कालाहांडी का मानचित्र और बाँझ समय

(लेखक के कहानी संग्रह 'युद्धाक्षेत्रे एका' में संकलित इस कहानी में सामाजिक व्यंग केमाध्यम से हमारे देश की उस समस्या को उजागर किया है , जिन्हें मध्यम वर्ग हमेशा अनदेखी करता है . भूख, गरीबी और पिछड़ेपन के लिए विख्यात 'कालाहांडी' की असहायता को किस तरह हमने और हमारी मीडिया ने मजाक बना कर रख दिया है, उसका जीवंत उदाहरण है.)
कालाहांडी का मानचित्र और बाँझ समय
मंगलाचरण
भुवनेश्वर स्टेशन में उतरने के बाद मैने रिक्शे वाले से पूछा "ओ रिक्शेवाले, कालाहांडी जाओगे ?"
रुचि दिखाते हुए रिक्शेवाले ने कहा, "जाऊँगा बाबू, जरुर जाऊँगा, पाँच रुपए किराया लगेगा।"
"पाँच रुपए !" मैने आश्चर्य चकित होकर रहा।
"बहुत भीड़ है बाबू वहाँ। यह तो आप ओडिया हो इसलिए मात्र पाँच रुपए बोल रहा हू। जबकि दिल्ली, मुंबई और कोलकाता वाले सेठ लोग दस-पन्द्रह रुपए देने तक राजी हैं। कैमरे वाले विदेशी लोग तो पचास रुपए देने में भी पीछे नहीं हटते।"
रास्ते में चलते-चलते मैने फिर रिक्शे वाले से पूछा "क्या हो रहा है कालाहांडी में ?"
"पता नही बाबू। भयंकर भीड़ लग रही है। सब बड़े-बड़े लोगों का खेल है। सुनने में आया है, वहाँ गरीबी के ऊपर एक प्रदर्शनी चल रही है।"
"तुम कभी उसमें गए हो ?"
रिक्शेवाला खिलखिलाकर हँसने लगा, "ये सब प्रदर्शनी हमारे बस से बाहर की चीज है। हमारा रिक्शा भला तो हम भले, बस।"
मंच-प्रवेश
मैं अखबार का एक प्रतिनिधि हूँ। मुझे कालाहाँड़ी की 'दरिद्रता-प्रदर्शनी' के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए कहा गया है। हालाँकि, मैं कोई अपनी स्वयं की बात का वक्तव्य पेश नहीं करता हूँ। मेरे मालिक जैसा लिखने का आदेश देते हैं, वैसा ही मैं लिखता हूँ। वे जैसा देखने के लिए कहते वैसा मैं देखता हूँ। जब वह कहते हैं कि उस अमुक सभा में भारी भीड़ नहीं हुई थी और जितने भी लोग वहाँ आए हुए थे उनको भाड़े के गुण्डों द्वारा ट्रकों में लाद-लादकर लाया गया था, तब मैं उनको कथनानुसार तुरंत आँखों देखा सही-सही विवरण प्रस्तुत कर देता हूँ। यही ही नहीं , जब वह कहते हैं कि अमुक अधिकारी अमुक घोटाले में शामिल नहीं है और सरकार उसे जबरदस्ती परेशान करने पर तुली हुई है, तब मैं तुरंत उसके मुताबिक कागज-पत्र इकट्ठा करके यह बात प्रमाणित करने में लग जाता हूँ कि वह एकदम ईमानदार, सच्चा एवं जिम्मेदार अधिकारी है।
सही शब्दों में, मेरे मालिक कब सरकार को पसंद करते हैं और कब नहीं, इस बात का सही-सही पूर्वानुमान मैं नहीं कर पाता हूँ। कभी शासक दल की तारीफों के पुल बाँधने में थकते नहीं हैं, तो कभी उनकी निंदा करते हुए इस कदर उत्तेजित हो जाते हैं कि अगर उस समय उनके हाथ में कोई देशी कट्टा पकड़ा दे, तो वह सरकार की गोली मारकर हत्या कर देंगे। हमारे संपादक इस प्रकार के व्यवहार को पत्रकारिता की निरपेक्षता की संज्ञा देते हैं। केवल हर समय समर्थन करना अथवा हर समय विरोध करना पूर्णतया उचित नहीं है। जब मालिक कहेगा कि किस विषय पर समर्थन करना ठीक रहेगा
या किस विषय पर विरोध करना, तब मालिक की आज्ञा पूरी तरह पालन करना ही एक अच्छे पत्रकार की निरपेक्षता कहा जाता है। कालाहांडी के विषय में जानकारी इकट्ठा करने से पूर्व मैं अपने मालिक से मिलने गया था उनसे रिपोर्टिंग के महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश पाने के संदर्भ में। कम से कम वह मुझे तो अवश्य बता देंगे कि मुझे कहाँ खड़े होकर देखना है। किन-किन चीजों को देखना है, और किन-किन चीजों को नहीं। मेरा मालिक बहुत बुद्धिमान होने के साथ-साथ चालाक भी है। पहली बार उसने मुझे पत्रकारिता की सही परिभाषा और एक पत्रकार के कत्र्तव्यों के बारे में समझाया था। उसके बाद उन्होंने विश्व के महापुरुषों के सत्य, पूर्ण सत्य और सापेक्ष सत्य के बारे में विचारों से मुझे अवगत करवाया था। उन्होंने मुझे दरिद्रता की परिभाषा भी बताई थी। यह ही नहीं उसके आंकलन के लिए विशिष्ट घटकों जैसे पर केपिटा इंकम, स्टैण्डर्ड कैलॉरी, शिक्षा और चिकित्सा की आवश्यक सुविधाओं के बारे में विस्तृत जानकारी भी प्रदान की थी। दक्षिण एशिया के प्राकृतिक, राजनैतिक और सामाजिक परिवेश में दरिद्रता की भूमिका पर प्रकाश डाला था और अंत में सोशियो-पोलिटिकल इकोनॉमिक्स के विषय पर महत्वपूर्ण तथ्यों तथा आँकड़ों सहित जानकारी दी थी। उनके बोलने की शैली इतनी भावपूर्ण थी कि मुझे ऐसा लग रहा था, किसी सुदूर एक मंदिर अथवा गिरजा घर में घंटे बज रहे हो। चारों तरफ शीतल पवन बह रही हो अपने साथ लिए चमेली के फूलों की भीगी-भीगी खुशबू। मैं आलस्यवश जम्हाई लेने लगा। नींद से मेरी आँखें बोझिल हुए जा रही थी। उन्होंने अपना वक्तव्य समाप्त किया और उनकी बातों से प्रभावित होकर लौट आया। बाद में मैने उन सभी बातों का स्मरण करने की कोशिश की, उन्होंने क्या-क्या कहा है ? मगर मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा था। क्या उन्होंने मुझे कुछ व्यक्तिगत निर्देश दिए, मुझे क्या-क्या देखना चाहिए ? और मुझे क्या-क्या नहीं देखना चाहिए ? मुझे ऐसा लगा कि मेरा मालिक अभी तक अपनी स्थिति को लेकर दुविधा में है। कालाहांड़ी प्रसंग में वह किस बिंदु पर खड़े रहेंगे, इस बात का अभी तक निर्धारण नहीं कर सके हैं। मेरी पत्रकारिता के लिए वह दिन घोर संकट का था। संपादक अनुपस्थित थे, वह किसी मीटिंग में भाग लेने के लिए दिल्ली गए हुए थे। अब मैं किससे पूछता, मेरा किस बिंदु पर खड़ा रहना उचित होगा ? किस दिशा से फोटो लेने से निरपेक्षता के निशान बरकरार रहेंगे ? मेरे इतने लंबे दिनों की पत्रकारिता के जीवन में ऐसा घोर संकट कभी नहीं आया था।
प्रदर्शनी के बाहर
रिक्शावाला ठीक ही कह रहा था, प्रदर्शनी में बेशुमार भीड़ हो रही है। ऐसे मौके पर दो पैसे कमाने के लिए कई छोटे- मोटे होटल और पान की दुकानें खुली हुई थीं प्रदर्शनी के बाहर । होटल के बाहर खड़े होकर बैरा लोग ग्राहकों को अपने होटल की तरफ आकर्षित करने की प्रतिस्पर्धा कर रहे थे "आइए बाबू, इधर आइए, कालाहांडी की गरमा-गरम पूड़ी और आलू की सब्जी खाकर जाइए। कालाहांडी के
ताजा चैनापॉड और रबड़ी का स्वाद लेकर तो देखिए। यहाँ कालाहांडी मार्का वाली गरम-गरम चाय भी मिलती है। इस निराली चाय को पीकर तो देखिए।"
बहुत बड़े इलाके में प्रदर्शनी लगी हुई थी। माइक पर देशभक्ति गीत "सर्वेषां नो जननी भारत" बज रहा था। बीच-बीच में गाने को रोककर उदघोषक प्रदर्शनी का विज्ञापन करते हुए नजर आ रहे थे "आईए, आईए, कालाहांडी की दरिद्रता-प्रदर्शनी का मजा लीजिए। संपूर्ण भारत वर्ष को चौंकादेने वाली एक मात्र कालाहांडी की यह प्रदर्शनी। कलाप्रेमी बंधुगण आपके मनोरंजन के लिए आपके शहर में आ गई है कालाहांडी की दरिद्रता प्रदर्शनी। सिर्फ एक रूपए में, सिर्फ एक रूपए में आप आनंद ले सकते हैं इस भव्य विशाल प्रदर्शनी का।कुछ लोग प्रदर्शनी देखकर बाहर निकल रहे थे। मैने उन लोगों से पूछा
"प्रदर्शनी के अंदर क्या-क्या देखने को मिल रहा है ? कैसी चल रही है प्रदर्शनी ?"
एक बुजुर्ग आदमी ने उत्तर दिया "अमुक अखबार वाले संपादक को बुलाने से अच्छा रहता। उनके अखबार मे उन्होंने कालाहांडी के ऊपर साढ़े चार सौ डबल कॉलम के धारावाहिक संपादकीय लिखकर विश्व में एक नया रिकार्ड स्थापित किया है। ऐसा भी सुनने को मिल रहा है, उनका नाम जल्दी ही गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज होगा। अगर वह इस प्रदर्शनी में आते तो कम से कम दस-पन्द्रह घंटे तक लगातार कालाहांडी के ऊपर अपना उदबोधन प्रस्तुत करते।"
जिज्ञासा वश फिर मैने एक दर्शक को पूछा, "अंदर क्या केवल भाषण ही चल रहे हैं ?"
पास में गुजरती हुई एक औरत ने जवाब दिया "कैसे भाषण ? कोई भाषण नहीं। वहाँ तो दस रूपए में बहुत सुंदर-सुंदर बच्चे बेचे जा रहे हैं।"
"दस रूपए में ?"
तुरंत एक लड़का बीच में बोल पड़ा "तीस रुपए में औरतें भी बिक रही हैं।"
तभी दूसरे आदमी ने परिहास करने के मूड़ में कहा "केवल बूढ़ा-बूढ़ी बेचने वाला स्टॉल नहीं है। बाकी सब कुछ है।"
"और क्या-क्या हो रहा है भीतर में ?"
एक नवयुवक गुस्से से कहने लगा , "क्या-क्या हो रहा है, मतलब ? दरिद्रता की एक प्रदर्शनी है। अंदर जाकर आप क्यों नहीं खुद देख लेते ? बाहर खड़े-ख़ड़े हर किसी को रोक-रोककर "और क्या ? और क्या ?" पूछते ही जा रहे हो।"
यह सुनकर मैने और लोगों को डिस्टर्ब करना उचित नहीं समझा। तुरंत एक टिकट खरीदा तथा प्रदर्शनी के अंदर चला गया। प्रदर्शनी के अंदर बहुत बड़े इलाके में फैली हुई थी वह प्रदर्शनी। अनगिनत लोग इकट्ठे हुए
थे वहाँ । तरह-तरह के स्टॉलों के सामने भीड़ लगी हुई थी। कुछ लोग जो प्रदर्शनी देखते-देखते थक गए थे, प्रदर्शनी के बीचों-बीच खाली जगह जहाँ पर कुर्सियाँ बिछी हुई थी, उन पर बैठकर विश्राम कर रहे थे। कई लोग झूला झूलने में व्यस्त थे, तो कई लोग चाट की दुकान पर चाट खाने में मस्त थे। राजधानी की फैशनेबल संभ्रांत महिलाएँ चूड़ी की दूकानों पर रंग-बिरंगी चूड़ियाँ खरीदने में लगी हुई थीं। कालाहांडी की आदिवासी चूड़ियाँ उनको अपनी तरफ आकर्षित कर रही थीं। बहुत सुंदर व मॉर्डन प्रिमीटिव डिजाइन की थी वे आदिवासी चूड़ियाँ ! वास्तव में राजधानी की महिलाएँ कला तथा संस्कृति-प्रेमी होती हैं।
स्टॉल नं - 1
सर्वप्रथम मैं जिस स्टॉल के पास गया। उस स्टॉल के ऊपर एक बैनर लगा हुआ था। जिस पर लिखा हुआ था "लाल फिताशाही जिन्दाबाद"। उसके नीचे छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा हुआ था अधिकारी संघ के सौजन्य से। स्टॉल के भीतर दीवारों पर बहुत सारे फोटों लगे हुए थे। कहीं फोटो में हड्डी-पसली दिखने वाले भूख पीड़ित लोगों को खाना बांटा जा रहा था तो कहीं दरिद्र लोगों को घर आवंटित किए जा रहे थे। कहीं नंगे निर्धन लोगों को कपड़े बाँटे जा रहे थे तो कहीं सूखा पीड़ित किसानों को गायें बाँटी जा रही थी। स्टॉल का संचालन करने वाले सभी लोग कोट तथा टाई पहनकर सजे-धजे लग रहे थे। उनमें से कोई एक मेरी तरफ कुछ किताबें आगे करते हुए कहने लगा
"हमारे कार्यक्रम के बारे में इन पुस्तिकाओं में सब कुछ सविस्तार दिया गया है। हमारी संस्था लाभ अर्जित करने वाली एक संस्था है। चाहें तो आप भी सदस्यता ग्रहण कर अधिकाधिक लाभांश कमा सकते हैं।"
"सदस्य बनकर लाभांश ? आपकी क्या यह कोई विनिवेश करने वाली कंपनी है ?"
"दूसरों शब्दों में आप ऐसा कह सकते हो । हमारी सदस्यता ग्रहण करने के लिए कुछ विशेष शर्तें हैं। हर कोई सामान्य आदमी इसका सदस्य नहीं बन सकता है। सदस्य बनने के लिए पहली आवश्यकता आपका किसी सरकारी अथवा गैर सरकारी संस्था में अधिकारी के पद पर होना अनिवार्य है। राजनैतिक नेताओं तथा विख्यात पत्रिका में पत्रकारों के लिए दो प्रतिशत आरक्षण की सुविधा है। आरक्षण के तहत सदस्यता पाने के लिए आपको एक आवेदन पत्र भरना पड़ेगा। तभी जाकर हमारी नियोजन संस्था के निर्देशक मंडल का अनुमोदन प्राप्त होगा।"
"सदस्य बनने के बाद मुझे क्या करना होगा ?"
"आपको कुछ भी नही करना पड़ेगा। बस बैठे-बैठे, कलाहांड़ी के नाम केन्द्र सरकार और राज्य सरकार से मिलने वाले अनुदान में से मिलने वाला प्रतिवर्ष नियत लाभांश आपके खाते में जमा हो जाएगा। यह बात अलग है, लाभांश का प्रतिशत आपके पद व पदवी को देखकर तय किया जाएगा। अगर आप बी.डी.ओ. हैं तो कितना मिलेगा और अगर आप एस.डी.ओ हैं तो कितना मिलेगा। इसके अलावा, अंडर सेक्रेटरी, एसिस्टेंट सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी या सेक्रेटरी हैं तो कितना लाभांश पाने के हकदार हैं। इसकी पूरी जानकारी इस छोटी-सी पुस्तिका में विस्तार से दी गई है।"
"ऐसी सदस्यता ग्रहण करना तो काफी लाभदायक है।"
"जी हाँ, यह तो एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें नुकसान होने का कोई सवाल ही नहीं उठता। इसके अतिरिक्त, हमारी कंपनी इस दिशा में सोच रही है कि सरकारी अनुदान को सभी सदस्यों में नहीं बाँटकर उस धनराशि से 'कालाहांडी इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट' नामक एक नई नॉन-बैंकिंग कंपनी खोली जाए ताकि और अधिक लाभांश हमारे सदस्यों को मिल सके। फिलहाल यह स्कीम परिकल्पना मात्र है। इस दिशा में क्रियान्वयन करना अभी शेष है।
कालाहांडी को लेकर इतनी अजीबो-गरीब परिकल्पनाएँ भी की जा सकती है। यह सब सोचकर मैं अचंभित रह गया।। जहाँ इंसान दिन दूनी रात चौगूनी प्रगति कर रहा है। जहाँ हम इक्कीसवीं शताब्दी की ओर बढ़ रहे हैं। जहाँ हमारा दिमाग लगातार कम्प्यूटर की तरह विकसित होता जा रहा है। उसी दिमाग की एक उपज यह भी है कि हमारे लोग कालाहांडी को एक नए व्यवसायिक वैभव के तौर पर पेश कर रहे हैं। यह सोचकर प्रफुल्लित मन से मैं स्टॉल से बाहर निकल आया।
स्टॉल नं-2
इस स्टॉल के साइनबोर्ड पर लिखा हुआ था, "विश्व के सारे राजनेता एकजुट हो।" पहले-पहले तो मैं साइनबोर्ड पढ़कर मैं चकित रह गया यह सोचकर, जहाँ राजनेता लोग विश्व के सारे मजदूर भाईयों, किसानों तथा गरीबों को एकजुट होकर विश्वव्यापी संगठन बनाने का आव्हान करते हैं, वहाँ उन राजनेताओं को यह बात अभी समझ में आई कि उन्हें भी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए एक संगठन की अत्यंत आवश्यकता है। यह पूरा स्टॉल केवल खद्दर के कुर्ते और पायजामे पहने हुए नेताओं की भीड़ से ठसाठस भरा हुआ था। स्टॉल के बाहर एक आदमी माइक पर लगातार भाषण दिए जा रहा था। भाषण देते समय कभी-कभी उसके स्वर तेज हो जाते थे तो कभी-कभी एकदम धीमे।
बीच-बीच मे वह उत्तेजित होकर बोलने लगता था तो कभी दोगुने उत्साह के साथ अपना भाषण देता था। उसके भाषण को सुनने का मैने प्रयास किया। उसके भाषण की कुछ बातें अभी भी मेरे स्मृति पटल पर अंकित है :-
बंधुगण ! अब वह उचित समय आगया है, हमें यह बात सिद्ध करनी है कि भारतीय नेता कोई भीरु नेता नहीं है। इस संदर्भ मे आप अपनी अमूल्य राय प्रकट करें। भारतीय नेता भले ही गरीब हो सकते हैं, मगर मूर्ख नहीं। आज हमें सारे विश्व को दिखाना है कि भारतीय जनता पूर्णतया निर्भीक एवं राजनैतिक रुप से सचेत हैं। आज हमें यह भी दिखाना है कि कालाहांडी हमेशा कालाहांडी ही रहेगी। (रुककर थूक निगलने के बाद)
बंधुगण ! अब और किसी भी तरह के अत्याचार और अन्याय को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हम लोग इसके खिलाफ हमारे खून के आखिरी कतरे तक लड़ाई करेंगे। मैं तो कहूँगा, अपना विरोध प्रदर्शन कीजिए। गली-गली, नुक्कड़-नुक्कड़, रास्ते-रास्ते, चौराहे-चौराहे पर विरोध-प्रदर्शन के लिए अभी से मोर्चा खोल दीजिए। घर से बाहर निकल आइए डरकर मुकाबला करने के लिए और दिखा दीजिए सारे विश्व को कालाहांडी का महत्व। दिखा दीजिए उस रीगन को, रोनाल्ड रीगन को, जो कभी अभिनेता हुआ करता था और जिसका बाप कभी अफीम व्यवसायी था। कितना तुच्छ लगता है वह कालाहांडी के सामने !
कितना तुच्छ लगता अमेरिका का लीबिया के ऊपर आक्रमण ! कितना छोटा लगता है डियागो गार्शिया, निकारागुआ , फ्रिटोरिया सरकार के प्रति रीगब और थैचर का समर्थन ! नाम का साऊथ-साऊथ डायलॉग स्लोगन ! उन सभी को दिखा दीजिए कालाहांडी का महत्व। जब तक हमारे हाथ में कालाहांडी है, तब तक सी.आई.ए एजेन्ट, तो क्या एक सौ सी.आई.ए. एजेंट, एक हजार रामस्वरुप, दस हजार चार्ल्स शोभराज की शैतानी बुद्धि को परास्त करके जारी रख सकते हैं हम हमारा संग्राम। इस संग्राम को जिंदा रखने की क्षमता केवल कालाहांडी में ही है।
उपर्युक्त भाषण का अर्थ मुझे समझ में नहीं आ रहा था। मै इसका अर्थ जानने के लिए पास खड़े राजनेता के चमचे को पूछने लगा, "बाबू, यह महाशय क्या कह रहे हैं ?"
"भाषण दे रहे हैं।"
"भाषण तो दे रहे हैं, मगर क्या कह रहे हैं ?"
"भाषण ही तो देंगे और ज्यादा क्या कहेंगे ?"
"नहीं, मेरा मतलब इस भाषण का कोई न कोई उद्देश्य तो होगा, अर्थ तो
होगा।"
"नहीं, नहीं। आजकल अर्थ वाले भाषण कोई नहीं देते हैं। सही-सही अर्थ तो
पहले से लिखकर अखबार वालों को दे दिए जाते हैं। बाकी यहाँ तो आजकल अर्थहीन
भाषणों का ही प्रचलन है।"
"यह भद्र व्यक्ति अपने भाषण में बार- बार कालाहांडी के मुद्दे को
क्यों उठा रहा है ?"
"अरे, आप नहीं जानते हैं। यह तो आजकल का नया फैशन है। आप जितना भी भाषण दीजिए, अगर कालाहांडी का नाम नहीं लेते हैं तो आपका भाषण अधूरा का अधूरा रह जाता है। अगर आप मुख्यमंत्री के इस्तीफे की माँग करते हैं तो आपको कालाहांडी का मुद्दा सामने रखना पड़ेगा। अगर आप मुख्यमंत्री के समर्थक अथवा प्रशंसक हैं तब भी आपको कालाहांडी के क्रियाकलापों पर बात करनी ही पड़ेगी। इससे भी बढ़कर, आजकल रीगन और गोर्बाचोब के हॉटलाइन प्रसंग में भी कालाहांडी की बात स्वतः घुस जाती है।"
मैं और ज्यादा वहाँ खड़ा नहीं रह सका। तुरंत सीधे स्टाल के भीतर चला गया। यहाँ भी तरह-तरह के चित्र लगे हुए थे विश्व के जाने-माने राजनैतिक नेताओं के माइक के आगे खड़े होकर भाषण देने के परिदृश्यों के पर इन सबको
देखने से मुझे क्या फायदा ? फिर भी मैने वहाँ के एक कार्यकर्ता से पूछा "क्या
इस स्टॉल में केवल चित्रों की प्रदर्शनी ही लगी हुई है ?"
मेरी इस अज्ञानता को देखकर उस कार्यकर्ता के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। वह आगे कहने लगा "आप इतना भी नहीं जानते हैं इस प्रदर्शनी के सारे स्टॉलों में यह स्टॉल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्टॉल है। यही वह स्टॉल है, जहाँ हम कालाहांडी को आधार बनाकर राजनैतिक सरगर्मियों को हवा देते हैं।"
"वह कैसे ?"
"देखिए, सवाल यह नहीं है कि आप शासक दल से सम्बंध रखते हैं या किसी विरोधी दल से। बात यह भी नहीं है आप सांप्रदायिक दल के हैं अथवा कम्युनिस्ट पार्टी के। यह सर्वविदित है कि राजनीति में मत भले ही अलग-अलग होते हैं, मगर सभी का रास्ता एक ही होता है। और वह रास्ता है अपने आप को समाज में स्थापित करने के साथ-साथ अधिकाधिक काला धन संग्रह करने का। इन चीजों के लिए कालाहांडी ही सबसे उपयोगी साधन है। अगर सही पूछें तो इस क्षेत्र में कालाहांडी की उपयोगिता प्रश्नातीत है। मान लीजिए आप अपने विरोधी दल को मात देना चाहते हैं तो कालाहांडी की समस्याओं को देश की जनता के सामने उजागर कर दो, बस आपका काम बन जाएगा। और जब आप शासक दल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहते हो तब भी कालाहांडी को लेकर विधानसभा में रख दो, बस आपकी बात बन जाएगी। आपकी हर समस्या का एक सटीक ईलाज है, वह है, कालाहांडी का मुद्दा। यह मुद्दा जरुर रंग लाएगा। हमआपकी मदद करने के लिए तत्पर मिलेंगे।
"आप कैसे मदद करोगे ?"
"आप चाहते हैं कि कालाहांडी में भूख के मारे कोई अपना बच्चे बेच दे तो बच्चे बिकवाने में आपकी मदद करेंगे। बच्चे के बेचने के कागजात सारी प्रतिलिपियों सहित आपको दे दिए जाएँगे साथ में उस को भी। अगर और आप चाहते हैं कि किसी को कानों कान पता तल तक नहीं चले कि बच्चे कालाहांडी में नहीं बेचे जा रहे हैं तब भी हम यह प्रमाणित करने में सक्षम हैं कि जिन बच्चों के बेचने के बारे अभियोग लगाया गया है, सही मायने में वह एकदम झूठा और मनगढंत है। तब हम कि जो बच्चे बेचे जा रहे हैं वे बच्चे वास्तव में बच्चे बेचने वाले माँ-बाप के नहीं है वरन खरीदने वालों की तरफ से पैदा किए हुए बच्चे हैं। बताइए, इससे बड़ा सबूत और कोई दे सकता है ?"
"आश्चर्य है।"
"इतना ही नहीं, अगर आप चाहेंगे तो हम सैकड़ों लोगों को अनाहार मृत्यु का शिकार बना सकते हैं। और अगर आप इस बात को झुठलाना चाहते हैं तो हम लोग इस बात को भी प्रमाणित कर देंगे कि वे लोग रायपुर में रिक्शा चला रहे हैं।"
"मानना पड़ेगा कालाहांडी में आप जैसे पहुँचे हुए लोग हैं।
"और क्या कहूँ, अगर आप राजनीति में हैं तो कालाहांडी आपके लिए सर्वोपरि साधन है। भले ही, आप विधानसभा में राजनीति करते हैं अथवा अखबारों में खबरे छापते हैं, आपको मसाला प्राप्त करने के लिए आना तो कालाहांडी ही पड़ेगा।"
"अच्छी बात है। आप ठीक ही कह रहे हैं। जिसको जैसी सूचनाएँ चाहिए, उसको वैसी ही सूचनाएँ आप देते होंगे। मगर एक बात जानना चाहता हूँ कि असल में सच्चाई क्या है ?"
वह आदमी हँसने लगा, "सच्चाई ? कैसी सच्चाई ? सच्चाई कुछ भी हो सकती है। मगर हमारा कारोबार क्या सच्चाई के साथ है ? नहीं, हमारा कारोबार राजनीति के साथ है। राजनीति ही हमारे लिए एकमात्र सच है। और वह एक मात्र सच है कलाहांडी। दूसरे तरीके से कहूँ, जब तक कालाहांडी है, तब तक राजनीति है। हम नहीं चाहते कि कालाहांडी खत्म हो जाए, वह हमेशा अक्षुण्ण व अविनाशी बनी रहे। यह हमारा मूल लक्ष्य है। और इस लक्ष्य को बनाए रखने में ही हमारी भलाई है।"
मैने उपरोक्त जानकारी देने वाले सभी नेताओं के नाम तथा पते अपनी डायरी में लिख लिए ताकि भविष्य में हमारे अखबार को कभी उनकी जरुरत पड़ी तो मन मुताबिक सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए उनसे संपर्क करेंगे ।
स्टॉल नं - 3
यह स्टॉल एक स्टूडियो का है। इस स्टॉल में कुर्सी लगाकर एक आदमी बैठा हुआ है । उसके सामने एक टेबल रखा हुआ है। जिस पर अलग-अलग आकार के बहुत सारे फोटो बिखरे पड़े हैं। उस आदमी के पीछे एक बैनर पर लिखा हुआ है "केवल आधे घंटे में आप अपना फोटो तैयार करवा कर ले सकते हो।"
स्टूडियो के सामने एक बोर्ड के ऊपर लिखा गया है, "कालाहांडी के साथ आप अपना मन पसंद फोटो खिंचवाइए।" मेरे से रहा नहीं गया। मैने उस स्टॉल के फोटोग्राफर से पूछा
"कालाहांडी के साथ फोटो खिंचवाने का क्या मतलब है ?"
फोटोग्राफर कहने लगा "आज के युग में कालाहांडी एक महत्वपूर्ण विषय है।चाहे आप राजनीति कीजिए, चाहे आप साहित्य सृजन कीजिए। चाहे कोई अपना कारोबार कीजिए या चाहे कोई सरकारी, गैर सरकारी नौकरी कीजिए। इन सभी अवस्थाओं में यह प्रमाणित करने के लिए कि आप कितने मानवता प्रेमी तथा हमदर्द इंसान हैं, कालाहांडी की * महत्ती *आवश्यकता पड़ती है । इससे बढ़कर आजकल यह अपने स्टेटस का सवाल भी बन गया है। कम से कम अखबार के पन्नों पर, ड्राइंग रुम की दीवारों पर या फिर एलबम के फोटों में एक याददाश्त रहनी चाहिए। जिसमें आप कालाहांडी की दरिद्र जनता को पुराने कपड़े, बिस्कुट, पावरोटी तथा केक बाँटते हुए नजर आ रहे हो। या फिर उन लोगों के बीच में खड़े होकर भाषण दे रहे हो या फिर उनके साथ मिलकर पारंपरिक वेशभूषा में नृत्य कर रहे हो। देखिए, इन सब परोपकारी कार्यों के लिए कालाहांडी जाकर व्यर्थ में अपने पैसे बर्बाद करना कहाँ तक उचित है ? हमारे स्टूडियो में मात्र पन्द्रह या बीस रुपए में फोटो खिंचवाकर आराम से इस काम को किया जा सकता है।
"कालाहांडी नहीं जाकर इस कालाहांडी के साथ फोटो खिंचवाना कितना मौलिक
और औचित्यपूर्ण है ?"
"मौलिक और औचित्यपूर्ण, मतलब ? यही तो असली सार्थक फोटो है। जरा सोचिए, कालाहांडी को लेकर आजतक जितने भी फोटो छपे हैं, जितनी टेली और विडियो फिल्में बनी हैं, वे सब स्टूडियो में सेट करके बनाई गई हैं। इस बात को मैं दावे के साथ कह सकता हूँ। हिंदी फिल्मों में स्वर्ग या नरक के फोटो लेने के लिए क्या फोटोग्राफर को वहाँ जाना पड़ता है ? नहीं, बिल्कुल नहीं। ऐसे ही यहाँ भी सब कुछ वास्तविक है। जहाँ भूखी जनता है, वहीं कालाहांडी है। अब इस फोटो की तरफ देखिए, इसफोटो में हमारे प्रिय मुख्यमंत्री लोगों को प्रमाण-पत्र वितरण कर रहे हैं।
क्या आपको यह वास्तविक नहीं लग रहा है ? मगर आप जानकर अचरज में पड़ जाएँगे कि
यह फोटो हमारे स्टूडियो की लेब में तैयार किया गया है। स्टॉल के इस स्टूडियो
में नहीं बल्कि मास्टर कैंटीन के पास जो हमारा फोटो स्टूडियो है उसमें।
कभी तशरीफ़ रखिए उस स्टूडियो में। अब जरा इस फोटो को भी देखिए। ये है विरोधी
दल के लोकप्रिय नेता, उनको घेरे हुई है चारों तरफ से कालाहांडी की जनता। विरोधी
दल के इस नेता को मात्र स्पर्श करने के लिए कितनी लालायित है यहाँ की जनता। अगर
उनके चरण-स्पर्श करने का मौका मिल जाए तब तो कहना ही क्या, जीवन ही धन्य हो
गया, समझिए।इस राजनेता की लोकप्रियता में चार चाँद हमारे स्टूडियो ने ही लगाए
हैं। ये जो जनता आप देख रहे हैं उन फोटो में, वास्तव में यह जनता कालाहांडी की
नहीं है, बल्कि भुवनेश्वर की झोपड़पट्टी मालीसाही की जनता ह है । क्या आपको
यह मौलिक नहीं लग रहा है ? यही नहीं इस बात को हम लिखित प्रमाण के साथ देंगे कि
यह फोटो कालाहांडी अमुक स्थान पर अमुक समय में खिंचवाया गया है। हमारे
प्रमाणपत्र की वैधता सब जगह स्वीकार्य है।"
फोटोग्राफर महोदय के इस अनोखे व्यापार, उनकी व्यवसायिक कुशलता और प्रतिभा
से प्रभावित होकर मैं अभिभूत सा हो गया। कुछ समय के बाद मैं स्टॉल से बाहर
निकल गया।
स्टाल नं - 4
अगले स्टॉल के ऊपर साईन बोर्ड में लिखा हुआ था "बच्चा एवं महिला
बिक्री सहकारी समिति, कालाहांडी।" साइनबोर्ड के नीचे लाल अक्षरों में लिखा हुआ
है "प्रदर्शनी के इस विशेष आफर पर 20 प्रतिशत की छूट।"
जैसे ही मैं स्टॉल के भीतर घुसा, वैसे ही एक सेल्समेन मेरे पास दौड़कर
आया और कहने लगा, "कहिए श्रीमान, आपको किस तरह के बच्चें या औरतें चाहिए ? बहुत
ही सामान्य दाम पर। इसके अलावा, बीस प्रतिशत की छूट भी है इस आफर पर। सैम्पल
देखना चाहेंगे ?"
मैने उससे पूछा, "आप लोग बच्चों और औरतों को बेच क्यों रहे हो ?"
इसलिए कि बाजार में इनकी बहुत डिमांड है तथा भाव भी मुँह माँगे मिल
रहे हैं . इससे पहले लोग किसी प्राकृतिक आपदा से त्रस्त होकर अपने
बीवी-बच्चों को बेचते थे लेकिन उनको वाजिब दाम नहीं मिल रहा था। कई बार तो
उन्हें बिचौलिए लोग धोखा दे जाते थे। अभी हम सबने मिलकर बीवी-बच्चें बेचने वाले
इच्छुक लोगों को एकजुट कर सहकारी समिति का गठन किया है।
"क्या आपको नहीं लगता है कि इंसान बेचना एक अमानवीय कार्य है ?"
यह प्रश्न सुनकर हिचकिचाना तो दूर की बात हँसते हुए वह सेल्स मैनेजर
ऐसे कहने लगा मानो मैं एक मूर्ख ग्राहक हूँ "बिल्कुल ऐसी बात नहीं है। अगर
आप निरपेक्ष भाव से सोचेंगे तब आपको समझ में आएगा। वास्तव में हम लोग मानवता की
अमूल्य सेवा में समर्पित हैं। पहली बात, आगर आप घर में काम करने के लिए किसी
छोटे बच्चे को रखते हैं और कोई, खुदा न खास्ता, आपका शत्रु पास के किसी स्थानीय
श्रम कल्याण अधिकारी को इत्तला कर देता है कि आप अपने घर में एक बाल-श्रमिक को
रखकर उसका शोषण कर रहे हैं, तब आपकी खैर नहीं है। वह अधिकारी या तो आपको कोर्ट
में खड़ा कर सकता है या फिर लंबी-चौड़ी रिश्वत लेकर आपको वित्तीय नुकसान
पहुँचा सकता है। मगर अगर आप कालाहांडी का बच्चा खरीदते हैं तो कोई भी आप पर बाल
श्रमिक रखने का आरोप नहीं लगा सकता है, बल्कि सहानुभूति का ही प्रदर्शन करेगा
यह कहते हुए कि बच्चा बेचारा भूख से तड़प रहा था, वो तो आप जैसे दयालु लोगों की
उस पर दृष्टि पड़ी थी तो उसे अपने घर ले जाकर अपने बेटे के समान लालन-पालन कर
रहे हैं। अब आप ही फैसला कीजिए, हम मानवता के पुजारी हैं या नहीं ? दूसरी बात,
अगर बच्चें नहीं बेचे जाएँगे तो विरोधी दल के नेताओं को विधानसभा में हंगामा
करने का सुअवसर कैसे प्राप्त होगा ? अगर विरोधी दल हंगामे के रुप में अपना
विरोध प्रदर्शन नहीं करेंगे तो फिर गणतांत्रिक व्यवस्था का क्या मतलब रहेगा ?
यही नहीं, शासक दल के नेताओं का भी यही सोचना है अगर बच्चें बेचे नहीं जाएँगे
तो कालाहांडी का महत्व ही खत्म हो जाएगा। ओर अगर कालाहांडी का महत्व खत्म हो
गया तो केंद्र सरकार से विशेष अनुदान कैसे स्वीकृत होगा ? यही कारण है उड़ीसा
का भविष्य और आर्थिक सुरक्षा कालाहांडी पर ही निर्भर करता है । और कालाहांडी
निर्भर करती है बच्चें बेचने पर।"
इतना कहने के बाद सेल्समेन मुझे पास वाले दूसरे शोरुम में लेकर गया।
उस शोरूम में विभिन्न उम्र की औरतें तथा बच्चें सजाकर बैठाए हुए थे।
सेल्समेन फिर से कहने लगा, "पहले आप यह तो बताइए कौन सा माल खरीदना
आप पसंद करेंगे ? बच्चें या औरतें। बच्चें खाएँगे कम तो काम भी करेंगे कम, ऊपर
से मारपीट का कोई विरोध भी नहीं करेंगे। जबकि औरतें खाएंगी ज्यादा तो काम भी
करेंगी ज्यादा, मगर उन्हें अगर दो शब्द बोल दिए तो तीन शब्द लौटाएंगी आपको। इसी
वजह से बीच में गूँगी औरतों की माँग काफी बढ़ गई थी। हमारे स्टॉल से वह माल बिक
चुका है।"
"क्या आप लोग थोक भाव से बच्चों और औरतों को बेचते हो ?"
"नहीं, नहीं। हमने अपना नियम बना रखा है एक ग्राहक को केवल एक माल।
ऐसा नियम बनाने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है माल के दुरुपयोग को रोकना। कई
बार बंधुआ मजदूरों के ठेकेदार अथवा वैश्यालयों के मालिक हमारी समिति से थोक
भाव में माल खरीद लेते थे। तब हमारी समिति पर तरह-तरह के आक्षेप लगने लगे, उसी
समय से हमने 'एक ग्राहक-एकमाल' का नियम लागू कर दिया।"
सेल्समेन ने अपने चारों तरफ देखा कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है।
निÏश्चत होने के बाद वह मेरे कान में धीरे-से फुसफुसाकर बात करने लगा मानो कोई
गोपनीय बात कर रहा हो।
"नियम-कानून की बातें अपनी जगह हैं । अगर आप वास्तव में थोक भाव में
माल खरीदना चाहते हैं तो मैं उसकी व्यवस्था कर सकता हूँ, बशर्ते मेरा अतिरिक्त
कमीशन बीस प्रतिशत होना चाहिए।"
मैं उसका यह गोपनीय प्रस्ताव सुनकर घबरा गया और प्रसंग बदलने के लिए सिर
खुझलाने लगा। धीरे-से उसके कान में पूछा "क्या यह सब माल कालाहांडी का है ?"
मेरे इस उत्सुकता भरे सवाल को सुनकर सेल्समेन को विश्वास हो गया कि मैं माल
खरीदने के लिए तत्पर हूँ। उसने स्पष्ट कर देना उचित समझा।
"नहीं सर। कालाहांडी के नाम पर हमारा व्यवसाय फलीभूत हो रहा है।
कालाहांडी का माल तो बेकार है। हम लोग पूरे भारतवर्ष से माल-संग्रह करते
हैं। मराठवाड़ा, गुजरात, इधर पुरुलिया से दण्डकारण्य का इलाका। जहाँ कहीं भी
अकाल पड़ता है, हमारे सहकारी समिति के लोग वहाँ पहुँच जाते हैं। आपको हमारे
यहाँ बंगाली तेलगू, बिहारी, आदिवासी हर किस्म का माल तैयार मिलेगा। ऐसे तो
हमारे यहाँ नियमानुसार जाति-प्रथा का प्रचलन नहीं है। फिर अगर आपको किसी
विशिष्ट जाति का माल चाहिए तो आप मुझे कह सकते हैं। मैं आपके लिए अलग से स्वर्ण
जाति के माल की व्यवस्था कर दूँगा। केवल दिखाने के लिए हमारे माल
का ब्रांड कालाहांडी है, असलियत में तो यहाँ पूरे भारतवर्ष का माल आपको उपलब्ध
मिलेगा। आपसे क्या छुपाना ? बाजार में हमारे माल की माँग इतनी ज्यादा है कि
उसकी आपूर्ति करते-करते कालाहांडी तो क्या उड़ीसा की सारी जनसंख्या भी कम पड़
जाएगी।"
उत्साहित सेल्समेन द्वारा इतनी खुशामद करने के बावजूद भी जब मैने माल
खरीदने के लिए मना कर दिया, तो वह बुरी तरह से निराश हो गया। मुझे वहाँ से
जाता देख अपने तिलमिलाए चेहरे पर सज्जनता दिखाने का अभिनय करते हुए कहने लगा
"एक बार फिर से सोच लीजिए, सर। किफायती दाम, उस पर बीस प्रतिशत की भारी छूट।
इस छूट के सुअवसर को हाथ से जाने मत दीजिए। इतने सस्ते में कोई भी आपको माल
नहीं देगा।"
एण्टी-क्लाईमेक्स जिसका शीर्षक 'नांदीमुख *होना उचित
चारों स्टॉल देखने के बाद मैं प्रदर्शनी से बाहर निकल आया। चारों तरफ
लोगों की भीड़ ही भीड़ लगी हुई थी। टेप रिकार्डर में गीत लगा हुआ था, "सारे
जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा।" मेरा तन-मन गुस्से से थर्रा रहा था। कुछ न
कुछ तो करना ही पड़ेगा. कुछ न कुछ कदम जरुर उठाने पडेंगे।इस घोर अन्याय और
अत्याचार को ऐसे ही छोड़ देना कहाँ तक उचित
होगा ? लेकिन मैं अकेले कर क्या सकता हूँ ? क्या कभी अकेला चना भाड़ फोड़ सकता
है ? नहीं, तब किस तरह मैं अपना विरोध प्रकट करूँ ? क्या ऐसा हो सकता है, कहीं
से मुझे एक बम मिल जाए। उस बम को मैं प्रदर्शनी के ऊपर फोड़ दूँगा। मैं जानता
हूँ यह बम फोड़ने का काम मेरे बस का नहीं है। मैं तो ठहरा एक साधारण उड़िया
मध्यमवर्गीय परिवार का एक अद्र्धप्रौढ़ गृहस्थ आदमी। बम तो बहुत दूर की बात,
मुझे तो छुरी और पिस्तौल/से भी बहुत ड़र लगता है। यही कारण है कि मैं "अहिंसा
परमो धर्मः" का पक्का पुजारी हूँ। बम फेंकने जैसा दुस्साहस मुझसे नहीं हो सकता।
तब क्या इस अन्याय के खिलाफ एक रिपोर्ट तैयार कर अपने अखबार में छाप
दूँ ? कम से कम मेरे पत्रकार होने का कर्त्तव्य पूरा हो जाएगा। पता नहीं,
मेरे अखबार के संपादक और मालिक मेरे नजी विचारों से सहमत होंगे अथवा नहीं ? कई
बार मैने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई तथा विरोध स्वरुप मैने
रिपोर्ट तैयार कर संपादक को सुपुर्द की। तब हमारे संपादक ने अपनी चतुराई के साथ
मन्द-मन्द मुस्कराते हुए कहा "आप बहुत भावुक प्रकृति के आदमी हो। पत्रकारिता
में आपका ज्यादा तजुर्बा नहीं है, इसलिए अपनी इतनी कठोर प्रतिक्रियाएँ
व्यक्त करते हो। जैसे-जैसे इस दिशा में आपका अनुभव बढ़ेगा, वैसे-वैसे
धीरे-धीरे कर सब-कुछ आपकी आदतों में शुमार हो जाएगा।"
अगर अखबार के मालिक और संपादक मेरी रिपोर्ट को छाप भी देते हैं तब
केवल रिपोर्ट छाप देने से किसी भी परिस्थिति में कोई बदलाव आने की संभावना नहीं
है। रिपोर्ट का प्रचार करना होगा। समय-समय पर इस परिस्थिति के ऊपर अन्य
रिपोर्ट, तर्क-वितर्क तथा लोगों की प्रतिक्रिया छापकर जन-चेतना को जागृत करना
होगा, एक आंदोलन चलाना होगा।
मुझे यह भी अच्छी तरह मालूम है, मेरे अखबार का मालिक और संपादक इतना दूर
तक साथ देना कभी पसंद नहीं करेंगे। अगर कुछ दूरी तक साथ देते भी हैं तो अपना
स्वार्थ सिद्ध होने के बाद मौका देखकर अपने कदम इस आंदोलन से पीछे खींच लेंगे।
मैं यह भी जानता हूँ मैं मेरे अखबार में वही लिखूँगा जो मेरे अखबार के मालिक
चाहेंगे, और वही देखूँगा जिसे देखने के लिए वह कहेंगे।
सोचते-सोचते मैं बहुत दूर तक आ गया था। प्रदर्शनी काफी दूर रह गई थी
पीछे। प्रदर्शनी की झिलमिल रोशनी और माइक की आवाजें थोड़ी- थोड़ी यहाँ तक
पहुँच रही थी। मैं खुले मैदान के बीचो बीच बैठ गया। काफी गर्मी लग रही थी। मैं
ऊपर क्षितिज की तरफ देखने लगा। आकाश में न कोई बादल दिखाई दे रहे थे और न ही
कोई चाँद। आकाश में केवल तारें टिमटिमा रहे थे। मैं अपने आपको भीतर ही भीतर
असहाय अनुभव करने लगा। और मैं क्या करता ? क्या मैं चुप रह जाऊँ ? क्या मैं भूल
जाऊँ कालाहांडी प्रदर्शनी की सारी बातें ? या फिर फिल्म स्टूडियो की फिल्मों की
सारी बातें --------- ? या फिर एक साधारण खबर बनाकर छाप दूँ ताकि अखबारों
के बीच वाले पेज के अंतिम कॉलम में वह खबर छुपकर रह जाए ?
मुझे बुरी तरह से थकान लगने लगी थी। मैं जानता था कि मैं कुछ भी नहीं कर
पाऊँगा। मेरे समकालीन लोगों से भी कुछ नहीं होगा। यह समय बाँझ हो गया है।
जम्हाई के ऊपर जम्हाई आ रही थी। कुछ न कुछ तो करना ही होगा। मैं जानता था कि
मेरे द्वारा कुछ भी करना संभव नहीं था । इसके उपरांत भी इतना अन्याय, इतना
अत्याचार। इसके खिलाफ विरोध करना अत्यंत जरुरी है। हम सभी बाँझ समय के भीतर से
गुजर रहे हैं। ऐसे समय से कुछ आशा रखना बाँझ के पुत्र होने जैसा है। हमें चाहिए केवल एक बम।
पुलिस से मुझे बहुत डर लगता है। मैं तो पूर्णतया एक संसारी आदमी हूँ। तब भी कुछ न कुछ तो कर गुजरना
पड़ेगा ? कुछ भी एक काम ! कुछ तो अवश्य करना पड़ेगा।
यह सोचते-सोचते कब मुझे नींद लग गई पता ही नहीं चला। मैं गहरी नींद में
सोया हुआ था घास के मैदान में, खुले आसमान के तले, आधी-रात को।

Comments

  1. very nice mali ji jay hind
    tinke tinke se ghosla banta he?

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  2. It 's a very well presented with full of meaningful thoughts.Let us learn lesson from it and emulate in our life specially all those who are tagged with journalism!

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  3. very well said by Bishwa Nath Singh,i agree with him.

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  4. bahoot hi sunder

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