पलायन का रास्ता
पलायन का
रास्ता
चले आओ
नलिनाक्ष!
लंबे बरामदे
के एक कोने में चटाई पर कुछ स्टैम्प वेंडर बैठे हैं। उन्हें कुछ ग्रामीण लोग घेरे
हुए है। वहाँ से कोरिडोर लंबा है, तहसीलदार के
ऑफिस के सामने के पर्दे को पार करते हुए। स्टूल पर पियोन बैठा है, कुत्ता धकियाता है, लोगों और क्लर्कों का गुहाल घर, बड़े टेबल पर थाक में सजा कर रखे गए ओड़िशा गज़ट के अंदर डुबे, मुंह लटकाए लिखने में मग्न हैं लोग। साइकिल रखी हुई
है। छत से आ रही पीली धूप, एडिशनल
तहसीलदार का ऑफिस, सामने कोई
पियोन नहीं है, उसका स्टूल
भी नहीं है, खाली पर्दा
हिलने वाली लैंड स्कैप को पार करते हुए, कुछ क्लर्कों के गुहाल घर को पार करते हुए, ट्रेजरी की तरह रेलिंग लगी एक माल खाने को पार करते हुए, पुलिस को पार करते हुए, बरामदे में बैठे चर्चा करने वाले लोगों को पार करते हुए, कोरिडोर, जहाँ फिर मूड गई है, वहाँ कुर्सी
टेबल डाले एक ग्रुप लोग फिर लिखा रहे हैं और उन्हें घेरा हुआ है अन्य एक ग्रुप।
घुटने के ऊपर उठी हुई मैली धोती, मैले से
भरपूर पैर के साथ झुके हुए हैं । उसी बरामदे के ठीक नीचे एक कैबिन हैं, पान की दुकान है, पान-सह-चाय की दुकान, पेड़ की छाया
में कुछ मैला-कुचला काला-काला डेस्क बेंच है।
खड़े होते
हुए, दीवार से
अपने को सटा कर टेबल की फाइलों के अंदर से चाय पीने वाले बड़े बाबू को तथा कागज
काटने वाले पियोन सभी को मैं देख रहा था, पास में बैठा क्लर्क लिखने में व्यस्त है। इतने शब्दों की भीड़ में कहीं एक
घंटा बज रहा है। कितनी बार बजा है? फिर से बज रहा है। मेरे खून के अंदर एक ठंड भरी रात उतरती आ रही थी। कोई
जैसे बुला रहा हो चले आओ नलिनाक्ष, चले आओ।
ऐसा ही तो
होता है। कोई जैसे बुलाता है; चले आओ
नलिनाक्ष, चले आओ।
कौन बुलाता
हैं? कहाँ है वह? घूमकर चारों तरफ देखता हूँ, कहीं कोई नहीं हैं। फिर भी “चले आओ, नलिनाक्ष, चले आओ” पुकारते हुए
बुलाता है? कहाँ बुलाता
है? किस रास्ते में
? उसे क्या
चाहिए? कुछ तो पता
नहीं। फिर भी जैसे मेरे अंदर से कोई पुकारता है” चले आओ नलिनाक्ष, चले आओ।
दोपहर में पेड़ की छाया में खड़े होते समय, गुवाल में गाय को भूसा डालते समय, मेंड़ पर बैठकर मजदूर का काम देखते समय, दमयंती के भात परोसते समय, लालटेन का
काँच साफ करके बाती लगाते समय, आधी रात को
रजाई के अंदर दमयंती के घुस आते समय कोई जैसे मुझे बुलाता है, “मुझसे मिलो नलिनाक्ष, एक बार सही, मिलो तो नलिनाक्ष, चले आओ।
पर जाऊँ
कहाँ? पहुँच कर
क्या देखूंगा? खाट पर शायद
कोई नाच रहा है या घुंघरू बाँधे नाच रहा है? यह भयानक दृश्य जैसे आँख और हाथ बाँधे कुछ लोग और उनके सीने में बंदूक की
नली, या बहुत
दिनों से मिट्टी के नीचे के शव उठ आए है, जिनके चेहरे का मांस मिट्टी हो गया है, अंदर से सफ़ेद हड्डी दिख रही है, कुछ अबोध भाषा में पूछ रहे हैं। शायद ऐसा कुछ भी नहीं है दूसरों की तरह।
मैं जाऊँ तो देखूंगा वहाँ के दो सुंदर गीले होंठ मेरे होठों की तरफ आने के लिए उतावले हो रहे है या एक लंबी छुरी
प्रतीक्षा में है मेरे
पिंजरे की। या ऐसा भी नहीं है। शायद जाऊँगा तो देखूंगा कि कुछ लोगों ने मेरे शरीर
पर महाकाशचारी की पोशाक पहना दी है। संवर्धित होकर कह रहे हैं, ‘जाओ, उड़ जाओ नलिनाक्ष! यह पृथ्वी तेरे लिए नहीं है।’ या ये सभी नहीं। मेरे पहुँचने पर वहाँ कोई मेरे शरीर
से दिल, दिमाग, आँख और किडनी निकाल कर लोशन भरे जार में रख देगा।
शायद ....
पता नहीं।
कुछ तो समझ नहीं सकता फिर भी कोई पुकार रहा है। कभी-कभी लगातार, खूब करुण स्वर में पुकारता हैं; “एक बार सही
मुझ से मिलो, नलिनाक्ष।
एक बार चले आओ।“
मैं इंतजार
कर रहा हूँ, दीवार से
सहारा लेकर, दीवार का
सफ़ेद चूना शर्ट पर लग गया है। सामने क्लर्क बैठ कर लिख रहा है तो लिख ही रहा है।
चले आओ, नलिनाक्ष की
आवाज में कोई पुकार रहा है तो पुकार रहा है। मैं दीवार पर सहारा लिए, आँखें बंद किया हूँ तो किया हूँ, क्लर्क बैठकर लिख रहा है, एक बार मुझसे मिलो नलिनाक्ष, झुककर आँखें बंद किया हूँ तो किया हूँ। क्लर्क जो लिख
रहा है, लिख रहा है।
कोई पुकार रहा है तो पुकार रहा है। झुककर आँखें बंद किया हूँ जो किया हूँ ......
और कितनों युगों तक ऐसे चलेगा । हाँ कितने युगों तक।
डेढ़ रुपये
के कोर्ट फीस में लटका इंसाफ।
जमीन हमारी
है। सतहत्तर डेसीमल जमीन। हम खजना दे रहे थे। देते आ रहे है। बहुत वर्षों पहले की
जमीन। खाता-पत्र रिकॉर्ड सभी हमारे नाम पर है अब। पिछले सेटलमेंट कैंप में वह जमीन
नक्शों में दूसरों के नाम चढ़ा दी गई थी। सिर्फ मैप में। जमीन का रिकार्ड हमारे नाम
पर है। हम खजना दे रहे है।
: नक्शे में उठाना चाहते हैं? बंदोबस्त करने वालों से बोलिए ना।
: कहा था। उन लोगों ने तहसीलदार से पास भेज दिया। बोले, तहसीलदार के पास जाओ। वहाँ दरखास्त दो, वे हम लोगों से बोलेंगे तो हम कर देंगे।
: आप डेढ़ रुपए की कोर्ट फी लगा कर एक दरखास्त दीजिए।
कार्टिस पेपर में एप्लाई करना। टू द तहसीलदार कर एड्रेस करना।
: उसके बाद?
:उसके बाद क्या? एप्लाई कीजिए।
: कोर्ट फीस, यहाँ के स्टैम्प वेंडर के पास मिले जाएंगे?
: यहाँ स्टैम्प वेंडर कहाँ ? ये तो सभी राइटर हैं। आपको
सब-रजिस्ट्रार के ऑफिस में जाना होगा। सब-रजिस्ट्रार का ऑफिस टाउन के भीतर। शिव
मंदिर के पास। पूछने से बोले देंगे। हाँ, यहाँ से दो-तीन मील जरूर होगा।
: इतनी दूर
: क्या करेंगे और?
: कोई परेशानी?
: हाँ थोडी।
: यहाँ नहीं मिलेगा?
: पूछ कर देखिए। अगर राइटर लोग रखे होंगे।
: रखते हैं क्या?
: पता नहीं, नहीं होगा शायद , पूछ कर
देखिए ना।
: और इतनी दूर-
: एक बात बोलूँ? कुछ नहीं सोचेंगे तो? यहाँ भीम
नामक एक पियोन है। उससे माँगिए, वह दे देगा।
बेचारा गरीब आदमी है। वह स्टैंप वेंडर नहीं या उसका रजिस्ट्रेशन नहीं है, बेचारा आठ आना या बारह आना ज्यादा लेगा। दो रुपए देने
से मान जाएगा। उससे पूछिए, आपको भी
चलना नहीं पड़ेगा- उसे भी दो पैसे मिल जाएँगे। गरीब आदमी है। जैसा जमाना आया है!
आपको भी चार रुपए रिक्शा भाड़ा लग जाएगा। गरीब आदमी, आठ आना एक रुपया मिलने से परिवार का गुजारा होगा। हें....हें....हें
: कहाँ है वह?
: होगा कहीं। आप बाहर या उस तरफ की ऑफिस में जाकर
पूछिए। घूमता होगा कहीं। भीम। उसका नाम है भीम पियोन। बूढ़ा है।
खोटे जा रहे
दिन सारे:-
कोरीडोर के
बाहर लोगों की भीड़ और खाली-खाली मैदान-पेड़-पौधे नहीं, खाली मैदान को चीरता हुआ पार कर गया है काला पक्का
रास्ता। उस ओर देख रहा है। छाती के भीतर किस तरह खाली-खाली लग रहा है। शोक है क्या? पेट में एक व्यथा। कहाँ है व्यथा? ठीक समझ में नहीं आती। परंतु रहती है। गैस्ट्रिक या
और कुछ। पता नहीं चलता?
अस्त-व्यस्त
पैर डाल कर इधर-उधर घूमता- फिरता है, भीम पियोन कहाँ है? व्यस्त
लोगों के शब्द मुझे बेध-सा जाते है। शरीर पसीना-पसीना हो रहा है। पैर के नीचे
कोरीडोर की छाती पर धूप और छाँव को दबाते-दबाते मैं आगे निकल जाता हूँ, वापस आ जाता हूँ, फिर निकल जाता हूँ। ओड़िशा गज़ट के लोग, साइकिल और ऑफिस के सामने से पर्दा पार करते हुए निकल जाता हूँ। पर भीम
पियोन कहाँ हैं?
देखिए ना, तहसीलदार के ऑफिस के सामने होगा।
देखिए ना, रिकार्ड रूम में होगा।
देखिए ना, क्लर्क लोगों के उन ऑफिस-घरों के अंदर होगा।
देखिए ना, एडिशनल तहसीलदार के ऑफिस में होगा।
देखिए ना।
देखिए ना।
देखिए ना ।
देखिए ना, यहीं घूम रहा होगा।
मेरे सामने
असंख्य होंठ हिल रहे हैं, असंख्य हाथ
हिल रहे है, इधर-उधर पैरों की आहट। मेरे होंठ
छोटे होते जा रहा है। गला सूख रहा है। माथा दर्द कर रहा है। आँखें जल रही हैं।
कहाँ है भीम पियोन? एक कुत्ता
पैर उठाकर बरामदे के नीचे मूत रहा है। ग्रामीण लोगों का एक दल घेरा बनाकर ग्रामीण
ढंग से चर्चा कर रहा है। तहसील ऑफिस जैसे एक टूटा हुआ जहाज है। भीम पियोन कहाँ है? टूटा हुआ जहाज जैसे कई दिनों से पीली धूप के समुद्र
के अंदर पड़ा है। खाली-खाली मैदान की नि:संगता भीतर पड़ी है। आदमी सब फ़ासिल है।
साइकिल फ़ासिल है, कुत्ते भी
फ़ासिल है ओड़िशा गज़ट के लोग फ़ासिल हैं। क्लर्क लोग फ़ासिल है। तहसीलदार फ़ासिल है।
भीम पियोन कहाँ है?
: एक बार सही
मुझसे मिलो, नलिनाक्ष
चले आओ। प्लीज, एक बार तो
मुझसे मिल लो कई दिनों से नहीं मिली हूँ तुमसे।
गला सूखता
जा रहा है, माथा दप-दप
कर रहा है। आँखें जल रही है- फिर भी आगे बढ़ता जाता हूँ। चटाई पर बैठे स्टैंप वेंडर
ने सोचा था कि वह स्टैंप वेंडर नहीं है, राइटर है, उन्हें पार
करते हुए, लोहे की
रेलिंग वाली ट्रेजरी पार करते हुए, तहसीलदार का ऑफिस पार करते हुए, क्लर्कों की गुहाल पार करते हुए, रिकार्ड रूम पार करते हुए, ओड़िशा गज़ट
के अंदर मुंह लटकाए बैठे लोगों को पार करते हुए , साइकिलों को पार करते हुए, एडिशनल
तहसीलदार के ऑफिस को पार करते हुए, फिर क्लर्कों के एक दल के गुहाल को पार करते हुए थके-माँदे पैरों से आगे
निकलता जाता हूँ। निकलता जाता हूँ कि सामने एक कोने में पड़े एक चेयर-टेबल के पास पहुँचता हूँ। भीम पियोन कहाँ है?
अरे।
अरे?
तुम?
तुम?
यहाँ?
यहाँ?
क्या बात है?
सच में।
मैंने सोच
नहीं पाया था।
पहचान नहीं
पाता हूँ।
तुम भी
कितने मोटे हो गए हो।
तुम्हारा
भी।
कितने दिनों
के बाद तो
उत्साहित
दोनों हाथ मेरे हाथ को जकड़ लेते है। उत्साहित शरीर मुझे गले मिल रहा है। उत्साहित मुंह मुझे देख कर
तृप्ति से साथ हँस रहा है। हाथ, देह और मुँह
प्रणव का है।
: यहाँ कैसे
आए?
: आया थोड़े
काम से। सतहत्तर डेसिमील जमीन का एक मामला है हमारा। छोड़ो, तुम यहाँ?
: मैं यहाँ
वकील हूँ। वकालत कर रहा हूँ।
: वकालत? मेरे मुँह पर विस्मयादि बोधक का चिह्न।
प्रणव मुझे
खींचते हुए कोरिडोर के एक कोने में टेबल-चेयर के पास बिठाने के लिए लेकर गया।
बरामदे के नीचे के केबिन वाले को दो कप चाय का आर्डर देते हुए, पाकेट से सिगरेट निकाल कर मुझे ऑफर करते हुए लाइटर सुलगा कर
धुंआ छोड़ते हुए पूछने लगा: और उसके बाद ? क्या खबर....
मेरे मुँह
पर फार्मल हँसी: तुम्हारी क्या खबर ?
अचानक हम
दोनों चुप। शायद हम दोनों को कुछ नहीं कहना है या दोनों को एक ही बात बोलनी है।
इसलिए हम आपस में प्रतिध्वनि भेज रहे हैं। पेट के अंदर की व्यथा बढ़ रही है कहाँ है
व्यथा? नाभि के पास? पता नहीं। नीचे साइड में? समझ में
नहीं आता, फिर भी
तकलीफ? मैं पेट
दबाकर झुक जाता हूँ: शादी-वादी हो गई?
हाँ, प्रणव सिर हिलाकर सूखी हँसी हंस रहा है।
तीन बच्चे
हैं। बड़े को पाँचवां चल रहा है।
: इसी शहर में
रहते हो तो?
: हाँ, धर्मशाला के पास, जिसे पूछोगे, बता देगा।
यहाँ मैं अकेला वकील हूँ।
कैसा चल रहा
है?
एक प्रकार
से चल रहा है। छोटा शहर है न। सिर्फ तहसील ऑफिस में प्रेक्टिस। वैसे दिन में
तीस-चालीस हो जाता है। कभी-कभी निल भी। तुम? नौकरी-वौकरी कर रहे हो? शादी-वादी
हो गई?
मेरा मुँह
झुलस जाता है। किसी के इस तरह नौकरी-वौकरी शादी-वादी की बात पूछने से बुरा लगता
है। मेरे मन के अंदर एक संकोच भर जाता है। नौकरी कहाँ हुई? शादी भी नहीं हुई। खेती-बाड़ी कर रहा हूँ।
: अच्छा है।
खेती-बाड़ी करना सबसे अच्छा है। शादी न होना भी, कोई झमेला नहीं।
: कौन कहता है
झमेला नहीं? बहुत झमेला
है। हाँ, याद आई, हमारी सतहत्तर डेसीमिल जमीन इस बार के सेटलमेंट मैप
में दूसरे के नाम पर चली गई है, पर जमीन
हमारी है। रिकार्ड हमारे है। रिकार्ड हमारे नाम पर हैं। खजाना भी हम भर रहे है।
मैं आया था तहसीलदार के पास नालिस करने। सुना डेढ़ रुपये की कोर्ट फीस और काट्रिस
पेपर लगेगा। यहाँ तो स्टैंप वेंडर नहीं है। सुना भीम पियोन.........
: तुम परेशान
मत हो। मेरे पास कोर्ट फीस है। मैं लिख दूँगा, नहीं तुमसे कैसे फीस लूँगा? छी! छी! मुझे इतना घटिया आदमी समझा? तुम ये सब कैसे बोल पाये? सिर्फ कोर्ट
फीस और काट्रिस पेपर का दाम दे देना।
: कुछ क्षणों
की चुप्पी, कैबिन का
चाय वाला चाय दे कर गया है। टेबल पर रखी चाय के गिलास से धुंआ उठ रहा है। तो पीओ।
उसके बाद । तुम्हें कॉलेज के दिनों की याद है नलिनाक्ष।
मेरे सिर के
अंदर असंख्य प्रतिध्वनियां गूंज रही है। जैसे चारों तरफ शून्यता है। उसी के अंदर
सिर्फ शब्दों की प्रतिध्वनि है: तुम चले आओ नलिनाक्ष: प्लीज चले आओ।
: कॉलेज जीवन
से सुखदायी और क्या है?
: एक बार
नलिनाक्ष, प्लीज, चले आओ।
: कॉलेज जीवन
से सुखदायी और क्या है?
: एक बार
नलिनाक्ष! प्लीज सब-कुछ छोड़कर चले आओ।
: कॉलेज में
पढ़ते समय क्या किसी ने सोचा था कि इस तरह हम भविष्य में जिएंगे? मैंने क्या सोचा था कि मफसली तहसील ऑफिस में वकील
बनूँगा? क्या तुमने
सोचा था कि गाँव में रहकर खेती-बाड़ी करोगे? नलिनाक्ष के पढ़ते समय मैंने जिद्द पकड़ी थी कि पॉलिटिक्स करूँगा, मंत्री बनूँगा और बहुत रूपए मारकर बड़ा आदमी बनूँगा, पर आज!
मेरी आँखें
जल रही है। माथा दप-दप कर रहा है, हाथ की
मुट्ठी में चाय। पी रहा हूँ। पेट के अंदर कहीं एक दर्द है। वही प्रतिध्वनि परेशान
कर रही है। चले और नलिनाक्ष! एक बार तो मिलो.....
: हमारा खोया
हुआ जीवन, नलिनाक्ष !
क्या हमेशा के लिए खो गया है?
मैं खड़ा
होता हूँ। सिगरेट की राख अब झड़ जाएगी, थोड़ी झाड़ रहा हूँ। दूसरी बात कुछ कहो प्रणव, प्लीज दूसरी कुछ।
मैंने यह
मोटर साइकिल खरीदी है। जावा। कैसी लग रही है?
बरामदे के
नीचे रखी मोटर साइकिल को देख रहा हूँ। काली बॉड़ी में धूप गिर कर चमक रही है। मोटर
साइकिल से प्रणव का व्यक्तित्व बदल गया है। हम सभी कितने बदल गए हैं। हम सभी
दूसरों की तरह बन गए है। दूसरों की तरह।
मैं ईर्ष्या
भरी नजरों से साइकिल की तरफ देख रहा हूँ। प्रणव गर्व भरी हँसी हंस रहा है। धूप से
मोटर साइकिल की मोटी काली बॉड़ी चमक रही है। कितने रुपए दैनिक रोजगार करने से मोटर
साइकिल खरीदी जा सकती है?
तुम क्यों
पड़े हुए हो, नलिनाक्ष।
चले आओ, प्लीज! आकर
एक बार तो मिलो, प्लीज चले
आओ।
आत्तिला, दी हून
दमयंती को
मैं पुकारता हूँ आत्तिला दी हुन, इस बात को
मैंने कुछ दिन पहले अँग्रेजी अखबार से पढ़ा अवश्य। पोस्ट ऑफिस से गाँव के हाई स्कूल
के हेड-मास्टर के पास अँग्रेजी अखबार आता है डाक से। अवश्य तीन दिनों की बासी खबर
है। फिर भी गाँव में ताजा तो है। उस अखबार में पढ़ा था कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री
मारग्रेट थेचर को वहाँ के लोग आत्तिला दी हुन बोल रहे थे। यह बात तो आत्तिला दी
हून का अपभ्रंश है, हून वंश की
साम्राज्ञी ने एक बार रोम पर अधिकार किया था। आत्तिला जनता का शोषण करने में, शासन करने में और ठगने में माहिर थी, उसी तरह
दमयंती भी है।
दमयंती को
पहली बार देखा था, बाद में आज
से तीन साल पहले। विपिन भाई और एक बच्चे को लेकर बस में यात्रा कर रही थी। विपिन
भाई के साथ परिचय था उसके बाद बातचीत करते करते पता चला कि उनके और मेरे पिता कभी
दोस्त थे। मुझे देखकर और सुनकर विपिन भाई ने ही कहा था; “चलो, तुम हमारे घर पर वहीं रहना घर का आदमी बन कर रहना।”
दमयंती उस
समय बस की खिड़की से बाहर की ओर देख रही थी, मेरे लिए उसके पास थोड़ी भी हमदर्दी नहीं थी। पहले-पहले वह मुझे सह भी
नहीं पाती थी। एक बार मैं और विपिन भाई कहीं पर बैठे हुए थे। खाना परोसने के समय
वह कहने लगी कि पहले आधा किलो चावल पकाती थी। अब एक किलो पकाने से भी नहीं बचता।
विपिन भाई
ने आँखें तरेर कर उसकी ओर गुस्से से देखा था। ऐसे तो विपिन भाई अच्छे आदमी है।
किसी से कुछ भी नहीं कहते है। खुले दिल वाले आदमी हैं। परन्तु थोड़े अफीमची है, शाम को थोड़ा अफीम न लेने से बेचैनी- सी रहती है। अफीम
खाने के बाद इस कद्र निर्जीव हो जाते हैं कि चोर अगर सब-कुछ उठा ले जाए तो भी पता
नहीं चलेगा। खूब दुबले-पतले हैं वे। आलसी भी। दिनभर काम-धाम कुछ नहीं करते। गाँव
में बरगद पेड़ की छाया में ताश खेलते हुए पूरा दिन बिता देते है।
गाँव के
बच्चे मज़ाक उड़ा कर कहा करते थे:- “ विपिन भाभी जी और दमयंती भाई”। यह झूठ भी नहीं है। खेती-बाड़ी और गाय-बैलों की देखभाल करने से ले कर
घर-संसार संभालने तक सभी में दमयंती एक्सपर्ट है। विपिन भाई की भूमिका वहाँ नगण्य
है।
कुछ दिन वहाँ
रहने के बाद मैं समझ गया था कि मेरी भूमिका किसी मजदूर से ज्यादा नहीं थी। दमयंती
को एक हेल्पिंग हैंड की जरूरत थी। विपिन भाई मुझे ले आए। काम निकालने मे दमयंती भी
धुरंधर थी। एक पल भी मुझे बैठने नहीं देती, जैसे चावल का पैसा ब्याज समेत वसूल कर लेगी। खेती-बाड़ी में मजदूरों के काम
की देखभाल करना, गाय-बैलों
को संभालना, दुकान से
सामानों की खरीददारी करना, विपिन भाई
के इकलौते बेटे बाबूली को घूमाने ले जाना उसके लिए हकीम से दवाई लाना – ये सब मेरी जिम्मेदारियां थी।
फिर भी
दमयंती मेरे प्रति दयावान नहीं थी। रुपये –पैसों का हिसाब वह पाई-पाई ले लेती मुझसे। हर बार दुहराते हुए ऐसे पूछती थी, जैसे वह मुझ पर शक कर रही हो, हाथ-खर्च के लिए मैं पैसा मार लेता हूँगा। ऐसी बात
नहीं थी कि इतना होने के बावजूद मैं दो –तीन रुपये मार नहीं लेता था। मेरे लिए हाथ खर्च भी तो चाहिए दमयंती तो
बिलकुल नहीं देती थी।
एक बार मैं
खेत में मजदूरों के काम की देख-रेख करने के बाद दोपहर में खाना खाने घर आया
था। खाने के बाद मजदूरों के लिए मूढ़ी लेकर खेत जाना था। परन्तु खाना खाने के बाद
नींद की खुमारी में झपकी लेते समय दमयंती ने आक्षेप करते हुए कहा था, दूसरों के पैसों पर इतना रोब क्यों? ऐसे सो रहे हो जैसे कोई राजराजेश्वर हो।
इस बात ने
मुझे दुखी किया था, कॉलेज में
पढ़ते वक्त मैंने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि एक ऐसे घर में मजदूर बन कर
पड़ा रहूँगा दो जून खाने के लिए , मेरे मन के
अंदर के विद्रोही पुरुष चिल्ला उठा था, तू चला जा, नलिनाक्ष चल
जा। कितने दिन यहाँ पड़ा रहेगा सिर्फ पेट ले लिए।
उस दिन से
मेरे मस्तिष्क के अंदर जैसे कोई पुकारता रहता है : चले आओ, नलिनाक्ष, चले आओ। एक बार तो सही, मुझ से आ कर
मिलो।
पर नहीं जा
सका, जानते हो, कि पेट की भी एक माँग होती है और उसी माँग के सामने
नीति-नियम, व्यक्तित्व
का अहंकार, सारे के
सारे नगण्य है। तुच्छ है।
मैं अनुभव
कर रहा था कि क्रमश: एक निष्प्रभ श्रमिक में तब्दील होता जा रहा था। दमयंती की बात
मेरे दिमाग के अंदर घुस नहीं रही थी।
इस समय एक
घटना घटित हुई, कटक से
ऑपेरा आया था इस टाउन में। गाँव से अनेक लोग ऑपेरा आखने आ रहे थे। दमयंती भी जाना
चाह रही थी। शाम के सात बजे खाने-पीने के बाद बैल गाड़ी में चढ़ कर गई थी वह। साथ
में था बैलगाड़ी चलाने वाला और दमयंती का एक मज़दूर। मैं बॉडीगार्ड था। शहर जाते समय
पैदल गया था। ऑपेरा देखकर वापस आते समय रात के तीन बजे मैं भी बैलगाड़ी में बैठा
था। अंधेरी रात में आँखों के नीचे अनचखी नींद लेते हुए वापस आते समय गाड़ी वाले की
आँखें को धोखा देते हुए मैंने पहली बार दमयंती को यौन-दृष्टि में स्पर्श
किया था। क्या दमयंती ने मौका नहीं दिया था? दिया था।
उसके बाद से
दमयंती के साथ मेरा रिश्ता बदल गया। अवश्य, उससे पहले भी मैं उसे ‘दीदी’ कहकर बुलाया करता था, उसके बाद भी
बुलाया था। परंतु दमयंती मेरे लिए रहस्यमयी हो गई थी। प्रत्येक औरत अपने अंदर कुछ
रहस्यों को यत्न के साथ छिपाकर रखती है। उन रहस्यों के लिए उन्हें समझना कठिन है।
दमयंती को भी मैं नहीं समझ सका।
पहले-पहले
होठों पर किस करते समय वह दाँत दबाकर रखती थी और बाद में उठ कर थूक देती थी। बाद
में ऐसा नहीं किया। वरन् अपनी जीभ को मेरे मुंह में डालकर ज़ोरदार किस करती थी अपनी
ओर से। पहले-पहले कह रही थी, ‘ये सब पाप
है नलिनी’। शायद मैं
खराब हो गई हूँ? नलिनी
तुम्हारे भाई को जब पता चलेगा तो मुझे काट डालेंगे? लोगों को पता चलेगा तो क्या होगा नलिनी? नलिनी, तुमने जरूर
जादू किया है मुझ पर। तुम्हारे बिना मैं रह नहीं सकती। कुछ दिनों के बाद ये
शिकायतें और सुनने को नहीं मिली।
इन सारे
संलापों का क्या महत्त्व हो सकता है? दमयंती इसलिए रहस्यमयी लग रही थी कि प्रत्येक बार यौनावेग के समय “तुम्हारे बिना रह नहीं पाऊँगी, नलिनी” बोलने वाली दमयंती दूसरे समय प्रैक्टिकल आवाज में बोल रही थी “तुम्हारी तो एक दिन शादी हो जाएगी नलिन? इसके बाद तुम मुझे भूल जाओगे, सभी ऐसे ही भूल जाते हैं। अवश्य, पहले-पहले मुझे थोड़ी तकलीफ होगी,बाद में सब ठीक हो जाएगा। उस समय तुम नज़र घूमा कर एक
बार भी नहीं देखोगे।
दमयंती के
साथ मेरे प्यार का रिश्ता नहीं है, जो है सिर्फ देह-देह का खेल है, आधी रात को दमयंती मेरे बिस्तर पर चली आती है और भोर में उठकर चली जाती है।
इसके अलावा मेरे मन ने अंदर एक रेखा भी वह खींच नहीं पाई थी। फिर भी उस दिन से वह
मेरे लिए बदल-सी गई। जैसे मैं घर का और मजदूर नहीं रहा। मालिक बन गया। हिसाब-किताब
समझने में शक की नज़रों नहीं देखती थी दमयंती। खर्च के लिए समय-समय पर अपनी ओर से
दो-चार रुपये दे भी देती थी।
एक बार आधी
रात को मेरे बिस्तर पर, रजाई ओढ़े
दमयंती के कानों में मैंने पूछा था: ‘अगर कुछ हो गया तो?’
: “क्या होगा?” जान-बूझकर प्यार से उसने
कहा।
: “नहीं
ठहरेगा। दमयंती ने दृढ़ और संशय मुक्त आवाज में कहा था।”
: “कैसे पता
चला कि नहीं ठहरेगा?”
: “जानती हूँ’। उसकी आवाज पहले की तरह निर्विकार थी।”
: “भाई का है, तुम कहोगी?”
: “नहीं, दूसरा कोई मान जाए पर भाई नहीं मानेंगे। वह जानते है
कि बाप बनने का सामर्थ्य उनमें नहीं
है। उन्होंने डाक्टरी जाँच करा ली है।”
: इस बात पर
मैं आश्चर्य चकित हो गया था। मैंने पूछा, “तब बाबुल किसका है?”
बातों-बातों
में गोपनीय बातें भूल से बता देने के कारण दमयंती कुछ क्षणों तक चुप रही और मेरे
बार-बार जिरह के बाद विवश हो कर
बोली थी वह दूसरे का है। वह भी तुम्हारे जैसे था। पर जानते हो? उसके साथ मेरा यह सब रिश्ता नहीं था। जैसा तुम्हारे
साथ है। सिर्फ एक बार में ही कैसे हो गया पता नहीं।
दुनिया की
कोई भी नारी होती तो इस
स्थिति में शायद ऐसे ही बोलती। ये सब विश्वास करने की बात नहीं, विश्वास भी नहीं किया जाता। उस प्रसंग को बदलते हुए
मैंने पूछा, भाई ने
गुस्सा नहीं किया? कुछ नहीं
बोले? मान गए?
: पहले सुनकर
गुस्सा हो गए थे। बाद में इधर-उधर से दवाई ला कर दी थी। पर किसी से भी नष्ट नहीं
हुआ। बाबुल के आने के बाद भाई सब-कुछ भूल गए।
: वह लड़का?
: उसे भगा
दिया। निर्विकार आवाज में दमयंती ने कहा। मैं सचमुच उससे प्यार नहीं करती थी।
इतना सब-कुछ
बताते हुए दमयंती ने कहा: “तुम मुझ से
घृणा करते हो? मुझे छू कर
शपथ लो कि ये सब किसी से नहीं कहोगे।”
घृणा? उस चीज़ को मैंने कब से तिलांजलि दे दी थी।
शायद मुझे
अनुभूति-बोध हो गई थी। मैं एक क्रीतदास बन गया हूँ। मेरी घृणा और प्यार अब कुछ भी नहीं
है। दमयंती को ये सारी बातें कहना चाहते हुए भी बोल नहीं सका था मैं कि ये सब
सुनने के बाद कहा मैं उससे प्यार करता हूँ क्योंकि प्यार करने जैसे घिसे-पिटे शब्द
सुनने से शरीर में और रोमांच नहीं होता। उसके शरीर को छू कर शपथ लेनी पड़ी थी। उसके
बाद उसने पूछा था, अगर इस बार
कुछ हो गया तो?
‘जानती हूँ, होगा नहीं’- निर्भीकता से दमयंती ने कहा था। “तुम इतना डरते क्यों हो? तुम इतने
कायर हो?”
बिना किसी
प्रोटेक्शन से कौन-सी नारी इतनी निर्भीकता के साथ कह सकती है दमयंती की तरह
अनासक्त भाव से? कौन सी नारी? यही तो रहस्य है। इस रहस्य को अपने अंदर छिपाते हुए
वह जितना रहस्यमयी हो जाती है, उसे समझना
कष्टकर नहीं है क्या?
भूतिया बस
यात्रा
थोड़ी देर
पहले बस-स्टैंड तक छोड़ने हेतु आते हुए प्रणव ने कह दिया है परेशानी को कोई बात
नहीं। कल एक बार फिर आना होगा।मैं ठीक कर दूँगा।
अब एक बस
में बैठकर जाता हूँ। अद्भुत टूटी-फूटी बस। ऐसी बस कभी देखी नहीं इस लाइन में।
खिड़कियों में न काँच, न पर्दा।
कुछ भी नहीं, सब-कुछ
खुल्लम-खुल्ला, ड्राइवर के
पीछे एक-दो लोगों की सीट और एक गेट के पास कंडक्टर की जगह पर। दोनों सीटों की पीठ
की तरफ तीन लंबे बेंच बस की लंबाई और चौड़ाई में लगे हैं। बेंच पर सभी तकदीर वाले
आरोही बैठे हैं शेष सभी अपने बोरे, बैग, बक्से और
पोटली पकड़े बस की फर्श पर बैठे हैं। बस के भीतर थोड़ी-सी भी रोशनी नदारद। बाहर सफ़ेद
चाँदनी है।
मैं बैठा
हूँ खिड़की की तरफ पीठ किए हुए। मेरी दाई ओर बस की पीछे के टीन की दीवार पर अपना
सहारा लिए बेंच पर एक कोने में बैठे हैं दो युवा और युवती। ये लोग कौन है? कहाँ जा रहे है। इसी आसपास इलाके के हैं। शायद। उनके
बर्ताव से लगता है कि ये दोनों भाई-बहन नहीं हैं। इतने सटे हुए बैठकर बस की घर्र
आवाज के अंदर ये दोनों क्या बात कर रहे हैं?
आगे देखने
से बस का ड्राइवर दिखाई नहीं देता, बस का ड्राइवर कहाँ है? ड्राइवर के
बिना गाड़ी चल रही है। बस के इंजन पर एक औरत बैठी है, ठीक स्टियरिंग के पास। ऐसी जगह पर कोई बैठता तो नहीं है। बोनेट के ढालू वाले
हिस्से के नीचे की ओर सभी बैठते है। ऐसे स्टियरिंग से सटा हुआ कौन बैठता है? ड्राइवर कहाँ है? स्टियरिंग पर ड्राइवर का हाथ दिखाई तो नहीं देता। स्टियरिंग घूमते ही औरत
के शरीर पर टक्कर लग जाएगी। उस औरत ने अपना बैलेन्स बनाने के लिए झुककर ड्राइवर के
पीछे लगी लोहे की बैरिकेड को पकड़ा है। पर ड्राइवर कहाँ है?
किसी गलत बस
में उठ आया हूँ क्या? या किसी
भूतिया बस में? पास का आदमी
झपकी ले रहा है। सब निर्विकार बैठे हैं। कोई बस से उतर नहीं रहा है। बस भी खड़ी
नहीं होती। कोई टिकट नहीं माँग रहा है। कंडक्टर नहीं। क्लिनर? सामने लड़के ने लड़की को जकड़ रखा है। अहा! सेक्स दास ।
बस के लोग निर्विकार हैं।
पास में
झपकी ले रहे आदमी को हिलाकर पूछा, बस कहाँ
पहुँची?
वह आदमी
मेरे मुँह को ताक रहा है जैसे बात समझ में नहीं आ रही है। भोंदू की तरह देखते हुए
क्लांत-सा झपकी लेने लगता है। मेरी बातों का जवाब नहीं देता है, मैं पीछे घूम कर देखने की कोशिश करता हूँ, बस कहाँ पहुंची, पर अंधेरे के सिवाय कुछ नहीं दिख रहा है।
फिर ड्राइवर
की सीट पर नजर चली जाती है, पर ड्राइवर
कहाँ है? वह औरत
स्टियरिंग की ओर झुकी हुई बैठी है, मेरे मन में ड्राइवर को देखने की इच्छा बढ़ती जा रही है, जैसे देखना निहायत जरुरी है। उसे बिना देखे जैसे जीवन
निरर्थक-सा लग रहा है। अपने आपको परेशानी सी महसूस हो रही है। अस्थिरता का अनुभव
हो रहा है कि ड्राइवर कहाँ है?
हमारी सारी इच्छाएँ ऐसी अस्त-व्यस्त
हवाओं की तरह हैं, जब
खिड़की-दरवाजे खोलकर मन के कमरे में घुस कर पूरे घर को तितर-बितर कर देती है। बाहर
का सारा कचड़ा अंदर घुस कर साफ-सुथरे गृहस्थ के टीपटाप चेहरे वाले घर को गंदा कर
देता है। कभी नशे की तरह आदमी को आविष्ट कर हँसाता है, रुलाता है। फिर भी हम सब इच्छामयी प्राणी हैं। इच्छा
की मंत्रणा सुनकर अजस्र यातनाएँ भोग लेते है। फिर भी इच्छा ही इच्छा है। आखिर कहाँ
है, ड्राइवर?
वह लड़का
प्यार से लड़की को पकड़ लेता है, लड़की की
आँखों में सुख की मुस्कान फैल जाती है। बस के अंदर किसी की कोई प्रतिक्रिया नहीं, सभी निर्विकार है, लड़का-लड़की को जकड़ लेता है। मेरे सामने इतिहास के आखिरी पन्ने से निकल आता
है। अन्यमनस्क समय। जैसे उसका और कोई हिसाब-किताब बाकी है, मेरे सीने के नीचे असहायता की भावना है। मेरे सभी
सपनों की तस्वीरों में दीमक और घुन जैसे छेद करते हुए निशब्द भाव से निकलते जा रहे
हैं। मेरे मस्तिष्क से प्रतिध्वनि उठ रही है, बस से उतर कर, चले आओ, नलिनाक्ष। एक बार सही मुझसे तो मिलो। आओ, आओ नलिनाक्ष !
एक भयंकर
विषाद पुलिस की तरह मेरा पीछा करते हुए मुझे पकड़ लेता है। मैं अपने को क्लांत और
असहाय-सा महसूस कर रहा हूँ। मेरे पुराने अतीत के सारे अपने कहाँ है? मैं क्यों पड़ा हुआ हूँ? मैं उठने की कोशिश करता हूँ। बस की टीन छत को पीटते हुए मैं चिल्लाकर
कहूँगा कि बस खड़ी करो, मैं उतर
जाऊंगा।
मैं उठने की
कोशिश करने के बाद भी उठ नहीं पा रहा हूँ। मेरे पैर किसी ने को जकड़ लिए है। कोई तो
नहीं। तब? क्या चिल्ला
कर कहूँगा कि मैं इस रास्ते से आगे नहीं जाऊँगा?
बोल तो नहीं
पा रहा हूँ। बस निकलती जा रही है। मेरे सामने वह लड़का लड़की को पकड़कर चुंबन दे रहा
है, प्यार भी कर
रहा है। ऐसी नरम कोमल लड़की क्या मेरे लिये कभी प्रतीक्षा नहीं करेगी? मेरा प्यार पा कर मुस्कराते हुए सुख की हँसी तोहफे
में नहीं देगी, क्या मेरा
सब-कुछ खत्म हो गया है? मेरे खोये
हुए दिन क्या हमेशा के लिए गुम गए है?
बस ड्राइवर
कहाँ है? कंडक्टर भी
कहाँ है? इसी बस में
भरपूर नींद, क्या बस से
कभी नहीं उतरेंगे? क्या बस खड़ी
नहीं होगी?
कोई
चिल्लाकर कहता है,किशननगर; किशननगर।
यह कौन-सी
जगह है ? इस तरफ ऐसा
कोई गाँव है क्या? मुझे तो पता
नहीं। मैं गलती से बस में चढ़ आया हूँ क्या? उतर जाऊँ क्या? उठ जाऊँ
क्या? चिल्लाकर
कहूँगा कि ए बस रोक दो। फिर भी क्यों बैठा हूँ मैं? कहाँ जा रहा हूँ मैं? ये कैसी बस
है? इस बस का
ड्राइवर कहाँ है? फिर भी मैं
कैसे चुप बैठा हूँ ? फिर भी चुप
होकर, फिर भी।
पलायन का
रास्ता:-
बाहर चाँदनी है। रास्ता साफ दिख रहा है। दरवाजा खुला क्यों है। मैं आँगन
में घुसते हुए देख रहा हूँ रस्सी की खटिया में विपिन भाई निर्जीव-सा बैठा है। शायद
अफीम का नशा चढ़ गया है। उसे हिलाते हुए पुकार रहा हूँ, “ विपिन भैया!”
‘हूँ’ बोलते हुए
वे फिर से झपकी ले रहे हैं। उन्हें फिर हिलाते हुए पूछ रहा हूँ, दीदी कहाँ है,मैं चिल्लाकर “दीदी-दीदी” पुकार रहा हूँ। घर के अंदर लाइट जल रही है। दीदी कहाँ
है?
दमयंती गुहाल से चिल्लाकर बोलती है,नलिनाक्ष हो? इतनी देर कर
दी क्यों? मैं जवाब
देने के बदले गुहाल की तरफ बढ़ता हूँ। दीवार की दीपरूखा में ढिबरी जल रही है। दीवार
का काला दाग बढ़ता जा रहा है। दमयंती माड़ में भूसा मिला रही है। उजली गाय को पतली
दस्त हो रही है। पुआल आठ आने की होगी। कल याद करके बांस का पत्ता ला कर उजली को
देंगे।
मैं चुपचाप खड़े-खड़े दमयंती की वात्सल्य, ममता और हिसाबी कुबुद्धि को देख रहा हूँ। दमयंती काली गाय के पीछे से सूखी
गोबर निकालते हुए पूछ रही है-काम हुआ?
दमयंती को कैफियत देते हुए थक जाता हूँ। कितना सारा बक-बक करते हुए समझाना
पड़ेगा, सोचकर चुप
रहता हूँ।
दमयंती फिर पूछ रही है। मैं अत्यंत संक्षेप में बोलता हूँ कि कल फिर जाना
होगा। आज कोर्ट फीस ला कर एप्लाइ किया हूँ।
कितना खर्च
हुआ ?
दमयंती के
सामने फिर खर्च का हिसाब देना होगा, सोचकर मुझे परेशानी-सी लग रहा है। मन करता है कि दमयंती की पीठ पर दो थप्पड़
लगा दूँ। वह झुककर गायों को भूसा खिला रही है। ढिबरी के प्रकाश से उसके पीछे का
कूल्हा अद्भुत-सा दिखाई दे रहा है और एक गाय के अलावा ज्यादा कुछ दिख नहीं रहा है
इस समय।
मैं पॉकेट से सब रुपये-पैसे निकाल कर उसकी ओर बढ़ा देता हूँ। वह मेरी तरफ
हाथ में खुचरे रुपये-पैसों को देखकर पूछ रही है- कितना खर्च हुआ?
मेरे माथे के अंदर फिर एक बुलावा; चले क्यों नहीं आते, नलिनाक्ष।
चले आओ,चले आओ।
आधी रात हो गई है क्या? बाहर
झीं-झीं की आवाज। दमयंती के हाथों ने मेरी नींद खोल दी। अंधेरे में उसका मुंह
दिखाई नहीं देता है। सिर्फ अस्तित्व समझ में आता है। दमयंती का हाथ रजाई के भीतर
घुसकर मेरी जांघ के बीच रुक जाता है। तेल से सराबोर उसका हाथ शायद थोड़ी देर पहले
विपिन भाई के देह में तेल का मालिश कर आई है। विपिन भाई को अफीम का नशा लग गया
होगा। अब और नहीं उठेंगे। दमयंती रजाई के अंदर घुसी आ रही है। मुझे जकड़ लेती है।
मेरे गाल पर अपना मुंह टेकते हुए पुकार रही है- नलिनाक्ष! नलिनाक्ष!
मेरे भीतर एक क्रोध, एक असंतोष
माथा पीट रहा है। कह दूंगा कि “कल मैं चला
जाऊंगा दीदी।” मन ही मन
सोचता हूँ-साली ! मैं चला जाऊंगा।देखते रहना। कल तहसील ऑफिस जाऊंगा और नहीं
लौटूँगा।
दमयंती मुझे
जकड़ लेती है।
अंतिम बात
इसकी अंतिम परिणति के बारे में पाठक पूछ रहे हैं, उसके जवाब में और क्या बोला जा सकता है? यह तो फार्मूले वाली कहानी या उपन्यास नहीं है, जो किसी परिणति की ओर बढ़ जाएगी। नलिनाक्ष ऐसे ही कल
सुबह उठकर सोचेगा कि आज जरूर चला जाऊंगा। आज जरूर।
फिर वह तहसील ऑफिस जाएगा। वहाँ थकान बोरडम के भीतर घूमते समय एक निःशब्द
पुकार सुनेगा। तुम चले आओ नलिनाक्ष,चले आओ।
वह सुनेगा और निश्चय कर लेगा कि उसे चला जाना चाहिए। उसे चले जाने की जरूरत
है।
सोचने के बावजूद वह शाम को एक भूतिया बस में यात्रा कर दमयंती के पास पहुँच
जाएगा। दमयंती को देखते ही वह छोड़कर चले जाने की सोचेगा और ऐसे ही बिस्तर में
जाएगा। आधी रात को उसके बिस्तर में दमयंती के आते ही वह-निश्चय कर लेगा कि आगामी
कल सुबह चला जाएगा। फिर उसके दूसरे दिन सबेरे वही धारावाहिक..........
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