रसोई घर में भाभी, माँ और उसकी छोटी बहन बातचीत कर रही थी। कितने भाग्यशाली हैं!अन्ततः अपनी भाषा में मन के तल की अनुभूति को दूसरे लोगों के सामने व्यक्त कर सकते हैं।कम से कम उनके सीने के भीतर शब्दों के भंडार में दीमक तो नहीं लगा।
            अपने कमरे में घुसते समय किवाड़ की आवाज़ आई। आश्चर्य है कि निर्जीव पदार्थों में भी बात करने की शक्ति है। उसने स्विच दबा कर लाइट जलाई और पंखा चलाया। ऑयलिंग के अभाव से पंखा के घूमने की आवाज़ आ रही है। वह फैन को देखता रहा,वह क्या अक्षम है,फैन की तरह निर्भीक हो कर शब्द करने में भी? वह अक्षम है, वह अक्षम है। उठकर उसने फैन बंद कर दिया।
            कोई रेडियो सुन रहा था बैठकर,वॉल्यूम कम कर, बिना ऑफ किए चला गया है। सुन पाया रेडियो से बहुत धीरे-धीरे शब्दों को आते।उसने उठकर रेडियो का वॉल्यूम कम कर दिया। एक अक्षमता मध्याह्न उसके शरीर के भीतर रेंगते हुए फैलने लगी। क्षोभ में आकर उसने फिर कम कर दिया। फिर बढ़ा दिया और कम कर दिया और फिर ऑफ कर दिया।
            कितने तरह के शब्दों की ध्वनि इस धरती पर घूम रहीं हैं हमेशा से। लेकिन वह इतना अकेला है कि,एक भी शब्द की आवाज़ नहीं कर पाता हवा में। एक चूहा दौड़ गया आवाज़ करते। उसके असहाय होकर खाट पर बैठते समय,पलंग हिलने की आवाज़ होने लगी। उठ कर खड़ा हो गया वह। वह ऐसी एक जगह चाहता है जहां कोई शब्द न हो। सब उसके जैसे होंगे,शब्दहीन,निर्वाक ऐसी जगह कहाँ मिलेगी?
             अपने कमरे से निकलकर भीतर आँगन में खड़े होते समय उसके पास एक आवाज़ तैरती हुई आई। भीतर बरामदे के एक कोने में झूल रहे पिंजरे के भीतर से,कौन हो? क्या कर रहे हो? वह अचंभित रह गया। बाद में पता चला कि वह पालतू तोता है। उसके छोटे भाई ने बहुत मेहनत कर उसे बोलना सिखाया था। तोते ने फिर से प्रश्न किया,वह कौन है? क्या कर रहा है?
            उसे गुस्सा आ गया। घर का एक पालतू तोता,एक सामान्य पक्षी के सामने भी वह असहाय हो गया। उसका उत्तर जीभ पर होने के बाद भी दोषी की तरह चुपचाप खड़ा था। नहीं,वह नहीं कर पाएगा। तोते ने फिर से एक बार प्रश्न किया और वह पिंजरे की तरफ आगे बढ़ा। तोते के एक बार और पूछने पर उसने पिंजरे का दरवाजा खोला और उसे बाहर निकाल दिया। पहले-पहले डरे हुए तोते ने उसे देखकर पहचान लिया। इस बार निर्भय आह्वान कर पूछने लगा,वह कौन है? क्या कर रहा है?
 
            उसका सारा शरीर कांप उठा। मन के भीतर दबा हुआ सारा क्रोध हाथ में जमा होने लगा। उसने हाथ की मुट्ठी से तोते के गर्दन को पकड़ा। उसके मन के भीतर अनेक शब्द घूमने लगे। कहाँ से उखाड़ेगा वह शब्दों के सारे बीजों को? उसके सीने में बहुत अक्षमता है। बहुत असहायता है,मतलब हर किसी के पास हर समय वह हार जाता है। जैसे कि एक पान की दुकान वाले के पास, रिक्शा वाले के पास, बस कंडक्टर के पास और होटल के नौकर के पास और इस तोते के पास भी। नहीं,वह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा।
            उसके हाथ के मुट्ठियाँ कसती चली गई।मुट्ठियों के भीतर था समस्त प्रतिवाद। मुट्ठियाँ और कसती चली गई। तोता अपनी लाल चोंच खोलकर चीत्कार करने लगा। पंख खोलकर छटपटाने लगा। करुणा भरी थी चीत्कार उसकी।वह तृप्त भाव से हाथ की मुट्ठियों को सख्त करता जा रहा था। जब तक कि तोते के मुंह से आवाज़ निकलना बंद न हो गई और उसके पंख और उसका शरीर ढीला न पड़ गया।              
            उसने जब पीछे मुड़कर देखा तो बरामदे के अंदर सभी लोग जमा हो गए थे ड्रॉइंग रूम में पढ़ाई करता उसका छोटा भाई,रसोई घर में बात करती उसकी माँ,सोने जा रहे उसके पिताजी। सभी कुछ दूरी पर खड़े होकर अपनी आँखों में आश्चर्य भरे प्रश्नवाचक लिए हुए थे।
            उसने तोते को उनके सामने फेंक दिया,मानो,शब्दों से भरी दुनिया के प्रति उसका यह नॉन-वर्बल चैलेंज था।  वह उसे फेंक कर तेज-तेज कदमों से अपने कोठरी के भीतर चला गया।
 
 
 









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