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अंतिम पंक्ति का इंसान

पहले से ही हमारे शहर के निवासियों को देवार्चन के आगमन की खबर ज्ञात थी। उस दिन वह न केवल हमारी बस्ती के नवयुवक-संघ के वार्षिकोत्सव में मुख्य-अतिथि के रुप में भाग लेने आ रहे थे, वरन उन्हें कई जगहों पर संबोधन और उदघाटन-कार्यक्रमों में योगदान भी करना था। मेरे सामने अनभिज्ञ बनकर पिताजी ने मेरी धर्मपत्नी अनुपमा तथा मेरी बहिन रीना को कहा था, "जानती हो, मंत्री महोदय अपने चन्दर के दोस्त है। तुम दोनों चन्दर से कहो कि वह उन्हें अपने घर बुलाए।" जब मैं कॉलेज में पढता था, देवार्चन मेरा जिगरी दोस्त था. आजकल वह उडीसा में एक जानी-मानी हस्ती थीं। हर दिन अखबारों में उनकी खबर छपना एक सामान्य घटना हो गई थी। यह बात बिल्कुल अलग थी, देवार्चन और मैने पूरे चार साल तक कॉलेज के ही छात्रावास में, एक ही कमरे में, एक ही छत के नीचे व्यतीत किए थे. ऐसी बात नहीं थी कि देवार्चन आजकल मुझे भूल गए होंगे, परंतु इस बात पर संदेह हो रहा था कि क्या वह हमारे पूर्ववत् बंधुत्व के गुरुत्वाकर्षण को अनुभव कर पाएँगे ? उनको घर बुलाने की बात को मैंने हँसते हुए यह कहकर टाल दिया था, "मंत्री ल