पाप-पुण्य के परे
पाप-पुण्य के परे
केवल दो
पाँव सीढ़ियों पर तेज कदम बढ़ाते; उद्दाम चंचल
गति से जूतों की आवाज। ऊपर उठते बेचैन दो चंचल पैर। घुटनों से नीचे सुशांत की
आँखों का स्थायी कैमरा देखते-देखते थक गया था पाँव उनको। लेकिन दोनों पैरों के
असली मालिक की नजर नहीं आया। थकने का तो प्रश्न नहीं। मगर सिर्फ सीढ़ी कूदकर उठ
जाते थे दोनों पैर। उन्हीं घुटनों से नीचे लंबे होते जा रहे थे वे दो पैर।
सुशांत ने कोशिश की अपनी आँखों की परिधि के भीतर दोनों पैरों के मालिक को
देखने के लिए। लेकिन आँखों का कैमरा पैरों तक ही जा रहा था;बिलकुल ऊपर नहीं जा रहा था। सुशांत केवल देख रहा था
दोनों पैरों को। सीढ़ियों को तोड़ने वाले दोनों पैर।
तुम केवल थक जाओगे,हे पैर? सुशांत ने जैसे रोते हुए कहा: “मैं तुम्हें देखते-देखते थक गया हूँ। मेरे पास और
धैर्य नहीं है तुम्हें देखने के लिए। लेकिन पलकें बंद करके रहना अथवा घुटनों के
ऊपर आंखें गड़ाए रखने का सामर्थ्य भी मेरे पास नहीं। पैर,हे दोनों पैर! मेरे ऊपर कृपा करो । दया करके चुपचाप
खड़े हो जाओ अथवा नीचे चले आओ।”
मगर हाय,दोनों पैर
उसी चहलकदमी के साथ ऊपर उठ गए थे जूतों की आवाज के साथ, उसकी बात पर बिना ध्यान दिए, एक सीढ़ी के बाद दूसरी सीढ़ी चढ़ते हुए।
सुशांत रोने लगा। फिर भी
दोनों पैर ऊपर उठते चले गए।
उसने अनुनय
विनय किया,लेकिन
सीढ़ियों पर कदमों की आवाज आती रही,लेकिन बंद नहीं कर पाया। आँखों के कैमरे में सीढ़ियों को मारने वाले पैरों
का दृश्य।
वह असहाय हो
गया। हे भगवान! अब वह क्या करेगा? उसके मन,शरीर,हाथों में अस्वस्तिकर ठंडी अनुभूति की सिहरन दौड़ने लगी। वह नहीं चाहता उस
ठंडी अनुभूति की सिहरन। लेकिन निरुपाय ; उसे ही भोगनी पड़ेगी। गाली देने की कोशिश की,लेकिन समझ गया। उसके मुंह से एक शब्द भी निकल नहीं रहा था। दौड़कर दोनों पैर
को पकड़ ले अथवा उससे आगे बढ़ते जाए। किन्तु समझ गया;उसके पैर जमीन पर लगे हुए थे। वह अपनी जगह से हिलने के लिए भी समक्ष नहीं
था। उसने तेज आवाज में रोना चाहा। लेकिन आँखों से पानी और मुंह से शोक भरी आवाज
निकली।मूर्ति-सा खड़ा होकर,उस क्लांति
दृश्य को देखने के लिए विवश हो गया,अपने सीने में क्षोभ रोककर और असहायता साथ लिए।
उसने दो-तीन बार कोशिश की आँखें ऊपर उठाकर, दोनों पैर के मालिक को देखने के लिए। पहली बार कोशिश की, मगर विफल रही। दूसरी बार भी कोशिश की, फिर भी विफल रहा। तीसरी बार भी। चौथी बार भी। अंत में
सांस रोककर तेजी से सिर ऊपर उठाकर देखना चाहा, मगर वह गिर गया। उस समय उसके चारों तरफ, रात को जलते हुए 40 वॉट बल्ब की
रोशनी,बिस्तर पर
मोड़कर रखी हुई पत्रिका और टेबल के ऊपर रखा हुआ पानी का गिलास। वह बिस्तर से उठकर
बैठा। कुछ समय इधर-उधर सोचने के बाद। गिलास से पानी पीकर तकिए के नीचे रखी घड़ी को
बाहर निकालकर उसने देखा तो उसमें रात के 2.15 बज रहे थे। पत्रिका को उठाकर टेबल के ऊपर रख दिया और उठकर लुंगी को सजाकर
दरवाजा खोलकर बाहर चला गया।
पाँच मिनट के बाद वह दरवाजा खोलकर अंदर आ गया और
स्विच पर हाथ रखा।चालीस वाट के प्रकाश में मौत बुआ घुस आया। रात के 2.20 का अंधेरा। वह बिस्तर पर जा सोते रहा था। लेकिन नहीं जा पाया। रुककर पीछे
मुड़कर दरवाजे की तरफ देखा। बंद है या नहीं,चेक किया,चिटकनी पर
हाथ रखकर। इस बार चिटकनी लगाकर दो-तीन बार दरवाजे को धकेलकर जांच करके लौटकर
बिस्तर पर चुपचाप सो गया।
वह बिछौने पर सोते-सोते अंधेरे के भीतर आँखें खोलकर कुछ समय तक देखता रहा।
याद करने की कोशिश करने लगा। क्या देख रहा था? क्या? दो पैर।
सीढ़ी भंजक दो पैर। बदजात,निर्लज्ज दो
पैर।
हाय भगवान! उसके अस्पष्ट रूप से उच्चारण किया और जैसे लोग उठकर आँखें बंद
करते हैं,वैसे उसने
आंखे बंद की।
सुबह बहुत जल्दी चली जाती है। हाँ चली जाती है सुशांत के पास से। सुबह उठकर
नित्यकर्म खत्म करो,पास की होटल
में जाकर नाश्ता खाओ और अखबार पढ़ो। उसके बाद अपना पोर्ट फोलियो बैग पकड़कर;राणीहाट चौक में खड़े हो जाओ राजधानी बस की प्रतीक्षा
में। इस बीच,सूरज बहुत
ऊपर जा चुका होगा और सुबह हँसती हुई जा रही होगी। सुशांत देखेगा रास्ता,घाट और दुकान बाजार में चलते-फिरते लोगों को और
गाड़ियों में उस समय की कॉलेज जाती हुई छोटी-बड़ी तरुणियों के शरीर पर सुबह नौ बजे
की धूप को। धत् तेरे की ऐसे जल्दबाज़ी करने का क्या फायदा?
सुशांत बस पर चढ़कर रसुलगड़ तक जाएगा। उसके बाद बस-स्टॉप के पास सिगरेट की
दुकान पर एक सिगरेट सुलगाएगा। कभी-कभी ठीक उसी समय वह अनुभव करता था अपनी पीठ पर
आदर पूर्वक रखा हुआ एक हाथ। पीछे मुड़कर वह देखता था और हंसने लगता था।
हाथ का मालिक प्रश्न करता था,क्या बात है? दिखाई नहीं
दे रहे हो? सुशांत
हँसते हुए सिर हिलाकर कहता: बहुत व्यस्त था।
फिर प्रश्न होता था : “बिजनेस कैसा चल रहा हैं?”
सुशांत हँसते हुए सिर हिलाता: “ ऐसे ही। पहले जैसा।”
“कोशिश करो,कोशिश करो। ओडिया लोग ऐसे स्टेप नहीं लेंगें तो उन्नति कहाँ होगी?
यू आर लकी मेन। ऑफकोर्स”
फिर से सुशांत हँसते हुए हाथ हिलाता था:
यह सब कभी-कभी होता है। लेकिन ऐसा ही है, सुशांत और कितने झूठ कहने के लिए मजबूर होता था।
क्योंकि वह कह नहीं सकता कि उसकी ‘उत्कल सप्लाई प्राइवेट लिमिटेड नामक संस्थान को एक भी टेंडर नहीं मिल पा
रहा था। दो महीना हो गए,सुशांत अपने
जमा रखे हुए पैसों को खर्च कर रह था। बैंक में मात्र तीन-चार हजार रुपए बचे
होंगें। इतने पैसों में बिजनेस होता हैं?
किन्तु सुशांत कह नहीं पाता था,नहीं, वह हँसते
हुए सिर हिलाकर कहता है जैसे वह भाग्यवान है और दूसरों का ईर्ष्या पात्र है,लेकिन सुशांत खुद जानता हैं कि उसके पैरों तले की
जमीन जा रही है,धीरे-धीरे।
खिसकती जा रही है।
वहाँ से सिगरेट सुलगा कर,पोर्टफोलियो
बैग पकड़कर चलते-चलते पहुँच जाता है दो मंजिल वाले घर में;जहां नीचे भाड़े का घर और ऊपर में उसका और अरिंदम का
ऑफिस। दो साइन बोर्ड टंगे हुए हैं,एक उत्कल सप्लायर्स प्रा.लिमिटेड,दूसरा मैसर्स दानी ब्रदर्स। सुशांत ने कुछ समय तक चुप रहकर साइन बोर्ड की
तरफ देखा। उसके बाद सीढ़ी वाले घर की तरफ चला जाता है। सीढ़ी के बीच अरिंदम का
स्कूटर पड़ा रहता था। वह उसे देखकर,चुपचाप खड़ा हो जाएगा,जैसे वह आज
चुपचाप खड़ा है, पहली सीढ़ी
पर पैर रखकर।
अभी-अभी
सुशांत कुछ समय पहले बस स्टॉपेज पर उतरकर सिगरेट खरीदकर खुश मन से चलकर सीढ़ी चढ़ने
से पहले खड़ा हो गया। इतनी लंबी सीढ़ी, इतने स्टेप्स। हाय! हाय! वह कैसे चढ़ेगा? सीढ़ी चढ़ने में थकान नहीं, मगर इतने
स्टेपों का अतिक्रमण करना होगा,सोचकर वह थक
गया। कैसे वह ऊपर जाएगा? ऊंचा जाएगा,कैसे जाएगा?
उसकी आँखों में सपने वाले वही दोनों पैर दिखाई देने
लगे। सपने में क्या दोनों पैर सीढ़ी भंजक थे? वे दोनों पैर क्या अरिंदम के थे,जो उससे पहले पहुँच जाते थे हरदम? एक प्रकार का दुख सुशांत के चारों तरफ छा गया वह दीवार की तरफ सटकर खड़ा हो
गया।
एक दुख का
आँधी तूफान,हताशा की
हवा बहने लगी सुशांत के मन के भीतर। दो महीने हो गए एक भी टेंडर नहीं मिल पा रहा
था,सीढ़ी चढ़नी
होगी,क्योंकि वह
जानता हैं,सीढ़ी चढ़
नहीं पाया तो इस दुनिया में कोई उसे नहीं पूछेगा बहुत कष्ट से पैर आगे बढ़ाया
सुशांत ने।
एक संकोच,हाँ एक संकोच;अचानक सुशांत के ऊपर मंडराने लगा। निगाहों में भीगी बिल्ली जैसा संकोच।
चेहरे पर लाजवंती (एक पौधा का नाम) लता जैसा संकोच। शरीर पर संकोच और भय की सिहरण।
भय की? हाँ भय की? अरिंदम से एक खतरनाक डर उसके सीने में लगने लगा। उसने
अनुभव किया कि उसके सीने की इंद्रियों को कोई खटखटा रहा है-अनुभव किया उसने और वह
मुंह नीचे करके बैठ गया।
कुछ समय पहले,अरिंदम ने जब हँसते-हँसते टेबल के ऊपर रखी हुई चिट्ठी को दिखाकर किसी असभ्य की तरह आँख मलते हुए कहा- तेरे लिए आज उसने चिट्ठी दी
हैं।
अरिंदम का इस तरह का व्यवहार। अर्थात् आँखें मारना और
इच्छापूर्वक बात कहने से ऐसा लग रहा था जैसे वह एक खराब काम करते हुए पकड़ा गया हो।
टेबल गहरे भूरे लिफाफे में सरकारी चिट्ठी और उस पर जय श्री के हाथों से लिखे
हुए अक्षर बैठ कर हँस रहे थे।
सुशांत डर गया क्यों? इतना डर गया
कि अरिंदम की टेबल से सारी चिट्ठियाँ उठाकर जाते समय उसका हाथ कांप रहा था। हाँ,हाथ कांप रहा था, पैर भी। किसी भी तरह वह अपने टेबल और चेयर के पास आकर बैठ गया और डर अनुभव
करने लगा। फिर वह चेहरा नीचे करके बैठ गया। अरिंदम की तरफ नहीं देख पाया और सारी चिट्ठियाँ
नहीं फाड़ पाया। ऐसे की,खुद को
पसीने से तर-बतर करने वाली बातें अनुभव करने के बाद भी अरिंदम की तरफ मुंह करके
हवा फेंकते पंखे को अपने तरफ लाने के लिए निर्देश नहीं दे पाया। कर सकता था,मगर कारण स्वाभाविक होता था। किस समय में क्या हो
जाएगा, यह सोचकर
में बैठा था मुंह नीचे करके।
उसके बाद;पहले बात
करना आरंभ किया अरिंदम ने,”तेरे उसकी
क्या खबर है?”
“:ऊ: भाई अरिंदम ! जयश्री का मज़ाक मत उड़ाओ। जानते हो तो
जयश्री बहुत असहाय है। दीर्घ 5 साल से वह
मुझे प्यार कर रही है। लेकिन पता नहीं इस पाँच साल के भीतर मेंने अपने आप को खत्म
कर दिया है। और मेरा कुछ बचा नहीं है।” यह सुशांत कहना चाहता था,लेकिन कह
नहीं पाया,वह चुपचाप
बैठा रहा।
अरिंदम लापरवाही से बोला-“मैंने पहले
ऐसे बहुत प्यार किए थे। बहुत सारे,दोस्त। तेरी बुद्धि खुलने से समझ पाएगा,लड़कियों की छातियों में हृदय नहीं है; है तो सिर्फ पैसा। नारी! प्रताड़णा ही तुम्हारी नाम है। नारियों से मैं घृणा
करता हूँ,खरीद लेता
हूँ फिर खेल खत्म करके फेंक देता हूँ। नारी खरीदने वाली चीज से ज्यादा कुछ नहीं
है।” सुशांत मुंह
नीचे करके बैठा रहा। दूसरा समय होता तो शायद बहस करता और कहता, “तुम जयश्री को नहीं जानते
हो। वह बहुत ही साधारण लड़की है। उसके बाएँ हाथ में सिर्फ तीन लकीरें हैं,मात्र तीन और कोई तारा,त्रिभुज या चतुर्भुज नहीं है। लेकिन मुझे देखो,पूरा हाथ लकीरों से भरा हुआ है। कनिष्ठ और मध्यमा के
नीचे अर्धवृत्त हाथ के मणिबंध से कपटी मध्यमा तक गई हैं एक रेखा,लेकिन जयश्री के हाथों में ऐसा कुछ नहीं। विदेश रेखा
नहीं है,भाग्य रेखा
नहीं है,जैसे जीवन
के सारे रास्ते उसके के लिए बंद कर दिए गए हो। पता हैं,वह मुझे प्यार करती हैं,इसलिए उसके खाते में इतने दुख हैं। सच में,इतने दुख उनके नाम जो मुझे प्यार करते थे। लेकिन मेरे
जैसे हतभागी ने उसे क्या दिया? जो माँ,बाप मुझे प्यार करते थे,लेकिन मैंने उन्हें क्या दिया? बुढ़ापे में भी उनकी कुछ मदद नहीं कर पा रहा हूँ। मेरी
माँ ने मुझे गर्भ में धारण किया था,मेरा पालन पोषण किया;उसे क्या
मिला? पापा ने
मेरे लिए क्या-क्या सपना नहीं देखा? जयश्री को क्या मिला; पाँच साल तक
मुझे प्यार करके भी? मैं क्या
इतना पापी हूँ किसी को कुछ नहीं दे पाया? जिसने मुझे प्यार किया,उसका सारा
हाथ साफ हो जाएगा और मैं पाप में डूब जाऊंगा।”
सुशांत ने जाने-अनजाने में कहा,लेकिन एक पाप-बोध मुझे मार देता है।
कह तो दिया
बिना सोचे-समझे अनजाने में और आश्चर्य-चकित होकर अरिंदम हंसने लगा,उसके आश्चर्य चकित होने की बात नहीं थी कहने लगा,तेरा मूल्यबोध कब बदलेगा? देट बल्डी हिप्पोक्रेट पुराण, वुड बिलीव इट? धर्मराज्य का सपना देखते हो, किन्तु केवल काम-विज्ञान और व्यभिचार की कहानियों से भरे पड़े हैं। नृसिंह
पुराण कभी पढ़ा है? पृथ्वी का
श्रेष्ठ काम-शास्त्र। महाभारत कभी पढ़ा है? ओल्ड टेस्टामेंट।पढ ले। देखना,तू जिसे पाप समझ रहा है वे सब बिलकुल पाप नहीं है। तूने शराब पी है? मैंने पी है। ब्राथेल कभी गया हैं? मैं गया हूँ। और सुन,मैंने जी.पी. सिट्स का कोटा पाने के लिए एप्लिकेशन दी है। काला बाजार के
लिए,में कलकत्ता
और दिल्ली में सप्लाई करने के लिए। मैं केवल रईस होना चाहता हूँ। इन पैसों से
सब-कुछ खरीदा जा सकता है मनुष्य का मांस,मनुष्य का हृदय,मनुष्य का
मन,मनुष्य की
बुद्धि एवं समग्र पृथ्वी।
लंबा-चौड़ा भाषण देने के बाद,अरिंदम थक गया। थक गया इसलिए कि इतनी सारी बातों के बाद भी सुशांत कुछ नहीं
बोल रहा था। यह देखकर उसे आश्चर्य हुआ और वह चुपचाप बैठा रहा। बैठे-बैठे सुशांत को
देखता रहा।
सुशांत भी थक गया। थक गया था अरिंदम का भाषण सुनकर। बोर हो गया था
सुनते-सुनते और असहाय हो गया था और सिर नीचे करके देख रहा था जयश्री हाथों के लिखे
अक्षरों को लिफाफे पर।
अरिंदम ने अब पूछा: “तुझे डीएचएस
ऑफिस का टेंडर भी नहीं मिला? लेकिन मैं
स्योर था,मुझे मिल
जाता। तेरे लिए टेंडर छोड़ दिया। तेरी बुद्धि कब खुलेगी?”
सुशांत
उत्तर देने की जगह सोचने लगा: “हाय! मेरे
हर टेंडर रिफ़्यूज़ हो रहा हैं। जीवन की बाजी लगाकर टेंडर भेजा है। वे लोग रिफ़्यूज़
करके लौटा देते हैं। जयश्री ने 5 साल में ऐसे
ही अपने आपको खत्म कर दिया है; मैं बूढ़ा हो
रहा हूँ अब मेरा...... कुछ नहीं तुम्हें मैं क्या दे सकता हूँ,जयश्री।”
यह सोचते ही उसके आँखों के सामने तैरने लगे,सीढ़ी के पहुँच पर लांगते कूदते आगे जाते दो बेचैन पैर। दो अहंकारी पैर।
उसने देखा और असहाय हो गया,ढूंढ़ते हुए।
टेबल के ऊपर से सारी चिट्ठियाँ अपने हाथ में पकड़कर,जेब में डाली और खड़े होकर दरवाजे की तरफ चला गया।
अरिंदम ने पूछा: “इस दोपहर
में कहाँ जा रहे हो?”
उसने उत्तर दिया: “देखता हूँ,कहाँ जाऊंगा?”
निकलते समय रास्ते में बस खड़ी थी। सुशांत
दौड़कर उस बस में चढ़ गया। भुवनेश्वर बस स्टेंड तक खड़े-खड़े जाना पड़ेगा,वह सोच रहा था। लेकिन बस एकदम खाली थी। कटक-भुवनेश्वर
जाने वाली बसें भी ऐसे ही कभी-कभी खाली आती है-यह सोच कर उसे आश्चर्य होने लगा।
वह बस के अंदर चला गया। कंडक्टर ने उसकी तरफ आँख उठाकर नहीं देखा। क्लीनर
ने अनमने भाव से दो घंटी बजाई। ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट की। खुद को संभालते हुए
सुशांत बैठ गया लेडीज सीट के पीछे वाली सीट पर। किसी ने उसकी तरफ आँख उठाकर नहीं
देखा।
लेडीज सीट पर बैठी हुई एक मात्र लड़की ने पीछे देखा और हँसते हुए कहने लगी।
सुशांत भैया?
सुशांत ने चोंक कर उधर देखते
हुए कहा, “अरे!”
: “पहचान रहे हो?” लड़की ने पूछा।
: “हेमंती हो न? कितने दिनों के बाद तुम्हारे साथ मुलाक़ात हुई है।
पाँच साल बीत गए,कॉलेज छोड़े
हुए? अब क्या कर
रही हो?”
: “एयर होस्टेस।”
“वाह! वह बहुत ही खतरनाक काम है। कितनी
ऊंचाई तक उड़ना पड़ता है? कितने देशों
की यात्रा कर चुकी हो? तुम एयर
होस्टेस बनकर देश-विदेश की यात्रा कर रही हो? सोचने मात्र से थ्रिलिंग होता है। नहीं?”
हेमत्ती हंसने लगी, “तुमने अपने बारे में कुछ
नहीं कहा,क्या कर रहे
हो?”
बात बदलते
हुए;सुशांत ने
पूछा: “गोपबंधु की
खबर पता है? वह अब
बंगलुरु के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में प्रोबेशनरी ऑफिसर है।
: “अच्छा,वही सिम्पल चहेरे वाला गोपबंधु? ईस्ट हॉस्टल का जर्नल एडिटर था? बहुत अच्छा लड़का था?
: “हेमंती,वह अभी बच्चा नहीं है, अब एक दायित्व सम्पन्न अधिकारी है। हम प्राय भूल जाते हैं कि हमारी उम्र भी
बढ़ती है।”
: “जय सिंह की खबर है?”
“एकबार दिल्ली में मुलाकात हुई थी,कह रहा था लखनऊ या इलाहाबाद में पढ़ रहा है, वह तो अब बड़ा आदमी बन गया है जेएनयू में लेक्चर।
रिसर्च फ़ेलोशिप के काम में कई बार अफ्रीका गया था।”
आजकल और किसी के साथ मुलाकात नहीं होती है।
कभी-कभी ऐसा लगता है कॉलेज के वे सारे दिन जैसे गुम हो गए हैं और उन्हें ढूंढा
नहीं जा सकता। हेमंती ने हंसने की कोशिश की, एक उदास हंसी। पूछने लगी, “याद हैं
कॉमर्स ब्लॉक की ओर जाने वाली गली में एक बार तुमने मुझे कहा था कि तुम बड़े कवि
बनोगे। अब तो ओडिया पत्रिका भी पढ़ने कॉ नहीं मिलती है। पढ़ने के लिए समय भी नहीं
है। लिखा पढ़ी कैसे चल रही है?”
: “मेरे कविता-संग्रह पर शायद
इस बार अकादमी पुरस्कार मिल जाएगा। शायद नहीं भी। देट नेस्टी पॉलिटिक्स।” सुशांत ने सफेद झूठ कहा।
क्यों कहा?हेमंती,गोपबंधु, जयसिंह अथवा
देवदास के बराबर होने के लिए? सीढ़ी चढ़ते
उन दोनों पैरों से ईर्ष्या करते हुए।
हेमंती ने पूछा, “और क्या कर रहे हो
नौकरी-चाकरी?”
सुशांत ने अपने पोर्ट फोलियो बैग से
विजिटिंग कार्ड निकालकर हेमंती की तरफ बढ़ाया और कहने लगा “बिजनेस करता हूँ।”
“ कैसा चल रहा है।”
थूक निगलते हुए वह कहने लगा, “हाँ अच्छा चल रहा है।”
हेमंती ने कहा “तुम तो बहुत अच्छे हो। बिजनेस,कविता,पैसे और मान-सम्मान सबकुछ तो मिला है। तुम बहुत सुखी हो।”
यह कहकर उसने दीर्घश्वास छोड़ी। बस तब तक
भुवनेश्वर बस स्टैंड पर पहुँच गई थी। हेमंती उठ गई और पूछने लगी, “कहाँ जाओगे?”
कहाँ जाएगा सुशांत? उसके पास ठिकाना तो कुछ नहीं था अपने गंतव्य-स्थान का? लेकिन हेमंती को यह कहने के लिए उसका मन नहीं हुआ कि
उसके पास कुछ काम नहीं है। इसलिए अपने आप को व्यस्त दिखाने की कोशिश करने लगा, “ए.जी.ऑफिस में बहुत सारे बिल
पड़े हैं। साले ऑडिटर अपने आप को मंत्री के बाप समझ रहे हैं। उधर जाता हूँ एक बार
घूमकर आ जाऊंगा।”
हेमंती ने रिक्शे वाले को हुड उठाने का आदेश
देते हुए सुशांत से कहने लगी, “मैं छह नंबर
में रहती हूँ। मौसा के घर में – आज रात की
ट्रेन से कोलकाता चली जाऊँगी। अगर संभव होगा,पूरी हावड़ा एक्स्प्रेस्स में मुलाक़ात करना।” यह कहते हुए हाथ हिलाते रिक्शे में बैठकर हेमंती नजरों से ओझल हो गई।
एक उनीस-बीस साल के लड़के ने अपने सहपाठी से
कहा था कि वह बड़ा कवि बनेगा। लेकिन उसके लिए इतने झूठ बोलने की क्या आवश्यकता थी? सारी बातें क्या रखी जा सकती है? पापा को तो उसने बहुत वायदे किए थे। घर पक्का बनाऊँगा,जमीन ख़रीदूँगा,माँ के लिए गहने बनवाऊंगा,लेकिन कितने
वायदों पर खरा उतरा हैं? जयश्री को
दिए गए वायदों पर कितना खरा उतरा है अभी तक? किन्तु कॉलेज जीवन में दी गई प्रतिश्रुति के आगे वह इस तरह असहाय हो गया?
बहुत दिनों से उसने कविताएं नहीं लिखी है,नहीं पढ़ी हैं,उसके बारे में सोचा तक भी नहीं है। लेकिन एक दिन था कभी वह सोच रहा था उसकी
कविताओं की एक-एक पंक्ति से दुनिया में युगांतरकारी परिवर्तन आएगा। लेकिन कहने से
कुछ नहीं होता है। नहीं,कुछ नहीं
होता हैं- यह बात वह समझ गया। फिर भी हेमंती को दी गई प्रतिश्रुति से वह इतना दुखी
क्यों?
असल में उसका मूल्य-बोध जितना पुरातन था उसे
ग्रहण करने अथवा प्रत्याख्यान करने के लिए उसकी शक्ति कम होती जा रही थी। लेकिन
अरिंदम,हेमंती,गोपबंधु और देवदास अथवा सीढ़ी पर चढ़ते वे दो पैर,वे लोग ही भाग्यशाली हैं। भाग्यशाली इसलिए कि सुशांत
की की तरह किसी डर अथवा पाप-बोध के भीतर वे लोग नहीं जी रहें हैं। उन्होंने अपने
दृश्य का आधुनिकीकरण किया है।
सुशांत के सिगरेट सुलगाने हेतु लाइटर पकड़ाने
वाला पास में खड़ा हुआ आदमी ही था चंद्रशेखर। उसे आग पकड़ाते देख सुशांत खिल उठा। दोनों
एक-दूसरे के गले मिले।
एक अच्छी चीज खिलाने के नाम पर चन्द्रशेखर होटल में बैठकर शराब मंगवाएंगा,यह बात क्या सुशांत को पता नहीं थी? जब पता चली तो उसके सीने की धड़कन बढ़ गई। मगर उसने यह
बात चन्द्रशेखर को नहीं बताई। उसके मन में एक ड़र या उत्तेजना दिखाई देने लगी। यह
बात चन्द्रशेखर से कही नहीं जा सकती। बल्कि चुपचाप बैठकर सारे कारनामों को देखना
ही ठीक समझा।
चंद्रशेखर
ने गिलास आगे बढ़ाया तो सुशांत ने मनाकर दिया, “दिन में ठीक नहीं है।”
एक पैग डालकर,चंद्रशेखर ने कहा, “सिर्फ एक पैग तो है!”
सुशांत ने उस पैग का आधा-हिस्सा चन्द्रशेखर
के गिलास में डालने की कोशिश करने में असफल होने के बाद,चुपचाप अपने गिलास में पानी मिला दिया।
चन्द्रशेखर ने अपने पॉकेट से सिगरेट निकालकर
उसकी तरफ बढ़ाई। होटल बॉय टेबल के ऊपर हल्दीराम नमकीन पैकेट रखकर चला गया।
चन्द्रशेखर ने सिगरेट सुलगाई और लाइटर आगे बढ़ा दिया। दोनों ने गिलास ऊपर उठाकर
स्पर्श करते हुए कहा “चीयर्स!” चन्द्रशेखर एक ही सांस में पी गया और सेव नमकीन खाने
लगा;सिगरेट पीने
लगा। सुशांत ने एक डर से गिलास उठाकर सूंघा और सिहरन दौड़ने लगी उसके शरीर में। फिर
भी कह नहीं पाया कि यह उसका पहला दौर है। गिलास होंठों से लगाया और कोई तरल पदार्थ
उसकी जीभ पर तीक्ष्ण स्वाद देने पर सिगरेट पीने लगा।
चन्द्रशेखर ने फिर से पैग तैयार किया और
सुशांत ने ड़र से पहले ही अपना ग्लास उठा लिया। उसने अनुभव करने की कोशिश की कि
उसके अंदर कोई चार्ज आ रहा है या नहीं । कोशिश की मगर विफल हुआ और सिगरेट पीते
नमकीन खाने लगा।
चंद्रशेखर ने पूछा, “तू और आगे क्यों नहीं पढ़ रहा
है? तू तो हम सब
में से ज्यादा प्रतिभावान कवि था? ऐसे क्यों
छोड़ दिया लिखना-पढ़ना?”
सिगरेट के धुएं को ऊपर छोड़ते हुए सुशांत ने
निर्लिप्त स्वर में कहा, “क्या होगा
लिख-पढ़कर?”
“क्या होगा मतलब?” चन्द्रशेखर को आश्चर्य होने लगा। “तू कह रहा है क्या होगा?”
“हाँ, रे!” सुशांत ने सिद्ध मुनि की तरह अति दुखी होकर घोषणा की।
आजकल कविता-सविता से कुछ नहीं होता हैं। जीवन के साथ इसका कोई संबंध नहीं है कविता
की भावना राज्य में हो रहे बदलाव के साथ साधारण इंसान का कोई संबंध नहीं हैं।
चन्द्रशेखर आज बहस करने के मूड में नहीं था,फिर भी उसने पूछा, “तो फिर कवि कविता क्यों लिखते हैं? धरती पर अरबों खरबों कवि युगों-युगों से कविता क्यों लिखते आ रहे हैं?”
: “वे लोग शायद कविता नहीं
लिखेंगे तो जी नहीं पाएंगे।” सुशांत ने
कहा, “मैं तो जी
रहा हूँ कविता के बिना । असल में बात क्या हैं? मेरे सीने में बहुत सारी कविताएं जमा हो गई है। मैं जब लिखने के लिए बैठता
हूँ तो थक जाता हूँ। लिखने की थकावट से नहीं,इतना कुछ लिखना होगा,सोचकर टूट
जाता हूँ मैं।”
: “आश्चर्य!” चंद्रशेखर फुसफुसाने लगा।
: “सच में आश्चर्य की बात है।”नहीं? सुशांत ने बातचीत की दिशा को मोड दिया, “मैं बहुत असहाय हूँ मैं जो चाहता हूँ। वह नहीं कर पाता हूँ। जो पाता हूँ वह
भूल जाता हूँ। पता है, मेरे लिए
माँ-बाप अभी भी कष्ट पाते हैं। लेकिन वे चाहते थे उनका बेटा बिजनेस करेगा तो उनके
दुख दूर हो जाएंगे, मगर मैं
नौकरी करना चाहता था। और पता है? जो कोई मुझे
प्यार करते हैं,जिसने मुझे
प्यार दिया है, मैं उन्हें
कुछ भी नहीं दे पाया, बल्कि कंगाल
बना दिया।”
सुशांत कुछ समय चुप रहा। नमकीन खाते हुए
कहने लगा, “मैं एक लड़की
से प्यार करता हूँ। तू हंस रहा है? सिरीयसली कह रहा हूँ, मैं एक लड़की
से प्यार करता हूँ। लेकिन ट्रेजडी क्या पता है? उस लड़की की बायें हाथ में सिर्फ तीन लकीररें हैं। वह बात याद आने से मुझे
ऐसा लगता है कि उस लड़की की असहायता के लिए जैसे मैं जिम्मेदार हूँ। जो मुझे अपना
लेता हैं,वह खुद ही
कंगाल हो जाता हैं। लड़की की हाथों में तीन लकीरें मुझे विचलित कर देती हैं।”
चन्द्रशेखर का मूड बहुत अच्छा था,नहीं तो, सुशांत की गंभीर बातों में ऐसे सांत्वना क्यों देता? वह कहने लगा, “सिर्फ तीन लकीरें। कोई बात नहीं । तेरे लिए मैं एक लड़की देख लूँगा;जिसके हाथों में बहुत सारी लकीरें होंगी,बहुत सारी।” चन्द्रशेखर कहते हुए अपने सेन्स ऑफ हियूमर से हंसने लगा।
किन्तु
सुशांत चुप। आँखों की पलकों में जमा हो गए थे दुख, हताश और क्लांति। चन्द्रशेखर ने हंसने के बाद चुप होकर पूछा, “तेरा बिजनेस कैसे चल रहा है? क्या कोई अच्छा टेंडर नहीं मिला?”
: “टेंडर?” सुशांत ने मुंह ऊपर उठाकर
देखा। “जीवन की
बाजी लगाकर टेंडर भरा था मैंने,उन्होंने
मना कर दिया। मेरा और कुछ नहीं है। चन्द्रशेखर, मैं अपने आपको गाली देता हूँ,मुझ से कुछ उम्मीद करना बेकार है।”
चन्द्रशेखर चुपचाप गिलास उठाकर पीने लगा।
जैसे अचानक उसे याद आ गया हो। सुशांत कहने लगा: “पता है? मैंने आजकल
एक अजीब सपना देखा हैं। सपनों में देखता हूँ तेज आवाज के साथ सीढ़ी चढ़ते दो पैर
हैं। बस,सिर्फ इतना
ही। दोनों पैरों के मालिक को नहीं देख पाता हूँ। ऐसे कि दोनों पैर बिलकुल नहीं
रोकते हैं। सिर्फ ऊपर उठते जाते हैं।”
: “वाह गुरु!” चन्द्रशेखर हंसने लगा, “एक पैग में ही आउट हो गया?”
सर्दी के मौसम में कितनी जल्दी शाम हो जाती
हैं। चार बजे सूर्य पश्चिम में। साढ़े पाँच बजे तक घोर अंधेरा और ठंड।
चन्द्रशेखर से विदा लेते समय शाम का अंधेरा फैल चुका था और अंधेरी रात
चारों तरफ। सुशांत अब कहाँ जाएगा? रास्ते के
ऊपर खड़े होकर कुछ समय तक सोचने लगा। उसके बाद अचानक उसने अनुभव किया कि आज ठंड बढ़
गई हैं और स्वेटर लाना भी वह भूल गया हैं।
आश्चर्य देखो! एक पैग शराब पी कर भी वह आऊट नहीं हुआ हैं और जैसे हो जाएगा
उसने सोचा था,शराबी जैसे
होते हैं,वैसे तो
नहीं हुआ? शराब का नशा
चढ़ा है या नहीं, उसने अनुभव
करने की कोशिश की और हाथों को फूँक-फूँक कर चलते हुए उसने एक रिक्शे को रोकने का
संकेत किया। रिक्शे वाले ने सवाल किया, “बाबू रिक्शा?”
ऐसे प्रश्नों का उत्तर सुशांत नहीं देता था। केवल कभी-कभी सिर हिला देता
था। आज भी वैसा किया। लेकिन रिक्शे वाला आगे नहीं बढ़ा। खुशी से गीत गाते रिक्शे
नहीं चलाया। बेपरवाही से पैडल मार कर फुसफुसाते प्रश्न करने लगा,चारों तरफ देखकर, “बाबू जाएंगे? अच्छा माल
हैं। सोलह सत्रह साल की।
सुशांत ने कोई उत्तर नहीं दिया। आगे बढ़ता गया। सीने के भीतर उसने अनुभव
किया,हृदय की
धड़कने को उसने अनुभव किया,उसकी
धमकियों में उत्तप्त लावा का तापमान। उसके मन में एक निषिद्ध इच्छा का प्रदीप जल
रहा था।
फिर भी वह
आगे चलता गया।
रिक्शे वाले के पैर स्थिर पैडल के ऊपर पड़े।
ब्रेक के ऊपर सतर्क अंगुलियाँ। धीरे-धीरे रिक्शे जा रहा था : सुशांत के पैरों के
साथ कदम-ताल मिलाकर। सुशांत की ओर देखकर अत्यंत ही गोपनीय शब्दों में कह रहा था वह
“बाबू अच्छा
माल है। कैसा चाहते हैं? ओडिया,बंगाली,तेलगु? सब है बाबू,जाएंगे?”
अचानक क्या हुआ,पता नहीं;सुशांत के पैर अटक गये। सीने में शब्दों की गर्जन। धमनियों में अश्लील
उत्ताप। जल उठा निषिद्ध प्रदीप। घूमकर वह रिक्शे में बैठ गया।
रिक्शे वाले ने और नहीं पूछा कि सुशांत को
क्या पसंद है। केवल पैडल मारने लगा सुशांत ने कुछ समय के बाद ठंड अनुभव की। बहुत
समय के बाद रिक्शे वाले ने कहा, “बाबू पच्चीस
रुपए। बीस उसका,पाँच मेरा।
बाबू बढ़िया माल है।”
लेकिन सुशांत ने उत्तर नहीं दिया। कुछ नहीं कहा। चुपचाप बैठकर उसने अनुभव
किया निषिद्ध प्रदीप के उत्ताप को। अनुभव करने के लिए वह बैठ गया। बैठकर अनुभव
करने लगा।
रिक्शा वाले ने रिक्शे को एक अंधेरी जगह पर खड़ा करके जाने से पहले उससे कहा, “थोड़ा इंतजार कीजिए। मैं उसे
बुलाकर लाता हूँ।”
और वह कहीं खो गया। लेकिन उस समय एक मध्यवयस्क मोटी स्त्री के साथ थोड़े से
समय के लिए उसके घनिष्ठ होने का दृश्य उसके सामने उभर आया और वह एक घृणा से
संकुचित हो उठा,और ठीक उस
समय,उसके सीने
में जलता हुआ निषिद्ध प्रदीप बुझ गया। सशब्द गर्जन और धमनियों में लावा का उत्ताप
खत्म हो गया।
सुशांत चुपचाप रिक्शे से उतरा और चारों तरफ देखकर उसने एक ही सांस में
दौड़ना शुरू किया।
वह क्या डर गया था रिक्शा चालक से? मोटी स्त्री से? अथवा अंधेरे से अथवा निषिद्ध प्रदीप से? दौड़ गया वह,दौड़ गया वह
किसी गली में। कौनसे रास्ते किस यूनिट में-कुछ भी याद नहीं। दौड़ते-दौड़ते थक गया
वह। अंत में थककर खड़ा हो गया एक प्रकाश-स्तंभ के सहारे। उसने अनुभव किया शरीर में
थकावट और पसीने को। नाक से निकलती हुई गरम हवा को और धीरे-धीरे थकान को दूर करते
समय,उसे याद आने
लगा कि जयश्री की चिट्ठी उसके पॉकेट में है, अब तक सुबह से खोल नहीं पाया था,पढ़ नहीं पाया था उसे। अधीरतापूर्वक उसने पॉकेट से चिट्ठी बाहर निकाली। उसने
महसूस किया कि उसके हाथ-पाँव कांप रहे थे। फिर भी उसने लिफाफा फाड़ दिया। उसके मन
के भीतर एक उत्तेजना,एक आग्रह
रहा था। लिफाफे के अंदर से बाहर निकली उसकी एक चिट्ठी। कागज के ऊपर काले-काले
अक्षर। जयश्री के हाथों से लिखे अक्षर। जयश्री की भाषा,जयश्री के मन की बात।
चार भागों में समेटी हुई चिट्ठी को खोलते समय,अचानक प्रकाश-स्तंभ उसके लिए समस्या बन गया। समस्त
उजाले को कौन निगल गया? केवल जिस
प्रकाशस्तंभ से सटकर खड़ा था सुशांत। उसकी रोशनी नहीं,बल्कि आसपास के सारे बिजली के खंभों, फ्लैट, घर और दुकानों की सारी रोशनी कहाँ चली गई?
ऐसे अंधेरे में जयश्री की चिट्ठी अपने हाथ
में पकड़कर सुशांत खड़ा था। मगर क्या करेगा वह ? क्या कर सकता है?
उसकी आँखों
के सामने उस समय सपने वाले वे दोनों पैर दिखाई देने लगे। सीढ़ी चढ़ते ऊपर उठते
हुए दो पैर चंचल तैरने लगे उसके आँखों की सामने। एक अक्षमता सिर उठाकर उसे असहाय
करने लगी, उसने अनुभव
किया कि रास्ता पार करने के लिए भी उसके पास शक्ति नहीं हैं। हाय! सीने के किसी
कमरे में इतनी असहायता/अक्षमता लेकर वह क्या करेगा? क्या वह ऐसे ही खड़े होकर रह जाएगा; युगों-युगों तक पुनर्जन्म की एक आकांक्षा में,मातृगर्भ जैसे यंत्रणा-दायक अंधेरे के भीतर? कितने दिन? आह! कह दो और कितने दिनों तक?
Comments
Post a Comment