कोलंबस का जहाज

कोलंबस का जहाज

सैलून की दीवार पर हेमा मालिनी की तस्वीर, आगरा का ताजमहल, सोफ़े के ऊपर फिल्म फेयर पत्रिका, अलमारी में पामोलिव आफ्टर शेव लोशन, दर्पण में मेरे दाढ़ी भरे चेहरे पर लगे साबुन के झाग और सफ़ेद चादर से घिरा हुआ मेरा शरीर। मैं केवल विज्ञापन देखता हूँ। हेमा मालिनी की तस्वीर के नीचे लिखा हुआ है,उत्कल साइकल मार्ट, फॉर आल टाइप ऑफ रिपेरिंग। हेमा मालिनी की साड़ी खिलती हुई नजर आ रही है। पास में कमल के फूल के ऊपर लक्ष्मी जी खड़ी हुई है। उनके एक हाथ में कमल का फूल और दूसरे हाथ से पैसों की बरसात हो रही है। पांव के पास में एक तरफ उल्लू की तस्वीर तो दूसरी तरफ लिखा हुआ है हरमोहन रुंगटा ग्रासरी शॉप।
            सैलून वाला आदमी आश्चर्यचकित हो गया। इतनी बड़ी दाढ़ी? क्या कर रहे थे अभी तक? साधू बाबा हो गए थे क्या? मन अब आया है संसार में? क्यों? सैलून के सोफ़े के ऊपर समाज अखबार पड़ा हुआ था। कोई पत्र पढ़ रहा था। सामने रखे हुए अखबार के अंतिम पृष्ठ के चौथे हिस्से के किसी स्तंभ में चोरी के अभियोग में गिरफ्तार संन्यासी की खबर छपी हुई थी। सौदामिनी ने पढ़ी होगी? उसके घर में चर्चा का विषय बन गई होगी यह खबर? पिताजी यानि ससुर ने पढ़कर कुछ न ही कहा होगा सिवाय आह भरने के, साले ने गुस्से में तमतमाकर कहा होगा, “ देख लिया आपने अपने दामाद की साधना को? अध्यात्म का पालन करते-करते जीवन का सत्यानाश कर लिया।मेरा शरीर कांप उठा, मेरे गाल भी थर्रा उठे। सैलून वाले के हाथ तेज उस्तरे के साथ खिसकते जा रहे थे समय, साबुन के झाग,अनुभव और दाढ़ी के बाल। एक नया आदमी धीरे-धीरे मेरे दाढ़ी के जंगल के भीतर से निकल आया एक नया चेहरे के साथ। देखकर मैं आश्चर्य चकित हो गया। दीवार पर हेमा मालिनी सोफा सेट पर बैठ कर विनोद खन्ना अब क्या करेगा, रजनीश तो अमेरिका चला गया? चीफ मिनिस्टर एक-दो दिन के अंदर त्यागपत्र दे देगा। केंद्र से ऐसा आदेश आया है। धीरे-धीरे मैं अपने अतीत में खोता चला जा रहा था। नया चेहरा जो दिखाई दे रहा है, वह मेरा ही तो है। मेरे अतीत का।
            कितना कम मैं समझ पाया हूँ अपने ऐतिहासिक अतीत के बारे में। मेरा इतिहास बहुत ही छोटा है। जब छोटा था, तब मैं नेकर पहनता था और अब बड़ा होकर फुल पैंट एवं शर्ट पहनता हूँ। शिवानंद स्वामी ने कभी कहा था:- इन सारे बाहरी आवरणों पर दिमाग मत खपाओ। शरीर ढकने मात्र के लिए इस आवरण की जरूरत पड़ती है। तुम इस आवरण से ढके शरीर के भीतर झाँको। देखोगे भीतर कुछ नहीं हैं। है तो केवल नफरत। खाद्य, मांस, मवाद और नफरत। उन्नीस वर्ष की उम्र में, मार्क्स आया था और साथ में आई थी वर्गभेद की नफरत।
            उस समय दीवारों पर स्लोगन स्वतन्त्रता के बाईस सालों में बेरोजगार क्यों नौकरी चाहते हैं,इन्दिरा गांधी जवाब दो।” - ने अपनी जगह बना ली थी जालिम लोशन विज्ञापन के पास में। यह सत्तर का दशक था, मुक्ति का एक दशक था। ओड़िशा की किसी भी दीवार पर चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैनऐसे पोस्टर कभी नहीं देखे। उनहत्तर या सत्तर साल में भी। हमारे यहाँ तेलगु नागभूषण गणनाथ प्रधान और रविदास थे। फिर भी ओड़िशा में एस.एफ़.आई. की जय-जयकार हो रही थी। दीवारों पर हर जगह उन्नीस साल के कॉलेज के युवक का मन मानो कॉलेज की दीवार हों। हमारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है सिवाय सांकल को छोड़कर, और पाने के लिए सारा संसार। अंधेरी रात में टार्च की रोशनी में अलकतरा से लिखते हुए प्रदीप ने मुझे एक प्रश्न पूछा था, “ बताओ तो संसार में आता है या ’?”
            संसार के बारे में ससुर ने ज्यादा बड़ा भाषण नहीं दिया था, शादी के एक साल बाद घर मिलने आए हुए थे, हिमानी दरवाजे के पास खड़ी थी और पेट में तीन महीने का गर्भ। आप पिता बनने जा रहे हैं। अब दुनियादारी की तरह ध्यान देना शुरू करो, “स्पिरिच्युलिज़्म से क्या मिलेगा, कहो तो?” सामने बैठा हुआ था छत्तीस वर्षीय मैं और मेरे भीतर उन्नीस साल का एक मृत मार्क्स जिसका शव सात-आठ साल हो गए सड़े हुए, यह बात हिमानी ही जानती है, उनके पिता नहीं।
            शायद मार्क्स की मृत्यु कंचनजंघा से हुई थी अर्थात् दार्जिलिंग से यानि टाइगर हिल के नीचे कितने ट्रेकर, मोटर, कोहरा, अंधेरा और पहाड़ के ऊपर किसी घर के ऊपर वाली मंजिल की छत के सबसे ऊपर जाकर मैंने देखा था उन्नीस वर्ष की उम्र में सूर्योदय, एक सुबह और कंचनजंघा की चोटी।
            वह ग्रेजुएशन का समय था। कुछ समय पहले हिमानी के साथ परिचय हुआ था। कॉलेज के इलेक्शन के समय एस एफ आई के नेताओं के जीतने के लिए कैनवासिंग के समय। देखिए, आप सभी चाहेंगे लड़कियों का मान-सम्मान और इज्जत-आबरू बनी रहे और एसएफआई लड़कियों के प्रति कितना श्रद्धाभाव और सम्मान की भावना रखता है, मतलब वास्तव में नारी की स्वाधीनता एवं मुक्ति। एस एफ आई में छात्राओं की संख्या पर्याप्त थी। मगर फिर भी लड़कियों के साथ बातचीत करने की लालसा लेड़िज हॉस्टल के सामने मुझे खींच ले गई, वहीं पर मेरा परिचय हिमानी के साथ हुआ।
            वह था इन्फ़क्चुएशन एक दूसरे ने प्यार करने वाली बात कहीं थी, तब हिमानी को देखने के लिए मन व्याकुल हो रहा था। उस समय मैं दार्जिलिंग गया, मतलब ग्रेजुएशन के पीरियड में, नेशनल स्क्लारशिप के काफी रुपए हाथ में आते हैं एवं सारे नए, जैसे कि प्रेस से निकलकर आए हो। छूने से गरम लगने लगेगा। रुपए पाकर पहले गया था सिनेमा हॉल, मैटनी शो फिल्म देखने। इंटरवेल में मूँगफली खाते हुए पहली बार विल्स फिल्टर का एक पैकेट खरीदा था। फिल्म देखने के बाद पैदल-पैदल स्टेशन गया था। स्टेशन में घूमते-घूमते पूरी-हावड़ा एक्स्प्रेस को आती हुई देखकर टिकट कर लिया था। रिजेर्वेशन नहीं मिला था, इसलिए एक बूढ़े आदमी के कंधे पर सर रख कर, झपकी लेते हुए कम्पार्टमेंट के फर्स पर बैठते-बैठते एक लड़की को दबोच दिया था, लड़की कुछ क्षण बाद डर से मुड़कर चली गई ।
            कोलकाता में मेरे रहने की जगह थी मदन दत्त लेन की काली होटल व वाटुबाजर और बेणु का होटेल। अभी भी छप्पन रुपए बाकी हैं। दो-तीन बार विरक्त होकर बेणु ने चिट्ठी पर चिट्ठी लिखी थी। अब नहीं देता है, किसी किताब का प्रोसेसिंग कर रहा है भुवनेश्वर में। उसके पिताजी होटल चलाते हैं। पहले वह होटल में बैठता था। सामने खाने का होटल एवं पीछे में अंधेरा चिपचिप घर, मतलब मेस का घर।
            कोलकाता की इतनी भीड़ से मैं बोर हो गया था। इतने सारे लोग, इतना कोलाहल। शाम को ईडन गार्डन भी ऐसा लगता था मानो कटक का रेलवे-स्टेशन हो। एक दिन हावड़ा से कामरूप एक्सप्रेस में चला गया न्यू जलपाईगुड़ी। रेलवे-स्टेशन से बाहर दो-तीन मील रिक्शे से चला गया सिलीगुड़ी। पहली निगाहों में बालेश्वर जैसा लग रहा था। सिलीगुड़ी की एक होटल में एक दिन तीस रुपए में ठहरा था। मालिक मारवाड़ी था, वह खुश हो गया था। बाद में पता चला कि खुले आम यह डकैती थी। गुस्से में मैंने चुपके से उसका गद्दा काट दिया था। वहाँ से चला गया दार्जिलिंग। उस समय बस का किराया चार रुपए था। होटल का किराया खाने-पीने के साथ आठ रुपए हुआ करता था।
हिमानी को मैं कंचनजंघा की कहानी नहीं सुना पाया था। ग्रेजुएशन के बाद पीजी करने के लिए जे.एन.यू. चला गया था। उस समय हिमानी ने कहा था, “ दिल्ली जाकर हमें भूल जाओगे सुमंत भाई? वहाँ तो अनेक सुंदर लड़कियां होगी? हमारी याद तो और मन में नहीं रहेगी? सुमंत भाई, कागज लिखोगे न?” किसे पता, मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। यह था उसका ग्रीन सिग्नल। डायरी के पन्ने पर अपना पता लिखकर दिया था हिमानी ने।
            वही युवक, अब जे.एन.यू. में जाकर युवक दर्पण के भीतर समा गया था। दाढ़ी खत्म होने जा रही थी। उसके बाद सफ़ेद ड़िटोल लगाया जाएगा। फिटकरी? क्रीम? पाउडर नहीं? सस्ता पाउडर है। रहने दो। मैं उठकर खड़ा हो गया, मेरे साथ दर्पण के भीतर का वह युवक भी। मैंने थोड़ा मुस्कुराते हुए पूछा: सुमंत कैसे हो?”
उसने भी हँसते हुए मुझे पूछा,“ सुमंत, और तुम्हारे क्या हाल-चाल है?”
जे.एन.यू. से नियमित वह चिट्ठी लिखता था, उनमें होता था दर्शन, साहित्य, दिल्ली शहर, फिल्म और राजनीति। कल... जब मैंने दीवाने आम, दीवाने खास देखा था, तो जानती हो तुम्हारी बहुत याद आ रही थी। दो वर्षों की समायावधि में छुट्टी मिलाकर छह-सात महीने अगर छोड़ दिए जाए तो बच्चे समय में उसने नियमित चिट्ठी लिखी थी। कुंतला कुमारी सावत का घर देखने जाऊंगा। चाँदनी चौक के किसी इलाके में वह रहती थी, नीचे वाली मंजिल में उसका क्लीनिक था। कल हमारी क्लास नहीं लगी। बहुत सारे लड़कों ने एक बार बस कंडक्टर को बस समेत अगुवा कर कैंपस के भीतर ले आए थे। पुलिस के कैंपस में घुस आने पर छात्रों ने विरोध में हड़ताल की थी। आज तीन मूर्ति की ओर जा रहे जुलूस को पुलिस ने रोक दिया था, जिसमें हमारे यूनियन के प्रेसिडेंट प्रधामन्त्री से मुलाकात करने जा रहे थे।
            उस समय भी प्रेम-कहानी नहीं कही जा सकी थी। तब तक हिमानी की दो तीन पेज की चिट्ठी पढ़कर मुझे इस चीज का अहसास हो गया था, और जो हो, न हो लाइसेन्स मिल गया था। क्योंकि अरुणा भयंकर हिंसक थी, कितनी खराब लड़की थी, तुमने अपना फोटो उसे कैसे दे दिए थे? इस प्रश्न के बाद और क्या बच गया था,किसी लड़की के बारे में लाइसेन्स लेने के लिए।
            सैलून वाले ने सफ़ेद चादर झाड़कर गाल और पीठ साफ कर दी और कलर लगा दिया। उसके बाद मैं उठकर खड़ा हो गया और पॉकेट से उसे पैसे निकाल कर देने लगा। इस सैलून का खर्च कुछ ज्यादा ही था बजट से बाहर। मेरी तनख्वाह थी साढ़े चार सौ रुपए। किसी सस्ते घर में रहने से भी एक कमरे का किराया तीस रुपए से कम नहीं आता था। कुएं में पानी था, सर्विस लेट्रिन के लिए, सभी किरायेदारों के लिए। एक सस्ती होटल में खाना पीना करता था। दोपहर में हाफ प्लेट चावल,आलू की सब्जी डेढ़ रुपए में। उसके अलावा, सुबह ऑफिस के पास वाली होटल से पच्चीस पैसे वाली चाय का एक कप। छोटे भाई के पास हर महीने डेढ़-सौ रुपए भेजने पड़ते है। वह कॉलेज में पढ़ता था। सौ रुपए का चंदा देना होता था चिदानंद स्वामी के आश्रम के लिए और दो वर्ष पहले हिमानी को छोड़कर चले जाने तक पचास रुपए मिथुन होने के समय से आवर्ती जमा खाता में अभी तक हर महीने जमा होते थे। प्रोविडेंट फंड की हकदार हिमानी और मैं उसमें बिलकुल सिर नहीं खपाता थे।
ये सब छोड़ देने से मेरे पास बाकी कुछ बचता नहीं था। कभी-कभी एक्स्ट्रा खर्च लग जाता था मगर भगवान की दया से काम निकल जाता था। चिदानंद स्वामी कहा करते थे योगियों को वास्तव में आकाश-मुक्त होना पड़ेगा। भविष्य की चिंता ही योगियों को पथभ्रष्ट कर देती है। जो मिलता है खाओ, नहीं मिलता है तो नहीं सही। कल के खातिर दो पैसे बचाने लगोगे तो देखोगे लोभ बढ़ जाएगा। लोभ का मतलब ही तो कामनाओं का जन्म है और योग-साधना की मृत्यु। तुम्हारे हाथों में पैसा आ जाने से तुम्हारा मन अस्थिर होगा। इसलिए साधना के लिए खाली जेब का होना ज्यादा जरूरी है। तुम्हारे पास पैसे नहीं होगें तो तुम्हें भविष्य की चिंता नहीं होगी, देखोगे मन शांत हो जाएगा और तुम साधना में बैठने लगोगे।
            19 वर्ष की उम्र में मैंने पहली बार भाषण दिया था। रियली, सच कह रहा हूँ, भाषण देना मुझे असहज लगता है, जीभ का प्रयोग करने से,मुझे थकान लगने लगती है और मंच के ऊपर खड़ा होने से पांव कांपने लगते हैं, मुंह से आवाज नहीं निकल पाती है, सारी बातें अस्पष्ट लगने लगती हैं। स्नेह और व्यवहार कुशल न होने पर भी अक्षर लिखावट सुंदर न होने पर भी स्लोगन, “सत्तर का दशक, मुक्ति का दशकलिखा करता था। इस समय मैं दाढ़ी रखता था, सैलून में जाकर दाढ़ी साइज करवाता था, मगर गाँव जाते समय पूरी तरह से चिकना होकर जाता था। गाँव से आने के बाद फिर से दाढ़ी बढ़ना शुरू हो जाती थी। गाँव में पूरी तरह से सामन्तवादी रक्षणशील ब्राह्मण घर का बेटा था मैं, जहां जाता था यजमानगिरी करता था मगर शहर में मैं डाईलेक्टिकस के तत्त्व समझता था, मार्किस्ट इंटलेक्चुअल के रूप में। भारतीय अनेकताओं में एकता का सूत्र है।
            सैलून के सोफा के पर समाजअखबार पड़ा हुआ था। उसके भीतर यह खबर निश्चित रूप से छुपी हुई थी। चोरी के अभियोग में संन्यासी के गिरफ्तारी की खबर। चिदानंद स्वामी को जमानत मिली क्या? प्रणव बाबू वकील उनके परम भक्त थे। उन्हें प्रयास करना चाहिए था। कल शाम को आश्रम की तरफ गए थे। सुनसान आँगन में वहाँ कोई नहीं था। केवल चौकीदारी करने वाला रघु बूढ़ा अवश्य था। उसकी दोनों आँखों में उदासी छाई हुई थी।
            हमारे गाँव में एक गौड़ीय वैष्णव संत कहीं से आकर रुके हुए थे। उस समय मेरी उम्र होगी ज्यादा से ज्यादा आठ या नौ साल। गाँव के मुहाने पर एक बरगद के पेड़ के नीचे कच्चे घर की तरह मिट्टी की कुटिया बना कर रहे थे। गाँव के लोग पता नहीं क्यों उसे सहन नहीं कर पाए। उसे चिढ़ाने के लिए मागुर मछ्ली का झोल’, ‘कुंवारी कन्या की कोल’, ‘बेटा हरिया हरिया बोलकहते थे। एक बार वह गुस्से में हमारी तरफ मुड़ा तो हम दौड़ भाग कर छुप गए थे। उस दिन जल्दी नींद खुल गई थी। अचानक सुनाई पड़ने लगा,“भज गौरांग, सुन गौरांग, लो गौरांग का नाम रे। उस सुबह बंगाली भजन और संगीत माधुर्य ने मुझे अचानक प्रभावित कर दिया था और उस समय मुझे पता चला कि गाँव में घूम-घूमकर भजन गाने वाला आदमी गौड़ीय वैष्णव है- उस समय श्रद्धा से मेरा मन भर गया था।
            उसके बाद से जहां भी देखता था उस आदमी को मैं और नहीं चिढ़ाता था। अपनापन नजर आने लगा।
            दूसरे दिन वह आदमी छोड़कर चला गया अपनी कुटिया। कहाँ गया, क्यों गया कुछ समझ में नहीं आया आज तक। उसके जाने के पश्चात खाली कुटिया टूटी-फूटी हांडी और भगवान को रखने वाली खाली मिट्टी की वेदी-पूरे घर में एक खालीपन था,वह खालीपन अचानक मेरे सीने के भीतर उतर गया। बाद में पता चला उस आदमी को गाँव की किसी विधवा स्त्री से प्यार हो गया था। उसी के साथ कहीं भाग गया शायद?
: “कोई नहीं है, रघु?”
रघु ने उदास आँखों से इधर-उधर देखा।
: “बाबा? वापस आ गया? जमानत मिल गयी?”
रघु के मुंह से कोई जवाब नहीं निकला।
: “ये सब कैसे हो गया, रघु? बाबासच में चोरी करने के लिए गए थे ? या उस घर में शांति करने गए थे ? बाबा ने आश्रम क्यों छोड़ा, गुप्त धन छुड़ाने के लिए?”
रघु की दोनों आँखों में थार मरुस्थल की खा जाने वाली तीक्ष्णता की तरह खालीपन था।
: “कोई आ रहा है आश्रम में? डॉक्टर बाबू? वकील प्रणव बाबू? एस.डी.ओ. मिश्र बाबू क्या और मिलने नहीं आए? खबर ली? शिष्य सत्यानंद स्वामी कहाँ है? वह भी जेल में है? पुलिस और आई थी? जमानत देने कोई गया था?”
            सूखे पीपल के पत्ते की तरह आश्रम खड़-खड़ कर रहा था निर्जनता के सांय-सांय सांसों के शब्दों की तरह। खालीपन।  हिमानी का सेक्स के प्रति ज्यादा झुकाव था। ऐसे समझ में नहीं आएगा? समझने वाली बात नहीं है। साड़ी ब्लाउज में कहीं भी समझने का उपाय नहीं है। नहीं बातचीत में। परिसीमित, परिशीलित और परिमाणित। जबकि शुरू-शुरू में शादी के एक-दो महीने के बाद उसे अपनी यौनता अथवा उसी गौड़ीय वैष्णव अथवा चिदानंद स्वामी का अनुभव हुआ था। बाहर ज्यादा कुछ पता नहीं था। जितना ऊपर उतना ही भीतर। एक दिन गाँव में थी शून्य कुटिया और आज यह शून्य आश्रम। जैसे अभियोग और सफाई भी ठीक ऐसी ही उलटी, यानि मेड फॉर इच अदर। पहले पेड़ या पहले बीज’? जैसे प्रश्न की तरह यानि पहले इस खबर को बनाया गया, या पहले उसका विरोध और सफाई? (अपने प्रतिनिधि से 23/9, इस शहर से और ओड़िशा के प्रख्यात संन्यासी चिदानंद स्वामी को पुलिस ने कल रात उनके तीन शिष्यों के साथ शहर के नजदीक किसी बस्ती के घर से गिरफ्तार किया गया है। उनके विरोध में अभियोग था घर में घुसकर शांति यज्ञ के बहाने जमीन में दबी गुप्त संपत्ति को हथियाने का प्रयास करना। घर के मालिक ने थाने में इत्तला कर दी। स्थानीय सर्कल इंस्पेक्टर की सहायता से पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। गिरफ्तारी के समय उनके पास एक या दो फरसा, तीन चाकू और कुदाल गैंती जब्त हुई थी। इस घटना से सारे शहर में हलचल मच गई। ज्ञात हो चिदानंद स्वामी के समाज के विभिन्न स्तरों में बहुत सारे भक्त हैं।
: “रघु, रघु ! तुम जवाब क्यों नहीं दे रहे हो? कितनी बार और पूछूंगा?”
पूछना पड़ता है। ऐसे प्रश्नों के उत्तर खोजने पड़ते हैं। उत्तर नहीं मिलते हैं।
: “यह अमुक है। वह तमुक है। वे लोग एक झंडे के तले किस तरह स्थिर बैठे हैं?
: “उनके भी झंडे का रंग बदल जाता है और बहुत सारे लोग नहीं जान पाते हैं कि वे लोग चाहते क्या हैं। इसलिए एक झंडे के नीचे से दूसरे झंडे की तरफ जाकर फिर लौट आते हैं और पसीने से तर-बतर होकर घर लौट आते हैं यह सुनाई देता है कि झंडे उन्हें कुछ भी नहीं देते, कुछ भी नहीं देंगें।
: “फिर इतनी पीड़ा क्यों?”
: “पीड़ा के भीतर पवित्र बनकर ऊपर उठने के लिए।
: “फिर इतनी अपवित्रता क्यों?”
: “फिर इतनी व्यर्थता क्यों?”
: “व्यर्थता से सार्थकता के लिए?”
: “फिर इतनी असार्थक व्यर्थता क्यों?”
: “असार्थक व्यर्थता से सार्थकता पाने के लिए।
: “तब इतना नाटक क्यों?”
            घटना कुछ ऐसी ही है। उत्तर बस्ती के पंचानन परिडा ने आकर बाबा से कहा, “उसके घर के अंदर, बहुत साल गुजर गए, बहुत सारा गुप्त-धन गाडकर रखा गया है। रहते-रहते वह सब देवी शक्ति में बदल गया और घर के सभी प्राणियों पर खतरा मंडराने लगा। कहीं पर कुछ नहीं, मगर अचानक कहीं से आग लग गई,देखो इधर पानी लाओ। इधर क्या है,भातहांडी खोली और देखा तो गू। देखते-देखते कटी हुई मछली हल्दी सरसों के साथ तवे के ऊपर तलने के समय छिटक कर कूद कर चली जाती है पानी की तलाश में।
इस प्रकार की सारी आधिभौतिक घटनाएँ। बाद में सभी डरकर घर छोड़कर चले गए। बाबा उसी शक्ति को शांत करने के लिए वहाँ गए थे। हवन किया जाएगा। गुप्तधन का क्या होगा,इस विषय पर कोई निर्णय नहीं लिया गया था। जानते हो न,बाबा का धन के प्रति कोई लोभ-लालच नहीं है। उसी रात यह घटना घटी थी। किसे पता था,साला पंचानन परिडा के मन में इतना कुछ था।
            : “मनुष्य को पहचानना क्या इतना सहज है,सुमंत?” पूछा था हिमानी ने शादी के कुछ दिन के बाद ही। उस समय कटक के रेलवे कॉलोनी के ग्रिल वाले बरामदे में दामाद का वी.आई.पी. सम्मान खत्म होता जा रहा था। मेरे पिताजी एम.ई. स्कूल के हेड़ मास्टर से रिटायर्ड हुए थे। छोटा भाई हाईस्कूल में पढ़ रहा था। गाँव में थोड़ी बहुत खेती-जमीन और पेंशन के रुपयों से इतने सारे दायित्वों का निर्वहन कर किस तरह जे.एन.यू. में निम्न मध्यवर्गीय परिवार वाले ने हिमानी की बात पर कंपीटीशन देने की कोशिश की थी। पहली बात,गाँव में रहकर कंपीटिटिव एक्जामिनेशन देना मुश्किल है। दूसरी बात,हिमानी शुरू से शहर में पली बढ़ी थी,गाँव में एडजस्ट करना उसके लिए मुश्किल हो गया था। मेड के किनारे जाकर पाखना करना उसके लिए संभव नहीं था। तालाब में जाकर नहाकर कपड़े बदलना भी उसके लिए संभव नहीं था। इसलिए मैं और हिमानी कटक में कोचिंग क्लास में पढ़ने के लिए शादी के तीन महीने बाद चले गए थे। मेरे रक्षणशील पिताजी ने भी कोई विरोध नहीं किया था, आश्चर्य की बात थी। माँ भी विरक्त नहीं हुई थी।
कटक के ससुराल में पहले महीने खाना खाते समय सास,बहू,साली सभी पास में बैठकर गपशप करते हुए उसे खाना खिलाते थे। धीरे-धीरे सास अनुपस्थित रहने लगी,उसके बाद सालियां और अंत में हिमानी भी दिखाई देना बंद हो गई खाने की थाली के पास से। एक दिन रात को गुस्से में हिमानी ने कहा: जब नौकरी नहीं थी तो शादी करने की क्या जरूरत थी?”
उस समय मैं पूरी तरह से आध्यात्मिक हो गया था अर्थात् एडेप्ट,एडजस्ट,एकमोडेटेड,बियर इन्सल्ट,बियर इंजयूरी,दिस इज हाइएस्ट साधनाथे-मेरा लक्ष्य था। सभी अपमानों को हंसते-हंसते झेल लेता था। साली थैला पकड़ाकर गुस्से में भाषण झाड़ती थी : खाली बैठने की तुलना में काम करना अच्छा है,सुमंत भाई,जाओ, बाजार से सब्जी खरीदकर लाओ ”- को भी मैंने ज्यादा फील नहीं किया था और अपमान को भी धूल की तरह झाड़कर फेंक दिया था।
            मार्क्सवाद से अध्यात्म की ओर झुकाव में कंचनजंघा की तरफ देखकर मंत्र-मुग्ध होकर,देखते-देखते मेरा मन हुआ था इस विराट प्रकृति के सामने मेरा अस्तित्व बहुत ही तुच्छ है। बहुत छोटी है मेरी आशाएं, मेरी आकांक्षाएँ,व्यक्तिगत सुख-दुख,मेरी ध्यान-धारणा,उनके आदर्श,दर्शन और अकादमी शिक्षा का अहंकार-ये सब बहुत तुच्छ-इस महाकाल महाप्रकृति के सामने। उस दिन पहली बार अनुभव किया था मैंने अपनी असहायता को और समझ गया था और सत्य,फिर भी कहीं पर छुप गया था और आज तक मैं जान नहीं पाया। पहले-पहले ईश्वर में विश्वास करने के लिए मेरा दुविधाग्रस्त मार्क्सवादी मन नहीं चाह रहा था,फिर भी इस सृष्टि के रहस्य,इन मनुष्यों के जिंदा रहने के पीछे अगर कोई रहस्य है तो वह कंचनजंघा, इस रात के आकाश में असंख्य तारों के पीछे कोई शक्ति छुपी हुई है और वह शक्ति आज तक अनजान रह गई है,धीरे-धीरे अनुभव कर पा रहा था।
            दार्जिलिंग से लौटकर आकर मैंने पढ़ी थी डांगे की किताब,जिसमें थे मार्क्सवादी तत्त्वों की खोज वाले अपूर्व तथ्य। इस तरह रणदीवे के बदले में डांगे आ गया,उसके बाद शिवानंद। शिवानंद की किताब पढ़ने के समय मैं दिल्ली में था। जे.एन.यू. में किसी सहपाठी ने शिवानंद को पढ़ने के लिए कहा था। वह एक दिन मुझे योग स्कूल लेकर गया था। बिना किसी दुविधा के वहाँ मैं भर्ती हो गया था। ये सारी बातें हिमानी के पत्र में लिखी गई थी,अर्थात् यह थी शिवानंद और योग स्कूल की मेरी कहानी। पता नहीं, कैसे मैं भूल गया था लिखना कंचन जंघा पर,जिसे संयोगवश हिमानी नहीं जानती थी।
            हिमानी ने मुझे अपने प्रेम के बारे में नहीं बताया था और मैंने भी नहीं। फिर भी एक-दूसरे के अंतरंग संबंध प्रेम की तरफ ले जा रहे थे। पीजी की परीक्षा देकर ओड़िशा को लौट आई हिमानी ने एक दिन कहा था, “ अरे,तुम्हारी जन्मपत्री पिताजी मांग रहे हैं।
आँखें नीचे झुकाकर कहा था उसने,चेहरा शर्म से लाल हो गया था। उस समय भी प्रेम कहानी किसी को भी नहीं बताई थी और इस शताब्दी के सत्तरहवें दशक में कोई भी आदमी इस कहानी पर विश्वास नहीं करेगा,सुनने पर कोई भी मुझे माफ नहीं करेगा? शादी से पूर्व हिमानी के साथ एक सीरीयस बैठक में बैठा था मैं। हिमानी के घर के बरामदे में, जाली वाली खिड़की के उस तरफ से धूप,तराट पेड़ से झड रहे थे फूल,गेट के उस तरफ कभी-कभी उधर जाती हुई औरतें, रिक्शा,कुत्ते और आइसक्रीम वाला। उस तरफ देख रही थी हिमानी, मेरी आवाज से उनके गाल लाल पड़ गए थे। उस समय भी वह आँखों से आंखें नहीं मिला पा रही थी,गोरे गाल लाल होते जा रहे थे।
            “ देखो, मैं अब और मार्किस्ट नहीं हूँ तुम जरूरी समझोगी। मैं अध्यात्म में विश्वास करता हूँ यानि,धर्म और अध्यात्म में अंतर तो समझती होगी। धर्म है एक भीड़,एक परंपरा,एक रिचुअल और अध्यात्म मनुष्य का व्यक्तित्व,मनुष्य के जीने का उद्देश्य और उस अनजान पूर्ण सत्य को पाने का रास्ता। धर्म एक मास मानिया है। और अध्यात्म है एक व्यक्तिगत एप्रोच।
            अध्यात्म है एक अनुभव। जब मैं योग करता था तो किसी की छबि हो या कमल के फूल हो, किसी पर भी अपना ध्यान केंद्रीभूत नहीं कर पा रहा था, उस शादी के समय ही चिदानंद स्वामी ने कहा था,तुम अगर इस तरह अपने मन में स्थिरता नहीं ला पाते हो, सुमंत, एक काम करो। शरीर को ढीला छोड़कर बैठ जाओ। नहीं, पद्मासन में कोई रिलैक्स नहीं है। दीवार का सहारा लेकर बैठा जा सकता है। पाँव सीधे लंबे कर भी बैठा जा सकता है। उसके बाद आँखें बंद करो। नीरवता के अंदर डूब जाओ। कुछ चिंता करने की जरूरत नहीं है। धीरे-धीरे तनाव से उबर आओ। खूब लंबी सांसें लो। क्रमशः तुम ध्यान केन्द्रीभूत करो,आने वाली सांसें और जाने वाली सांसों पर। उसके बाद तुम क्या अनुभव करोगे? धीरे-धीरे भीतर में एक नीरवता का अहसास होगा। बाहर में तरह-तरह के शब्द। पक्षियों का कलरव। दूर बच्चों के खेलने की आवाज। रास्ते पर किसी के कदमों की आहट। ये सारी ध्वनियाँ बाहर में और तुम्हारे भीतर में एक नीरवता। केवल नीरवता। धीरे-धीरे तुम एक नीरवता और प्रशांति के भीतर डूब जाओगे। तुम्हारे सिर का बोझ हल्का कर दो। चिंता मत करो। धीरे-धीरे नीरवता में डूब जाओ। उसके बाद पाओगे एक अद्भुत अनुभूति। देखोगे, तुम सारी दुख यंत्रणाओं के ऊपर उठ चुके होंगे, गहन शांति के भीतर खो गए होंगे। यह है तुम्हारा प्रथम अध्याय। चिदानंद स्वामी के आश्रम से बाहर निकलते समय उसके साथ थी एक नीरवता। रघु के निर्जीव सफ़ेद दोनों आखें रह गई थी आश्रम के भीतर और कहीं पर भी कोई नहीं है,पूरा आंगन पार कर चला आया था निस्तब्धता के अंदर। इतनी ज्यादा निस्तब्धता कि लोहे के गेट खोलने या बंद करने के आवाज भी डरावनी लगने लगी थी। मैं बाहर आ गया और फिर ऑफिस चला गया।
            ऑफिस में घुसने से पहले डर लग रहा था,मगर मैं क्यों डर रहा था,उसका मेरे पास कोई स्पष्ट कारण नहीं था। शायद संकोच। शायद चिदानंद स्वामी के अरेस्ट हो जाने वाली खबर की लज्जा से। शायद दाढ़ी मुडाने के संकोच से। पता नहीं क्यों फिर भी डर लग रह था। जबकि भीतर जाकर देखा,जाने-पहचाने लोग टेबल के चारों तरफ थे-उस समय भय भी जा चुका था। सभी को देखकर भी पता नहीं भय दूर हो गया,खुद भी समझ नहीं पाया। कमरे में जाने से पहले इस तरह तो नहीं था कि या तो भीतर में कोई नहीं होगा या फिर सभी अपरिचित होंगे। फिर भी कैसे यह सारा भय दूर हो गया और मैं ऑफिस में सहज भाव से चला गया बिना किसी संकोच और बिना किसी भय के, इस तरह चलते-चलते आगे बढ़ता गया जैसे कोई किसी भी प्रकार का अगर कोई प्रश्न पूछे तो उसका उत्तर दे सकता था या अपनी तरफ से बिना कुछ कहे भी मैं क्या कहूँगा,सभी मुझे पूछ कर समझ लेंगे।
            ऐसे कुछ क्षण इधर-उधर घूमने के बाद जब देखा कि मुझे कोई कुछ नहीं कह रहा है और जो ऐसे बातचीत कर रहे थे, लिख रहे थे,टाइप कर रहे थे,किताबें पढ़ रहे थे या नींद में ढुलक रहे थे,मेरी तरफ बिलकुल भी नहीं देख रहे थे। उस समय पी.एफ. के क्लर्क जेन के पीठ पर हाथ रखा और उसने मुड़कर कहा,: “अरे, तू?”
: “ तू? तुम? आज? क्या बात है? क्या हुआ है? आश्चर्य। अरे! कब? घटना क्या थी? क्या परिवर्तन ? वह! वह! तपस्वी का मोह-भंग?
धीरे-धीरे कुतूहली आँखों और आवाज के भीतर खोए हुए मैंने अनुभव किया कि मेरे पाँव कांप रहे थे, कान मूल लाल हो रहे थे। फिर एक संकोच,भय उस लाल के भीतर खो गया। सिर भारी होकर नीचे झुकता जा रहा था और नीचे। बहुत कष्ट के साथ मैंने कहा, “सी.एल. लूँगा। आज के लिए सी.एल. लूँगा।
            : तुम्हें यह लाज,भय और संकोच छोड़ना होगा। चिदानंद स्वामी ने मुझे पहला अध्याय सिखाने के समय ही कहा था, “तुम पर लोग हसेंगें। तुम्हें पागल कहकर मज़ाक उड़ाएंगे। कोई कोई तुम्हारे पौरुष को भी संदेह कि दृष्टि से देखेंगे। उन सभी की तरफ ध्यान मत देना। भौतिक जगत से ज्यादा कुछ आशा मत रखना। नहीं,सम्मान नहीं, सामाजिक प्रतिपत्ति नहीं, धन तो बिलकुल भी नहीं। तुम्हें ये सारे एचीवमेंट मिलेंगे पार्थिव जगत में। तुम परमसत्ता के जितने नजदीक होते जाओगे, इस सांसारिक जगत की सारी औपचारिकता की माया से ऊपर उठते जाओगे। समझ जाओगे, ये सब तुच्छ चीजें हैं। तुच्छ से भी तुच्छ।
            अंडर ग्रेजुएशन पीरीयड़ में हमारे आइडियलिज़्म को मजबूत बनाने के लिए प्रत्येक शनिवार को पार्टी की तरफ से क्लास ली जा रही थी एक संकीर्ण गली में कीचड़ भरी अंधेरी झोपड़ी में। वह था पार्टी का ऑफिस। कामरेड पी.के. मतलब प्रसन्न करलेते थे क्लास।
: “ आदर्श को परखने के लिए दो ऊपाय हैं। एक जनोन्मुखी वाले आदर्श। जनोन्मुखी मतलब वृहत्तर जनता अर्थात् सर्वसाधारण के आदर्श और दूसरा, संशोधनवाद या वामवादी विचारधारा वालों को ठीक तरह से पहचानने की उपयुक्त शिक्षा। इन दोनों को पहचानना ही बड़ी बात है। जिसने पहचान लिया वह ही है सच्चा मार्क्सवादी। आदर्श के बाद आती है स्थिति यानि एक्जिस्टेंस। अनेकों बार मिडिल क्लास मन लूंफेन आदर्श द्वारा प्रभावित होता है। जैसे कि सोशियल डेमोक्रेटों की विचार धारा। ये सब परित्याज्य हैं। उसके अलावा और एक बाधा आती है बुर्जुआ समाज के एस्टाबलिसमेंट का मोह। यह सब मार्क्सवादी पार्टी के सारे लोगों को भटका देता है। इसलिए बड़ी बात यह है,अपने आपको पार्टी की लाइन में परिचालित करना होगा और आत्म समालोचन या सेल्फ क्रिटिसिज़्म करना। लोगों ने सो कॉल्ड गृहस्थ और इंटेलेक्चुअल ने तुम्हें कम्यूनिस्ट कहकर नफरत करेंगे,कहेंगे तुम अपना जीवन बर्बाद कर रहे हो और जीवन में कुछ भी नहीं बन पाओगे। इन सारी बातों पर ध्यान मत देना। बड़ी बात है आदर्श,आदर्श में हमेशा बंधे रहना ही बड़ा एचिवमेंट है।
            जबकि कोई नहीं जानता है केवल कंचनजंघा और बाद में किसी डांगे ने मुझे पार्टी लाइन से धकेल दिया था बाहर की ओर। पी.के. की युक्ति संशोधनवाद को दूसरे नंबर का दुश्मन मान लो के अनुसार अगर डांगे को दोषी माना जाए या कंचनजंघा को? आज तक समझ नहीं पाया कंचनजंघा लूंफेन या मध्यवर्गीय या बुर्जुआ है? बल्कि उसकी भूमिका सबसे बड़ी थी। आज की खबर पढ़कर इतनी जल्दी से दाढ़ी काटने के पीछे किसी षड्यंत्र, किसी माया-मोह,भौतिक जगत के किसी आकर्षण को समझ नहीं पाया।
            सच में, मैं बहुत कंपलीकेटेड हूँ। हिमानी कहती थी, ‘हिप्पोक्रेट। हिमानी ने यह बात दो बार कही थी। पहली बार कहा था, जब मैं कटक के रेलवे कॉलोनी के ऑफिसर क्वार्टर वाले ससुराल में था। पहली बार दुख हुआ था, फिर आश्चर्यचकित। क्या हिमानी नहीं जानती है कि मैं कंपीटीशन के लिए कोचिंग क्लास जा रही हूँ। रात को एक गिलास पानी मांगने पर भी वह चिढ़ जाती थी। मटके से पानी लेकर नहीं पी सकते हो। बेरोजगार दामाद का और कितना सम्मान; आह रे ! ससुराल में ऐसे बैठे रहने में शर्म नहीं आती है? ‘हिप्पोक्रेट
            हिप्पोक्रेट एक गाली थी। उस दिन दुख से, क्षोभ से सारी रात बिना सोए गौतम बुद्ध की तरह भोर-भोर घर छोड़कर चला गया था। चिट्ठी लिखकर छोड़ गया था हिमानी,नौकरी मिलने पर तुम्हें लेने आऊँगा। मेरी चिंता फिक्र मत करना।
            हिमानी उसके चले जाने के बाद भी सोच रही थी कि यह सब मेरा पागलपन था। उसकी धारणा थी कि मेरा दिमाग का स्क्रू कुछ ढीला है, कुछ ज्यादा पहचान नहीं पाई थी,केवल दूर से जानती थी और कौन नहीं जानता है कि दूर के ढोल भी सुहावने होते हैं। नजदीकी होने पर पता चलता कि वह बहुत जिद्दी और अहंकारी लड़की है, कभी नहीं मानेगी उसकी कोई गलती भी है।
            पहली बार गुस्से में हिमानी ने हिप्पोक्रेटकहा था। दूसरी बार युक्ति छल से तर्क-वितर्क में। उस समय उस क्लर्क की नौकरी के लिए जबर्दस्ती लेकर आया था हिमानी को कटक में और एक बेडरूम,एक ड्राइंग रुम वाले छोटे क्वार्टर के भीतर गुजर-बसर हो रही थी हमारे नई संसार की और बैंक पीओ,यूपीएससी के परीक्षा के लिए। उस समय लेक्चर की नौकरी आशा से बाहर थी। क्योंकि हिमानी के साथ शादी होने के पचीस दिनों के बाद एक टेलिग्राम आया था दिल्ली से,सिक्योरर्ड थर्ड क्लास। शादी होकर एक महीना भी नहीं हुआ था अभी। हिमानी बुरी तरह से टूट गई थी। बहुत गंभीर होकर रहने लगी थी दो-तीन दिन तक और एक दिन उसने कहा: नहीं आया अच्छा डिविजन तो नहीं सही,तुम कंपीटीशन तो दो?”
            एक दिन शाम के समय ऑफिस से लौटते समय उसके हाथ में थे पी.ओ. की परीक्षा के कॉल लेटर। परसों परीक्षा थी, फॉर्म को हाथ में लेकर,कोयला चूल्हा के पास बैठकर गप मार रहा था और हिमानी रोटी बनाते समय कह उठी थी, तुम हिप्पोक्रेट।
            ‘हिप्पोक्रेट’?
            तुम तो स्प्रिच्युलिस्ट हो, स्प्रिच्युलिस्ट हो रहे हो? घर-संसार,माया-मोह, मान सम्मान से ऊपर हो, कह रहे हो? लेकिन कंपीटीशन परीक्षा दे रहे हो,बैंक पी.ओ. बनने की उम्मीद लेकर। हिप्पोक्रेट नहीं हो?
            मन के अंदर एक दुख गहरा गया था। क्या हिमानी समझ नहीं पाई, उसके लिए और केवल उसके लिए ही कंपीटीशन में बैठ रहा हूँ? नहीं तो, इन चारदीवारी के भीतर सीमित जीवन-यापन इस रविवार के दोपहर में मांसाहार जैसा सुख खोजने के कोहरे में तैरने जैसा,संगम के लिए लालायित क्षण,ये सारे मेरे लिए नहीं है। केवल जान-बूझकर गलत जगह पर रह रहा है वह हिमानी के लिए,केवल हिमानी के लिए ही,समझ नहीं पाती है वह?
            एक क्षोभ में,अपमान में,गुस्से में फॉर्म को जलते हुए चूल्हे के अंदर फेंक दिया। पहले कुछ अवाक् विस्मय हुआ और उसके बाद कोह से फट गई थी हिमानी,आँखों से शोक उछल आया था आंसुओं के रूप में। चूल्हे से बाहर निकाल लिया था जलते हुए भविष्य को। जले हुए कागज और जले हुए अक्षरों के भीतर से मेरा तथाकथित वस्तुवादी भविष्य छटपटाकर अंतिम सांस लेने के समय हिमानी शोक के शिशिर बिन्दुओं से भीगे हुए शब्दों को खोज पा रही थी: यह तुमने क्या कर दिया? ए माँ,क्या कर दिया?”
            उसके बाद हिमानी के सारे अनुनय-विनय,ज़ोर-जबर्दस्ती भी मेरे मन को पिघलाना नहीं सकी और वही थी असफल चेष्टा,उसके बाद कभी भी मेरा आग्रह नहीं हुआ। हिमानी के शब्दों में नालायक और बड़े साले के शब्दों में आलसी हो गया था।
: “ वकील बाबू, आपके घर मुझे भेज रहे थे। अच्छा हुआ, आज आ गए।गेट खोलते-खोलते प्रणव बाबू के दरबान-कम-पियोन-कम-माली ने आकर कहा और उसे पार कर मुरर्म बिछे रास्ते के दोनों तरफ सजे हुए सफ़ेद रंग से पोती जा रही ईंटों को देखते-देखते आगे जाकर वकील बाबू के ड्राइंग रूम के परदों को खोलकर मैं भीतर घुस गया।
: “ तुमने उसे दो थप्पड़ मार दिए, उसके बाद भी उसने गाली नहीं दी?” प्रणव उनके एक मुवक्किल को पूछते-पूछते रुक कर कुछ कहने लगे : ये सुमंत है,तुमने आकर अच्छा किया। तुम्हारे पास सदानंद को भेज रहा था। थोड़ा बैठो,में कुछ जरूरी बातचीत पूरी कर लेता हूँ। हाँ,तुमने जो उसे दो थप्पड़ मारे..........
            मैं टीन की कुर्सी पर बैठ गया। धोती पहने दो ग्रामीण लोग,कमर तक धूल धूसरित पाँवों में फटी-पुरानी हवाई चप्पलों को बड़े विभ्रम से चौखट पर उतार कर मेरे पास आकर बहुत विनीत भाव से बैठ गए। एक गंजा आदमी गाँव के टाऊटर की तरह दिख रहा था और दूसरा आदमी चेहरे पर दाढ़ी,दोनों आँखें किसी पागल की तरह,सांड की तरह दिख रहा था। वह प्रणव बाबू के प्रश्नों का उत्तर दे रहा था।
           वह इस अंचल का प्रसिद्ध वकील था,चिदानंद स्वामी का भक्त,फ़ौजदारी मुकदमों में उसका नाम था,आश्रम में रेगुलर आते थे,अपना घर बनाया है,दुमंजिला घर,घर के सामने सुंदर बगीचा,मैं उनका ड्राइंग रुम के आगे कभी भीतर नहीं गया। चिदानंद स्वामी के आश्रम में भजन-कीर्तन के समय प्रणव बाबू बहुत ज्यादा भावुक हो जाते है। मैं उनके ड्राइंग रुम के आगे कभी नहीं गया। उनके ड्राइंग रम में कारपेट बिछा हुआ है। गोदरेज टेबल के ऊपर फ़ाइल पत्र,कागज,कलम,सिगरेट,एश-ट्रे तथा गोदरेज चेयर पर सहारा लेकर प्रणव बाबू बैठे हुए थे और उनके पीछे की दीवार पर काँच की अलमीरा में सारी वकालात की किताबें भरी हुई थी। घर के एक कोने में टेबल चेयर पर एक धोती कुर्ता पहना हुआ भद्र आदमी कुछ लिख रहा था,उनके सामने टाइप राइटर की एक मशीन रखी हुई थी। यह प्रौढ़ व्यक्ति कौन है? क्लर्क ? मोहरीर? मेरा सोचना था कि कहीं जूनियर वकील तो नहीं होगा। उनके ऊपर विवेकानंद का एक फोटो लगा हुआ था। दरवाजे के पास बहुत सारी टीन की कुर्सियां पड़ी हुई थी और प्रणव बाबू के गोदरेज टेबल के सामने एक लंबा बेंच पड़ा हुआ था। दीवार पर घड़ी लगी हुई थी। वकील बाबू के पास एक मोटर साइकिल है। कुछ दिन से वह एक कार खरीदने के लिए विभिन्न लोगों से पूछ-पूछकर अपना आईक्यू बढ़ा रहे थे। दूसरी बार हिप्पोक्रेट कहने के ढाई-महीने पहले,एक साथ घर बसाने के चार महीने के बाद,हिमानी ने पूछा: तुम्हारे चिदानंद आश्रम में इतने सारे लोग आ रहे हैं,वे लोग किस तरह से घर संसार चला रहे हैं,अध्यात्मिकता के साथ-साथ,मगर तुम क्यों नहीं चला पा रहे हो?”
: “ मैं दोहरा जीवन नहीं जी पाऊँगा। वह साधना नहीं है,हिप्पोक्रेसी है।
: “ क्यों नहीं जी पाओगे ? राजा जनक तो राज्य चलाने के साथ-साथ ऋषि भी बने थे।
: “ हिमानी,जनक की कहानी केवल एक यूटोपिया का मिथक है। तुम जितनी आंखें खोलकर दुनिया की तरफ देखोगी,उतनी ही भौतिकवादी बनती जाओगी। अध्यात्म किसी भी प्रकार धर्म नहीं है,हिमानी,एक साधना,आत्म-मग्न साधना है। बाहरी दुनिया से आंखेँ फेरकर अपने भीतर के समुद्र में डुबकियाँ लगानी होती है,बढ़ना पड़ता है परम सत्ता की तरफ।
हिमानी ने सोचा था घर के लिए सोफ़सेट बेडरूम के लिए बांबे पैटर्न वाला पलंग,फ्रिज और स्कूटर तथा अल्प किराये वाले घर को छोड़कर एक आलीशान क्वार्टर,सप्ताह में के बार फिल्म देखने जाना,रविवार को एक बार मीट खाना,दो बार मछली,दो बार अंडे खाना, महीने-दो-महीने में एक बार इधर-उधर घूमने,साल में एक बार एलटीसी में कश्मीर या कन्याकुमारी घूमने जाना आदि। घंटे-डेढ़ घंटे तक मैं ध्यान लगा सकता था। इस समय चित्त शुद्धि के लिए सुबह-शाम दो बार पूजा करता था,मांसाहार छोड़ दिया था और मन की चंचलता को रोकने के लिए अखबार पढ़ना तक छोड़ दिया था और इतना आत्म-मग्न हो गया था जैसे किसी किले में कैद हो गया हो,हिमानी मेरे चारों तरफ दरवाजा इधर-उधर घूम रही थी। मगर उसे नहीं मिल ओय रहे थे,वह हताश हो गई थी।
            दूसरी बार हिप्पोक्रेट कहने के बाद दो महीनों के बाद हिमानी विरक्त होकर उसे कह रही थी तुम्हें यह अधिकार किसने दिया कि दूसरे लोग कैसे जिंदा रहेंगे,तुम अपनी बुद्धि पर कैसे नियंत्रण करोगे? तुम मांसाहार नहीं करोगे। बिस्तर पर न सोकर नीचे चटाई पर सोओगे,फिल्म नहीं देखोगे और सेक्स में तुम्हारी रुचि नहीं हो सकती है,मगर मुझे इस तरह का जीवन जीने के लिए क्यों बाध्य कर रहे हो?”
: “ मैं तो तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती नहीं कर रहा हूँ हिमानी? मैं तो तुम्हें मेरी तरह जीवन जीने के लिए बाध्य नहीं कर रहा हूँ।
: “ तुमसे ज्यादा बुद्धू और कौन होगा? तुम मांसाहार नहीं खाओगे और मैं किसी दूसरे के हाथों से मंगवाकर खाऊँगी? अकेली फिल्म देखने जाऊँगी? अकेले शरीर की भूख मिटाऊंगी? तुम अगर सन्यासी बनाना चाहते थे तो शादी क्यों की? क्या मालूम नहीं था शादी का मतलब एडजस्टमेंट है? तुम थोड़ा एडजस्टमेंट क्यों नहीं करते?
            उसके बाद शुरू हुआ एडजस्टमेंट का दौर। फिर से शुरू हुआ मांसाहार खाना,शुरू हुआ फिल्में देखना,फर्नीचर खरीदना और सेक्स। वहीं से तुतुन हिमानी के पेट में आया। मगर ध्यान लगना धीरे-धीरे कम होता गया। जिस दिन केवल पंद्रह मिनट भी ध्यान में नहीं बैठ पाता था,उस दिन क्षोभ से टूट जाता था। विवाहित जीवन से और ज्यादा यंत्रणादायक कोई चीज नहीं लगने लगती थी। मन में आता था कि मैं धीरे-धीरे बंधन में जकड़ता जा रहा था,भोगविलास में रात लड़की के मूड और मर्जी के अनुसार चलना पड रहा था। बहुत रातों तक मैं अस्थिर हो जाता था,ऐसा लग रहा था जैसे जीवन व्यर्थ हो जा रहा हो। समय व्यर्थ में बर्बाद हो रहा था। मुझे शायद ऐसा नहीं होना चाहिए था,ऐसा जीवन नहीं जीना था।
            प्रणव बाबू मुवक्किल के साथ बातचीत खत्म करके कहने लगे, “ बताइए उसके बाद क्या हुआ?”
            मैं चुपचाप रहा। मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं था। उनके पास कहने के लिए बहुत सारी बातें थी। उन्होंने कहा,मैं कल की खबर सुनकर शाक्ड हो गया था। उसके बाद आधी रात को आप विश्वास नहीं करेंगे कि मैं आश्रम लौटकर सो गया था,पुलिस थाने के झंझट से डरकर। उस समय अचानक सपने में देखा,स्वयं विष्णु भगवान आकर कह रहे हैं,इन सारे प्रोपेगंडा में दिमाग मत लगाओ। बाबा ही वास्तव में भगवान है। जितनी आसुरी शक्तियाँ बढ़ेगी वे लोग उस तरह पीछे लगेंगे,निंदा करते रहेंगे। एनी हाऊ,आज मैंने बाबा के जमानत की व्यवस्था कर ली है। केवल एक जमानत-कर्ता की जरूरत है। एक स्थायी जमानत-कर्ता मेरे पास है, वह पैसे लेकर जमानत करता है,अवश्य मुझे देखकर इस केस में कुछ भी नहीं लेगा। लेकिन वास्तविक समस्या यह है कि उसकी बेटी मर गई है,इसलिए दो दिन पहले वह अपने गाँव गया है। फिर भी मैं बंदोबस्त कर दूंगा। लेकिन आपकी उपस्थिति रहनी चाहिए। कोर्ट चलेंगे तो मेरे साथ?
            इस आलीशान घर के भीतर प्रसन्न चेहरे वाले प्रणव बाबू,पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था कि  वह बुरी तरह से फंसे हुए है, बहुत ही बडे हिप्पोक्रेट। सोच रहा था,वह कहीं दूर खो गया है। अनजान,अपरिचित। मैंने पूछा,अच्छा प्रणव बाबू वकालत और अध्यात्म वाले इन दोनों अलग-अलग जीवन को आप जी रहे है? किस तरह जी पा रहे है? प्रणव बाबू विलक्षण हंसी हंसने लगे। ऐसी हंसी मैं मुझे धूर्तता दिखाई देने लगी। उन्होंने कहा, “ आपने गीता के तीसरे अध्याय कर्मयोगको पढ़ा है ? उसमें भगवान ने कहा कि है योग के लिए कर्म छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसे दोनों जीवन जीना ही तो साधना है।
आखिरकर गीता तो केवल थ्योरी है प्रणव बाबू,प्रेक्टिकल नहीं है। योग या कोई भी साधना व्यक्ति केन्द्रित प्रचेष्टा है। इसके लिए मनुष्य को आत्म-मग्न होना पड़ता है,अपने व्यक्तित्व को अंतर्मुखी करना पड़ता है। योग साधना के साथ सोशियल कमिटमेंट का संबंध खोजना व्यर्थ है,लेकिन गीता की एक सामाजिक प्रतिबद्धता थी। गीता के कर्मयोग में बाईस से पच्चीस तक के श्लोकों के अंदर इस सामाजिक प्रतिबद्धता की बात स्पष्ट कर दी गई है। लेकिन प्रणव बाबू अध्यात्म सम्पूर्ण रूप से व्यक्ति केन्द्रित उपलब्धि है। नहीं तो, बुद्ध से चैतन्य तक,सारे साधकों को सफलता के लिए घर-संसार छोड़कर बाहर नहीं जाना पड़ता। राजा जनक के मिथक को यहाँ प्रस्तुत करना पूरी तरह अप्रासंगिक है। यह पूरी तह से कल्पना विलास है,प्रेक्टिकल नहीं है। प्याज की दरें कम करना,कल-कारखानों की स्थापना करना या लोगों को नौकरी देने के साथ अध्यात्म का कोई संबंध नहीं है। जो राजनेता योग,अध्यात्म की बातें करते है, वे हिप्पोक्रेट हैं। योग,अध्यात्म उनके लिए फैशन है,उनके अर्थ,प्रतिफल और यश के लिए एक सीढ़ी है। मेरे लिए अध्यात्म एक जीवन-शैली,जीवन का अवलंबन है।
            प्रणव बहस छोड़कर भागने वाला आदमी नहीं था। तर्क-वितर्क करना ही तो उसका पेशा था। मेरा सिर पकड़ लिया था। तर्क-वितर्क से कभी सत्य की पहचान होती है,मुझे नहीं लगता। सत्य एक अमूर्त चीज है। उसे अनुभव किया जा सकता है,परिभाषित नहीं। तर्क-वितर्क से सत्य के पास नहीं पहुंचा जा सकता।
            हिमानी तार्किक थी। आस्था में भगवान होते है,तर्क-वितर्क से बहुत दूर बात कहने से वह एक बार चिढ़ गई थी। उस दिन से मैंने हिमानी के साथ तर्क करना छोड़ दिया। जिस दिन पहली बार मेरा घर छोड़कर वह चली गई। तुतुन उस समय उसके पेट में था,शायद छह महीने का होगा। एक रात अचानक चिढ़ कर हिमानी ने गीता को फेंक दिया था और मैंने पहली बार उसके गाल पर थप्पड़ मारा था। उसके बाद हिमानी ने कुछ नहीं कहा,सारी रात बिस्तर पर पड़ी-पड़ी रोती रही और सुबह उठकर एक पीले रंग के सूटकेस,जिसे वह अपने मायके से लाई थी,में साड़ी,साबुन,तेल रखकर,अपने बाल बनाकर,मंजन कर, जाने के लिए प्रस्तुत हो गई थी। संक्षिप्त में उसने कहा: मैं जा रही हूँ। रास्ते में खर्चे के लिए दस रुपए ले जा रही हूँ,देख लो और कोई चीज चोरी कर नहीं ले जा रही हूँ।
रात का गुस्सा अभी तक ठंडा नहीं हुआ था और उसके जाने के बाद बिना किसी प्रतिवाद के मैंने किवाड़ बंद कर दिए और आकर चुपचाप सो गया और नौ बजे उठकर ऑफिस चला गया। हिमानी चली गई, मगर दे गई निसंगता,मानसिक अस्थिरता और स्मृति। पहले कुछ दिन बहुत अस्थिर लगा। स्वामी चिदानंद के पास जाकर सारी गलतियाँ स्वीकार की। उन्होंने सब कुछ सुना और चुप रहे। मुझे रोता देखकर भी वे चुप रहे। मैंने उनसे मेरी मानसिक अस्थिरता से बचाव के उपाय पूछे और वे अपनी रहस्यमयी हंसी हँसते हुए एक उंगली ऊपर की ओर उठाकर चुप रहे।
            “ तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत ही दुर्बल है। अध्यात्म बुढ़ापे की तरह है। बूढ़े आदमी की सब-कुछ सुखाद्य पदार्थों से लेकर दैहिक यौन उत्तेजना तक सब-कुछ सांसारिक माया-मोह को बाध्य होकर छोड़ना पड़ता है। अध्यात्मिकता भी वैसा ही है। तुम्हें सब आकर्षणों को छोड़कर ऊपर उठना पड़ेगा। जबकि तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत ही दुर्बल है। तुमने तो अभी भी सांसारिक मोह,युवा-सुलभ चपलता नहीं छोड़ी है। तुम अपनी पत्नी को प्यार करते हो,तुम उसे खुश करना चाहते हो और ठीक उस समय योग साधना में पूर्णता भी चाहते हो। तुम अभी तक अपनी आसक्ति को खत्म नहीं कर पाए हो। तुम अभी तक अपने अपमान को धूल की तरह झाड नहीं पाए हो। तुम अभी भी सांसारिक माया और अध्यात्म दोनों के बीच झूल रहे हो।
          एक संन्यासी ने मेरे चरित्र का विश्लेषण किया था लक्ष्मण झूले के पास,उस समय जब हिमानी पहली बार घर छोड़कर चली गई थी और मैं मानसिक अस्थिरता के कारण पागलों की तरह भटक रहा था,चिदानंद स्वामी के पास मुझे किसी भी प्रकार की शांति का ठिकाना नहीं मिला,ऋषिकेश,हरिद्वार की तरफ उस समय मैं घूमने चला गया था। मैं लक्ष्मण झूले के पास पथरीली जमीन पर बैठकर नदी,पहाड़,आकाश की तरफ देख रहा था,तभी देवदूत की तरह एक संन्यासी मेरे पास आकर खड़ा हो गया और कहने लगा, “ तुम लौट जाओ युवक। तुम्हारे संन्यास लेने का समय नहीं हुआ है।
            वह यह कहकर चला गया। मैं पूछ नहीं पाया कि वह कौन है। मैंने उसे कुछ नहीं कहा था और उसने भी मुझे इससे ज्यादा कुछ नहीं कहा था। बहुत ही साधारण योगी की तरह का वह संन्यासी था। उसके जाने के बाद मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे। वह कहाँ चला गया? चारों तरफ घूम फिर कर देखा,मगर वह नजर नहीं आया।
        ओड़िशा लौट आने के बाद उसके डिलीवरी हुई,तुतुन को गोद में लेकर हिमानी आई थी। एक दिन बात-बात में लक्ष्मण झूले पर हिमानी ने उस बाबा जैसी बात कही थी हैल्यूसिनेशन हो जाएगा तुम्हें। तुम्हारे अचेतन मन की प्रतिक्रिया हैल्यूसिनेशन में दिखाई देने लगेगी। विज्ञान के इस युग में ये सारी बातें अविश्वसनीय हैं।
            चिदानंद स्वामी ने भाव विह्वल होकर कहा था.... अरे,तुम भाग्यवान हो सुमंत,भगवान तुम्हारे पास आये थे। मैंने अपने मानसिक वलय के अंदर अवश्य इन कंपनों को अनुभव किया था कि तुम्हें भगवान का साक्षात्कार हुआ है।
मैं उठकर खड़ा हो गया। वकील बाबू ने कहा : जाओगे?”
: “ कहा जाऊंगा?”
: वा: भूल गए? कोर्ट नहीं जाएंगे? बाबा की जमानत लानी होगी?”
मैंने अन्यमनस्क भाव से कहा: जाऊंगा।यह कहकर मैं बाहर आ गया।
अचानक कटक पहुँच गया। ऐसा तो होने की बात नहीं थी। अपने शहर में घूमते-फिरते भी कटक जाने की कल्पना नहीं की थीओ.एम.पी. में उतर जाऊंगा और वहाँ से पैदल रेलवे क्रोसिंग के पास निरुद्देश्य भाव से रास्ते के बस स्टैंड के पास चला गया और वहाँ से अतिरिक्त तहसीलदार,पता नहीं उनका क्या नाम था,उनसे मुलाकात की। उस आदमी से मुझे बहुत एलर्जी थी। देखने से ही पता चल रहा था कि वह आदमी एक ब्यूरोक्रेट है और यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है और वह भी मुग्ध-भाव से तृप्त था। उस आदमी से बचने के लिए मैं बस में चढ़ गया और उसके बाद अन्यमनस्क भाव से कटक जाने का टिकट खरीदा और उसके बाद कटक के रेलवे क्रॉसिंग के पास खड़ा होकर हाँ नाके अंतर्द्वंद्व को झेल रहा था।
            सामने दिखाई दे रही थी रेलवे कॉलोनी और उस कॉलोनी के मकान में हिमानी रहती थी। हिमानी जो कुछ भी हो,शायद प्रत्येक लड़की के अंदर एक चुंबकीय शक्ति छिपी हुई होती है, जो अपने आप मन को खींचकर अपने पास ले जाती है,वह अपने पल्लू हिलाकर प्रेम की खुशबू को बिखेर देती है। जानता हूँ,हिमानी के साथ घर-संसार बसाना मुश्किल था,जबकि वह जैसे दोपहर के रास्ते में पेड़ों के तले कछुए की नींद की तरह विश्राम के लिए छटपटा रहा था।
            हिमानी के पास अंतिम बार मैं गया था,दो वर्ष पहले तुतुन को उस समय चार साल हो रहे थे और दूसरी बार हिमानी घर छोड़कर जाने के तीन साल बाद। हिमानी जब सीटी की ट्रेनिंग ले रही थी,बी.ए. के बाद सीटी,बी.एड. करने की आजकल कोई खास वैल्यू नहीं है। दूसरी बार हिमानी छोड़कर चली गई थी,साड़ी खरीदने के लिए हुए झगड़े के बाद। चिदानंद स्वामी के आश्रम में यज्ञ हो रहा था उस समय बाबा के लिए डेढ़ सौ रुपए चंदा दिया था। हिमानी उस खबर को सुनकर पूरी तरह गुस्सा हो गई थी और उस दिन शाम को मुंह फूलाकर क्रोध में रूठकर रात को बिना कुछ किए सोने चली गई-दूसरे दिन इन सारी चीजों को नजरअंदाज कर मैं सीधे ऑफिस चला गया,लौटते समय पास में संचित छह सौ रुपए उठाकर गुस्से से चार-पाँच साड़ी खरीद कर लाया था। जिद्द में आकर उस दिन से दूसरी बार वह चली गई और फिर नहीं आई। तीन वर्ष के बाद एक बार मैं आया था उसके इस कटक रेलवे कॉलोनी के ग्रिल वाले घर में। जब मैं पहुंचा,हिमानी नहीं थी।ट्रेनिंग स्कूल गई हुई थी। मुझे देखकर पहले अवाक रह गई थी साली और उसके बाद आ रही हूँ’  कहकर बरामदा-सह-ड्राइंग रूम में बैठाकर कहीं चली गई,कुछ समय तक घर के भीतर फुसफुसाहट करने बाद एक लूँगी लाकर देते हुए चली गई,इसे बदलने को कहकर।
            तीन घंटों की लंबी प्रतीक्षा के बाद मुझे चाय नाश्ता मिला था और आठवीं कक्षा के इतिहास की पुस्तक पढ़कर पूरी कर दी थी।बाद में तुतुन को देखा,चार वर्षीय तुतुन,मेरे खून का तुतुन और देखने से ही समझ गया था माया कितनी खतरनाक होती है,किस तरह ऑक्टोपस की तरह जकड़ देती है मन को और आज-तक भूल नहीं पाया उसका हँसता मुस्कराता चेहेरा। तुतुन दरवाजे के किसी कोने से छुपकर देख रहा था,मुझे देखकर हँसते हुए छुप जा रहा था और बार-बार बुलाने के बाद एक बार हिम्मत कर उसने पूछा: आपने नाना की लूँगी क्यों पहनी है?”
: “ मैं कौन हूँ,जानते हो?”
तुतुन ने सिर हिलाकर हामी भरी और कहा: आप एक आदमी हो। मौसी के मित्र हो।
: “ नहीं । मैं तुम्हारा पिता हूँ।
: “ धत! मेरे पिता बाबा बन गए हैं। इतनी बड़ी-बड़ी दाढ़ी रखकर भीख मांगते हैं।
यह था मेरे ऊपर प्रथम आघात। बाद में चिदानंद स्वामी को मैंने वह बात बताई थी। उन्होंने हँसते हुए कहा था: यह माया है,सुमंत। उसमें क्यों पिसे जा रहे हो? उठ जाओ।बेटा,बेटी,पत्नी,कोई भी किसी का नहीं है। मृत्यु के बाद इनके साथ और क्या संबंध रहता ? सोच लो,पार्थिव दुनिया में तुम मरे हुए हो।
: “ तुम लौट जाओ,सुमंत। मैंने निर्णय ले लिया है,मेरा बचा-खुचा जीवन तुतुन के सहारे कट जाएगा। हम दोनों दूसरे के लिए मर गए है। देख रहे हो,मैं मांग में सिंदूर नहीं लगाती हूँ,हाथों में चूड़ियाँ भी नहीं पहनती हूँ। तुमने तो रमाकांत रथ को पढ़ा होगा,सुमंत? तुम मेरे स्वामी का कंकाल हो,मैं तुम्हारी सुंदरी विधवा।
हिमानी ने कहा था सीटी स्कूल से लौटकर,मुझे देखकर,आश्चर्य चकित हो गई थी। उसने पहला प्रश्न पूछा: क्यों आए हो?” उसके बाद उसकी अस्वीकृति और इन दो वर्षों के बाद फिर से रेलवे कॉलोनी के सामने। इतने साल गुजर गए थे,सभी के जीवन में इतना परिवर्तन होता जा रहा था,लेकिन यह कॉलोनी जैसी की तैसी थी। थोड़ा-सा बदलाव नहीं आया था।
दोनों तरफ बगीचों के बीच इस संकीर्ण रास्ते को पार कर जाते-जाते पाँव रुक जा रहे थे। क्या कहूँगा? अगर चिदानंद स्वामी के अरेस्ट होने की खबर पर मज़ाक उड़ाएगी। क्या कहूँगा? या वापस चला जाऊंगा ? या जबान लड़ाऊँगा? या कहूँगा लौट आओ हिमानी फिर से ? यदि साला मारपीट करने आएगा? यदि ससुर गाली-गलौच करेगा ? यदि मन मसोस कार गुस्से से तमतमाएगी? यदि हिमानी कहेगी: सात वर्ष के भीतर हमारे बीच गलतफहमी की इतनी बड़ी दीवार खड़ी हो गई है सुमंत,कि उस दीवार को तोड़कर एक कोठरी बनाना अब असंभव है। तब? अब वापस चला जाऊँ? नहीं, एक बार मिलकर जाऊंगा?
किसे खोज रहे हो?
एक अपरिचित आदमी बैटिक छापा वाली लूँगी पहन कर बगीचे में फूल के पौधों के पास काम कर रहा था,काला चेहेरा,देखने लायक मूँछें,देखने में साउथ इंडियन की तरह लग रहा था।
: “ दंडपाणि बाबू, हेड डिजाइनर ड्राफ्टसमैन का घर यह है? पहले तो यही था।
: “ वे लोग बहुत समय से खोर्द्धा रोड चले गए हैं।
: “ उनकी बेटी हिमानी को पहचानते हो ? सीटी की ट्रेनिंग ली है। नहीं पहचानते हो? तुतुन हिमानी की बेटी है? आप बिल्कुल भी नहीं जानते हो।
मैं लौट आया। अब क्या करूंगा? कहाँ जाऊंगा? सिर के भीतर कहीं घड़घड़ाहट हो रही थी। बिजली चमक रही थी। नहीं गलत? इस बार किस घर में जाऊंगा,आश्रय खोजने ? कटक शहर के सारे घरों में तो ताले लगे हुए थे। मेरे भीतर हिंसा जाग उठेगी,हजारों हाथों वाला वहीं विप्लवी सुमंत,आँखों के पुतलियाँ लंबी हो जाएगी और विरोध की गर्जना से कंपा देगा पृथ्वी को या मैं बैठा रहूँगा। ट्रेन की व्हिसिल,बादलों की गर्जन,टपकती बारिश की बूंदें। बच्चों के शोरगुल के भीतर बैठा रहूँगा। रात होगी,उसके बाद सुबह,उसके बाद दोपहर,उसके बाद फिर रात के बाद सुबह के बाद रात,ऐसे ही सुमंत युग बीत जाएंगे और मैं बैठा रहूँगा। मेरा शरीर फांका हो जाएगा,बहुत दिनों से किसी ने वहाँ पांव नहीं रखा होगा। फाँके में सरीसृप रहेंगे और मैं ऐसे ही बैठा रहूँगा। मेरे शरीर पर मकड़ियों के जाले लगेंगे। भीतर में खा जाने वाली निर्जनता,किसी की भी आवाज प्रतिध्वनित होने लगेगी। मैं बैठा रहूँगा। सारे शरीर पर काई जमने लगेगी। लता,झड़ी,कैक्टस,कानकोली के कांटे चुनने लगेंगे। अलंदु जमने लगेगा,मगर मैं बैठा रहूँगा। शायद मैं बैठा रहूँगा। शायद मैं अयुत युगों तक ऐसे ही बैठा रहूँगा।
 
 

 

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