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स्तब्ध-महारथी

यह कहानी लेखक के कहानी संग्रह 'दक्षिण दुआरी घर' से ली गई है . कहानी सत्तर दशक में लिखी गई थी और उस समय की एक चर्चित कहानी मानी जाती है. कहानी में व्यक्ति के अकेलेपन, असहायपन और मानवीय संबंधों के खोखलेपन को बखूबी दर्शाया गया है. आशा है यह कहानी पाठकों को आज भी उतनी ही पसंद आयेगी जितनी आज से चालीस साल पहले . स्तब्ध-महारथी अपने द्रव्य दूसरों को देकर, शिव चले गए नंगे होकर। ( ओडिशा की एक लोकोक्ति) जिस दिन स्वामी शिवानंद की किताब अरुणाभ के घर आई उसी दिन दिव्येन्दू भी अरुणाभ के घर आया। स्वामी शिवानंद की उस किताब का नाम था, "प्रेक्टिकल लेसन इन योगा"। क्राउन साइज के पेपर बेक संस्करण वाली अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब में शिवानंद के जीवन-दर्शन, योग-साधना, समाधि और इश्वर उपलब्धि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। दिव्येन्दू जिसकी लंबाई पाँच फुट चार इंच तथा आँखों पर ज्यादा पावर के चश्मे लगाए हुए एक ह्मष्ट-पुष्ट, काला-कलूटा प्राइवेट छात्र जिसे काÏस्टग की परीक्षा देनी थी। वह प्रेशर कुकर में खुद अपा खाना बनाता था। वह बहुत दुःखी रहता था। इस वजह से वह

कालाहांडी का मानचित्र और बाँझ समय

(लेखक के कहानी संग्रह 'युद्धाक्षेत्रे एका' में संकलित इस कहानी में सामाजिक व्यंग केमाध्यम से हमारे देश की उस समस्या को उजागर किया है , जिन्हें मध्यम वर्ग हमेशा अनदेखी करता है . भूख, गरीबी और पिछड़ेपन के लिए विख्यात 'कालाहांडी' की असहायता को किस तरह हमने और हमारी मीडिया ने मजाक बना कर रख दिया है, उसका जीवंत उदाहरण है.) कालाहांडी का मानचित्र और बाँझ समय मंगलाचरण भुवनेश्वर स्टेशन में उतरने के बाद मैने रिक्शे वाले से पूछा "ओ रिक्शेवाले, कालाहांडी जाओगे ?" रुचि दिखाते हुए रिक्शेवाले ने कहा, "जाऊँगा बाबू, जरुर जाऊँगा, पाँच रुपए किराया लगेगा।" "पाँच रुपए !" मैने आश्चर्य चकित होकर रहा। "बहुत भीड़ है बाबू वहाँ। यह तो आप ओडिया हो इसलिए मात्र पाँच रुपए बोल रहा हू। जबकि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता वाले सेठ लोग दस-पन्द्रह रुपए देने तक राजी हैं। कैमरे वाले विदेशी लोग तो पचास रुपए देने में भी पीछे नहीं हटते।" रास्ते में चलते-चलते मैने फिर रिक्शे वाले से पूछा "क्या हो रहा है कालाहांडी में ?" "पता नही बाबू। भयंकर भीड़ लग रही है। सब बड़

हृदय -सिंहासन

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गोदावारिश महापात्र की मूल कहानी 'हृदय सिंहासन ' की छाया पर लिखी गई लेखक की यह कहानी अपने आप में एक मिसाल है. बदलते मूल्यों तथा आधुनिकता के प्रभाव से ओत-प्रोत समकालीन मानवीय वैचारिक संकटों को उजागर करनेवाली यह कहानी लेखक के कहानी संग्रह 'बीज-बृक्ष -छाया' में संकलित है.आशा है यह अनुवाद हिंदी पाठकों को पसंद आएगा . "जा रहा हूँ पारो, चिट्ठी लिखूँगा।" यह बात सूनाखला का गतिनाहक गत शताब्दी के चालीसवें दशक में पारो को कहकर गया था। वह एक साल के लिए कहकर गया था, मगर डेढ़ साल के बाद लौटा था। जिस अंधेरी रात को वह घर लौटा था, उस रात मूसलाधार बारिश हो रही थी। घर लौटकर उसने क्या देखा ? रहने दीजिए उन बातों को। उन बोतों की पुनरावृत्ति करने में क्या लाभ ? उस दिन के बाद धरती पर कम से कम बीस से पच्चीस हजार बार सूर्योदय तथा सूर्यास्त हुआ होगा। कितनी मूसलाधार बारिश वाली रातें बीती होगी। उड़ीसा राज्य ने कितने तूफान, चक्रवात, दुर्भिक्ष, अनिवृष्टि तथा अनावृष्टि को झेलने का अनुभव प्राप्त किया होगा ! कितने उत्थान-पतन, स्वतंत्रता , वोट, गणतंत्रता, प्र